खत्म न होने वाला सफर

डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के जन्मदिवस के अवसर पर

अंनिस ने अगर अंधविश्वास के प्रकार, उसके पीछे होनेवाली मानसिकता, श्रद्धा-अंधविश्वास, ईश्वर-धर्म-नीति की चिकित्सा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार इतना ही कार्य किया तो उतना ही कार्य पर्याप्त था। लेकिन इस कार्य का सुसंगत विचार आगे विवेकवाद, धर्मनिरपेक्षता, जाति उन्मूलन, सामाजिक न्याय की ओर जाता है।  यह कार्य कुछ हद तक हो गया है। संक्षेप में, चमत्कारों के आकर्षण से शुरू हुई यह चर्चा व्यापक समाज परिवर्तन के आयाम तक पहुँच चुकी है। मेरी जानकारी के अनुसार इस प्रकार का कार्य करनेवाले भारत के किसी भी संगठन का ऐसा विकास नहीं हुआ है।

‘शब्द’ नामक दीपावली अंक के संपादक ने ‘पीछे मुड़कर देखते हुए’ इस विभाग के लिए मैं लिखूं, ऐसा पत्र भेजा। उसमें एक वाक्य इस प्रकार है, ‘इस विभाग में असामान्य और ख्यातलब्ध व्यक्तियों को लेखन के लिए आमंत्रित किया है।’ यह वाक्य स्वाभाविक रूप से मेरे अहं को बढाने वाला था। मैं जिस कारण से ख्यात हूँ, उसी को ध्यान में रखकर लिखने के लिए कहा गया है। यह सच है कि मैं पिछले 20 सालों से अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य कर रहा हूँ, लेकिन पिछले 10 वर्षों से मैं साने गुरुजी द्वारा शुरू किए गए ‘साधना’ साप्ताहिक का संपादक भी हूँ। यह साप्ताहिक पूरी तरह से विकसित हो रहा है। फिर भी महाराष्ट्र में अगर 100 लोगों से परिचित हुआ, तो उनमें से 95 लोग दाभोलकर और अंधविश्वास उन्मूलन का संबंध जोड़ देते हैं। उनमें से कई लोगों को ‘साधना’ साप्ताहिक के बारे में पता ही नहीं होता है। इस कारण से मैं ‘साधना’ का संपादक हूँ, यह बात उनके लिए अर्थहीन होती है। सच तो यह है कि, मैं बहुत संघर्ष के बाद यहाँ तक पहुँचा हूँ। सब में कम-अधिक सफलता मुझे मिली है।

उदाहरण के लिए देखा जाए तो - मैं कबड्डी का राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी था। मराठी में कबड्डी से संबंधित एक अच्छी पुस्तक मैंने लिखी है। सरकार द्वारा दिया जाने वाला शिवछत्रपति क्रीडा पुरस्कार जो कि सर्वोच्च पुरस्कार है, जो मुझे कबड्डी के लिए मिला है। क्रीडा संघटक, क्रीडा स्तंभ लेखक, निवेदक ऐसी कई भूमिकाओं में 20 साल मैदान पर रहा। यही बात ‘साधना’ साप्ताहिक की भी है। अंधविश्वास उन्मूलन के कार्य के साथ-साथ मैंने व्यसनमुक्ति की एक बड़ी संस्था शुरू की। व्यसनमुक्ति का यह कार्य भी अच्छी तरह से शुरू है। लेकिन इनमें से किसी भी कार्य के लिए मुझे पीछे मुडकर देखने को नहीं कहा गया है, ऐसी मेरी कल्पना है। ऐसा क्यों हुआ? इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं। श्रद्धा और अंधविश्वास के बारे में हर उम्र, हर स्तर, स्त्री-पुरुष, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर सभी में एक कट्टर जिज्ञासा पाई जाती है। इसलिए हर किसी के मन के साथ यह अंधविश्वास उन्मूलन का आंदोलन जुड़ गया होगा। अपने देश में पूँजीवादी मानसिकता है। यही कारण है कि संगठन की अपेक्षा व्यक्ति लोगों को जल्दी भा जाती है। इसलिए अंधविश्वास उन्मूलन और नरेंद्र दाभोलकर यह एक समीकरण बन गया है और इसी कारण से इस विभाग के लिए मेरा लेख मंगवाने की कल्पना का जन्म हुआ होगा।

‘धारणा और सातत्य’ ये दो चीजें हम जैसों के जीवन में दिखाई देती हैं। इसलिए वे ‘भीड़ नका हिस्सा बनकर, व्यक्ति बन जाते हैं’, ऐसा मनोदय संपादक ने व्यक्त किया है। इसके भी आगे जाकर धारणा का मतलब केवल बौद्धिक स्पष्टता नहीं है; बल्कि जो जेहन के साथ ह्रदय को भी स्पंदित कर देती हैं और कृति के लिए नैतिक सामर्थ्य निर्माण करती है उसे धारणा कहा जाता है, ऐसा स्पष्टीकरण दिया है।

मुझे स्पष्ट रूप से कबूल करना होगा कि ऐसा मेरे साथ कभी घटित नहीं हुआ है। मैंने एम.बी.बी.एस. पूरा किया। व्यवसाय करने लगा। उसके साथ ही ‘समाजवादी युवक दल’ इस नाम से सामाजिक कार्य भी शुरू किया। मेरे कुछ मित्रों ने मिलकर यह संगठन शुरू किया था। ऐसे कई संगठनों का 70-80 के दशक में महाराष्ट्र में उदय हुआ। उन्हें ‘अॅक्शन ग्रुप्स’ कहा गया। शुरुआत होना, कुछ समय तक शोहरत पाना और कुछ समय बाद अस्त हो जाना यह नौबत सभी के हिस्से में आई है। अतः 71 में शुरू हुआ ‘समाजवादी युवक दल’, 82 में रूक गया। उसे एक अच्छा नाम देने के उद्देश्य से हम ‘समता आंदोलन’ नामक संगठन में विलीन हो गए। उस संगठन का भी कार्य रुक गया। उसी समय अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य शुरू हो गया। उसका कारण था बी. प्रेमानंद की महाराष्ट्र व्यापी विज्ञान यात्रा। विज्ञान प्रसार का कार्य करनेवाले कुछ संगठनों ने मिलकर महाराष्ट्रव्यापी विज्ञान यात्रा निकाली थी। उसमें जो कई आंदोलन के समूह थे जिसमें एक समूह बी. प्रेमानंद का था। बाबागिरी के चमत्कार जो आज हमने ग्रामीण देहातों तक पहुँचाएँ हैं, वे उस समय पहली बार महाराष्ट्र में दिखाए गए थे। उसको देखने के लिए मेले जैसी भीड़ लगी थी। मुझे लगा कि यह कार्य महाराष्ट्र के लिए उपयुक्त सिद्ध होगा; लेकिन यह नहीं सोचा था कि यह कार्य मैं करूँगा। विज्ञान मेला संयोजन समिति में राष्ट्रसेवा दल यह एक प्रमुख संगठन था। उनके प्रमुख से मैंने बिनती की कि, आप इस कार्य को प्रमुखता से आगे ले जाए। उनको वह कार्य उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगा। वैसे तो मेरे पास भी काफी समय था। व्यवसाय भी बंद किया था। वैसे तो मैं व्यापक परिवर्तन के आंदोलन का कार्यकर्ता था। मेरे संगठन का कार्य भी बंद हो गया था। जो व्यक्ति खाली होता है वैसे व्यक्ति को ही काम में लगाया जाता है। लेकिन मेरे बारे में वैसा नहीं हुआ न ही किसी ने मुझे बुलाया। मेरे पास समय था इसलिए मैंने यह कार्य शुरू किया।

कई लोगों को लगता है कि किसी घटना की प्रेरणा या किसी आघात के कारण मैं इसकी ओर आकर्षित हुआ हूँ। लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। इतना ही नहीं मेरे कई मित्रों को मेरा यह निर्णय उस समय ठीक नहीं लगा था और आज भी उनको यह उचित नहीं लगता है। उनके ही शब्दों में कहा जाए तो, यह कार्य ‘जादू के प्रयोग दिखाते’ घूमना जीवन को व्यर्थ करने जैसा है और एक तरह से समय की बर्बादी है। लेकिन सातत्य की जो दूसरी बात संपादक ने प्रस्तुत की है, वह पूर्णतः मुझसे मेल रखती  है। फिर भी यह सातत्य इस कार्य के लगाव के कारण नहीं आया है। हो सकता है कि पहले से ही मुझमें यह वृत्ति थी। मैं स्कूल में खिलाडी था। किसी धार्मिक कर्मकांड की तरह सालभर के अर्थात 365 दिन मैं शाम के समय क्रीडा मंडल में जाता। खेलने से पूर्व मैदान की मरम्मत तथा कुली जैसे काम बहुत ही ख़ुशी से करता था। इस समय मैं कभी भी सातारा के रास्ते पर शाम को घूमने नहीं गया। शाम 6 बजे सिनेमा देखने की बात तो दूर ही रह गई। जब मैं ‘साधना’ का संपादक बना, उस समय अंनिस आंदोलन का कार्यक्षेत्र काफी हद तक फैला हुआ था। अतः ‘साधना’ की जिम्मेदारी मुझ पर सौंपनेवालों के मन में संदेह उत्पन्न हो रहा था। मंगलवार को अंक छापना, बुधवार को उसकी बाईंडिंग करना और बृहस्पतिवार को 12 बजे तक वह पोस्ट में पहुँचाना आदि बातें साप्ताहिक के लिए अपरिहार्य थी। इसका क्रम बिगाड़ने का मतलब है कई समस्याओं को आमंत्रण देना। मेरी महाराष्ट्र भर में जो दौडधूप है उसमें मैं यह कर पाऊँगा या नहीं इसके बारे कई लोगों को संदेह था। उस बात को अब 10 साल हो गए हैं। इस दौरान ‘साधना’ के 500 अंक प्रकाशित हुए। उनमें से एक बार भी मैंने इस कार्य में गड़बड़ी नहीं होने दी।

लेखन के लिए पीछे मूडकर देखूँ और उसमें सावधानी के साथ ही व्याकुलता, अभिमान, गतानुरंजन की उत्सुकता पर भी भाष्य करूँ, ऐसी संपादक की अपेक्षा है। मन में थोड़ा तो अभिमान होगा लेकिन व्याकुलता नहीं होगी, गतानुरंजन तो बिल्कुल ही नहीं है। मेरा यह स्वभाव भी नहीं है। वैसे तो मुझे कई पुरस्कार मिले हैं। उसमें से कुछ पुरस्कार तो बहुत ही मौलिक थे। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो, दशक के सर्वोत्तम कार्यकर्ता के रूप में दिया जानेवाला 10 लाख रूपयों का पुरस्कार मुझे पिछले साल अमरिका में महाराष्ट्र फाउंडेशन ने दिया। जितने पुरस्कार मिले हैं उनमें से किसी भी पुरस्कार का मानचिह्न मेरे घर में नहीं है। विगत स्मृतियों में रममाण होनेवाला मैं नहीं हूँ; लेकिन हर समय सतर्क रहता हूँ। इसे आप सटीकता कह सहते हैं। मैं कभी-भी ‘आर या पार’ इस पद्धति से मैदान पर नहीं खेला हूँ, या समाजकारण में भी जीवन व्यतीत नहीं किया है। अतः परिवेश संबंधी तथा व्यवस्था संबंधी अंदाज गलत निकले, ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ है। हो सकता है कि मैंने कभी बड़ा खेल ही न खेला हो। पूरा कार्य करते समय परिस्थिति तथा लोगों के कारण मुझे कभी मुँह की नहीं कहानी पड़ी है। मैं कभी अपना सर्वस्व दाँव पर नहीं लगाता। इसलिए मुझे बर्बाद होने का भय नहीं है। लेकिन इस गतिशीलता पर मेरा विश्वास ही नहीं है या उस पद्धति से काम करने का मेरा स्वभाव नहीं है। मन लगाकर की जानेवाली दीर्घकालीन कार्यबहुलता और जो साध्य करना है उसकी समझ ही मेरे कार्यपद्धति का स्वरूप है।

मुझे कभी अपमानित नहीं होना पड़ा है। मुझे कोई अपमानित कर सकता है, इस पर भी मेरा विश्वास नहीं है। सामनेवाले व्यक्ति के व्यवहार से नाराज, दुखी तथा उदास हुआ हूँ लेकिन मैं कभी अपमानित नहीं हुआ। धमकियों का तो मुझ पर कुछ असर ही नहीं हुआ है। नरेंद्र महाराज ने अपने भाषण में ‘दाभोलकर के हाथ-पाँव तोड़ दो’ ऐसा कह दिया। ‘दाभोलकर ईसाई धर्मियों से पैसे लेकर हिंदू धर्म को डुबाने के कार्य करते हैं’ ऐसी तर्कहीन बातें कई बार की गई हैं।  शिवसेना-भाजप के विधायकों ने विधानसभा के प्रांगण में धरना आंदोलन किया था, जिसमें ‘महाराष्ट्र अंनिस पर रोक लगाएँ तथा दाभोलकर को महाराष्ट्र से खदेड़ दें’ ऐसी माँग की है। समाचारपत्रों ने मुझे इसके बारे में प्रतिक्रिया पूछी तो मेरी यही प्रतिक्रिया थी कि  ‘उनके ईश्वर, उन्हें माफ कर दो। क्योंकि उनको यह पता नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं।’ कानून बनाया जाए इसके लिए मैंने लातूर में दस दिन अनशन किया। लग रहा था कि कानून बनेगा लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। ऐसा होने के बाद कई लोगों के सामने प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि, अब इनका अनशन कैसे छूटेगा? किस के हाथों से वह छुड़वाया जाए और उस समय किस रौब में भाषण किया जाए – इसमें से किसी की भी मुझे ज़रूरत नहीं महसूस हुई। मैंने ही अनशन शुरू किया था और मैंने ही उसे रोक दिया। बस, इतना ही। कानून बनने के लिए बेवजह 16 साल लगे।

मैं उदास क्यों नहीं होता हूँ? ऐसा प्रश्न महाराष्ट्र में कई स्थानों पर पूछा जाता है। यह सच है कि कानून न बनने का दुख है, लेकिन अगर कानून बन भी जाए तो उसकी सीमाओं की भी समझ है। अतः किसी भी घटना से मन को ठेस पहुँचना, उसके प्रतिवाद में मन में जीतने की जिज्ञासा प्रज्वलित होना, ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ है। उस तरह का मेरा स्वभाव भी नहीं है। मैं जिस कार्यक्षेत्र में हूँ, वहाँ दस साल तक नहीं बल्कि शताब्दियों तक कार्य करना होगा इसका मुझे एहसास है।

अपमान मेरे हिस्से में कभी नहीं आया, बल्कि कई बार मुझे सम्मान ही मिला है, ऐसी मेरी प्रमाणिक भावना है। असावधानी से लिए गए निर्णय से बड़ी गलती हो सकती है और उससे जबरदस्त नुकसान हो सकता है, इसकी खबर मुझे है। मैं जिस क्षेत्र में कार्य करता हूँ, वह बहुत ही संवेदनशील है। कोई बड़ी गलती अब तक नहीं हुई है। लेकिन मेरे क्षेत्र की संवेदनशीलता या विरोधकों की धूर्तता, चालाकी के कारण वैसा होने की संभावना को भी नकारा नहीं जा सकता है। एक उदाहरण देता हूँ, ‘‘शनि शिंगणापुर में घरों को दरवाजे नहीं है। फिर भी वहाँ चोरियाँ नहीं होती हैं, यह एक चमत्कार ही है न? चमत्कार न माननेवाली आपकी समिति की इस संदर्भ में क्या राय है?’’ ऐसा प्रश्न मुझे एक संवाददाता ने पूछा। मैंने उत्तर में कहा, ‘‘चोरी करने की जिम्मेदारी हमारी, सजा देने की जिम्मेदारी ईश्वर की। पुलिस और ग्रामस्थ इसमें हस्तक्षेप नहीं करेंगे, ऐसी परीक्षा हम ले सकते हैं।’’ यह व्यक्तीगत रूप से हँसी-मजाक में दिए गए उत्तर को उस संवाददाता ने मिर्च मसाला लगाकर शीर्षक देकर समाचारपत्र में छपवाया। समाचार का शीर्षक था-दाभोलकर ने कहा, ‘चलो शनिशिंगणापुर - चोरी करने के लिए’ ऐसा आंदोलन हम चलानेवाले हैं। इसके कारण नगर जिले का माहौल गर्म हो गया तथा इसकी दाहकता भी हमें सहन करनी पड़ी।

मेरी उम्र अब 62 साल है, लेकिन आज तक मुझे कभी थकान महसूस नहीं हुई। मैं कभी निराश हुआ, ऐसी स्थिति भी कभी नहीं आई। सफलता-असफलता, प्रेम-द्वेष मिलता ही है, वे मेरे और संगठन के हिस्से में भी आए। जिस प्रकार संपादक ने लिखा था, उस तरह से मैं कभी निराश नहीं हुआ। संक्षेप में, भ्रम और निराशा मुझे कभी नहीं मिली। मेरी यह धारणा है कि अपमान, गलतियाँ, थकान, भ्रम की स्थिति भी मेरे सामने कभी नहीं आई, बल्कि हर समय मुझे सम्मान ही मिला है।

थकान के समय किस व्यक्ति की याद आती है और जिसकी याद आते ही आगे बढ़ने के लिए पुनः ऊर्जा मिलती है? ऐसा प्रश्न संपादक ने पूछा है। यह पहले ही बताया है कि बात थकान की नहीं है, लेकिन खुद की सीमाएँ दिन-ब-दिन खुद को महसूस होती है। ऐसा लगता है कि निष्ठा के साथ कार्य करते हुए कोई भी व्यापक रास्ता दिखाई नहीं देता है, न ही किसीने दिखाया है। इसमें केवल महात्मा गांधी अपवाद हैं। गांधीजी ने मुझे काफी प्रेरित किया है। उनके बारे में मेरा उतना अध्ययन नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि गांधीजी के विचार और उनका कार्य मुझे हर समय राह दिखाता है। साथ ही यह भी महसूस होता है कि दिखने में अत्यंत सामान्य होनेवाला यह बूढ़ा समझने में कठिन है और उसके द्वारा बताई राह पर चलना तो बहुत ही कठिन है। आज तक के पूरे संचित को छोड़कर उस दिशा में जाने की हिम्मत मेरे जैसा व्यक्ति नहीं जुटा पाएगा। फिर भी इस मंजिल पर पीछे मूडकर देखो, ऐसा आग्रह है इसलिए यह लिख रहा हूँ। पता नहीं विषय को कितना न्याय दे पाया हूँ, यह तो पाठक ही तय करेंगे।

अंधविश्वास उन्मूलन का विचार महाराष्ट्र के लिए नया नहीं है। महाराष्ट्र के समाजसुधारकों का इस विचार के साथ समर्थन है। लेकिन आजादी के बाद महाराष्ट्र में इस विचार का जागरण रुक गया। ‘किर्लोस्कर’ जैसे मासिक ने 1935 से 1945 के दौरान एक ओर बाबागिरी जैसी घटनाओं के बारे में और दूसरी ओर देवधर्म जैसी कल्पनाओं से संबंधी एक प्रभावी मुहिम चलाई थी। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर हिंदू धर्म की हमेशा जाँच-पड़ताल करते रहते थे। संत गाडगे बाबा जनसमुदाय के साथ विचार परिवर्तन का जो संवाद करते थे, उसमें अंधविश्वास भी एक महत्त्वपूर्ण विषय होता था। इस तरह के कार्य 1956 के दौरान रुक गए। दूसरी ओर आजादी के बाद देश में दी जाने वाली शिक्षा, विज्ञान का प्रसार और आधुनिकता के द्वारा अंधविश्वास उन्मूलन अपने आप हो जाएगा, ऐसा जनमानस को लगता होगा। इसके विरोधी विचार धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। 70 से 80 के दशक में मराठी के ‘श्री’ साप्ताहिक की खपत लाखों तक पहुँची। उसमें भूत की सच्ची तस्वीरें (!) रोज सोना देनेवाला चिंतामणी ऐसे कई किस्से मिर्च-मसाला लगाकर छपवाये जाते थे तथा वे चर्चा का विषय भी बनते थे।


हेही वाचा : 'माणूस'मधील डॉ. नरेंद्र दाभोलकर यांच्या 50 वर्षांपूर्वीच्या 'क्रीडांगण' या सदराची पुनर्भेट 


इस माहौल में केरल के विख्यात बुद्धिवादी बी. प्रेमानंद महाराष्ट्र के दौरे पर थे। उन्होंने जिव्हा से त्रिशूल आरपार निकाला। मंत्र फूंककर आग लगाना, घड़े में भूत को बंद करना, खाली हाथ से सोने की चैन निकालना ऐसे कई चमत्कार दिखाए। जनमानस में चमत्कार के प्रति आकर्षण आज भी है। यहाँ एक बात पर ध्यान देना होगा कि चमत्कारों को दिखाने का मतलब जादू दिखाना नहीं है। जादूगर कुछ सामग्री लेकर आता है और जादू दिखाता है। कोई बाबा ऐसा नहीं करता है। वह अपने भाविकों के घर आता है कुमकुम लेकर उसका अबीर बनाता है और हल्दी से कुमकुम बनाता है। जादूगर कला का आविष्कार करता है। बाबा लोग दैवी शक्ति का साक्षात्कार कराते हैं। चमत्कारों का आकर्षण यह बात संगठन को अनुकूलता प्रदान करती है। फिर भी अंधविश्वास का संबंध केवल चमत्कार तक न रखने की जिम्मेदारी हमने पहले से ली है। चमत्कार दिखाना यह समिति के केंद्र में था और आज भी है, लेकिन अंधविश्वास के सारे प्रकार समिति ने अपने अभ्यास विषय और कार्य विषय बनाए। कोई वस्तु अपनी जगह से हिलना, कपडे को अपने आप आग लगना या अचानक कपड़े फटना, शरीर पर भिलावे के चिह्न बनना – इस तरह के भानमती के प्रकार कैसे घटित होते हैं? इसका वैज्ञानिक स्पष्टीकरण समिति ने दिया है। स्त्री के शरीर में देवी का संचार कैसे होता है? किसी को भूतबाधा होने का अर्थ क्या होता है? इसका मानसशास्त्रीय विवेचन किया है। फलजोतिष विज्ञान की कसौटी पर शास्त्र के रूप में कैसे टिक नहीं सकता, इसको भी प्रमाणित किया है। बाबागिरी के विभिन्न प्रकार और उनके पीछे होनेवाली समाजशास्त्रीय चिकित्सा को भी स्पष्ट किया है। इन प्रकारों के प्रति जो लोगों में जिज्ञासा होती है, इसके कारण यह आंदोलन जनमानस तक पहुँच सका। परंतु समिति का वैचारिक कार्य जानबूझकर उससे भी आगे ले गए। जनमानस में श्रद्धा और अंधविश्वास का विवेचन हर समय करने की जोखिम समिति ने उठाई है। किसी एक की श्रद्धा दूसरे को अंधविश्वास लगती है। तथा तीसरे को जो बात अंधविश्वास लगती है वह चौथे व्यक्ति को श्रद्धा प्रतीत होती है। इसके संदर्भ में चर्चा शुरू रखना इतना आसान नहीं होता है। समिति के कार्य में यह संभव हो पाया है। श्रद्धा का संबंध अधिकांशत: धर्मश्रद्धा के साथ होता है। अतः ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ ही धर्मश्रद्धा उन्मूलन है और वह ईश्वर-धर्म विरोधी है ऐसा बताया जाता है। अगर ईश्वर-धर्म की चिकित्सा हुई तो धर्म के आधार पर होनेवाली नैतिकता खत्म हो जाएगी और नैतिकता के बिना समाज विकसित नहीं हो सकता। अतः ‘अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य नीति निर्मूलन का कार्य है, इसलिए उससे सावधान रहिए! यह प्रचार हमारे विरोध में हमेशा से किया गया है। लेकिन हमने ऐसी स्थिति में भी मजबूती से काम किया।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण को संविधान में लोगों का कर्तव्य माना है। तथा शिक्षा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण का मतलब क्या है? इस संबंध में जनमानस में नहीं, बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी स्पष्टता दिखाई नहीं देती। इसलिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रसार जनमानस को समझ में आए ऐसी भाषा में करना ही समिति के कार्य की विशेषता है। अंनिस ने अगर अंधविश्वास के प्रकार, उसके पीछे होनेवाली मानसिकता, श्रद्धा-अंधविश्वास, ईश्वर-धर्म-नीति की चिकित्सा तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण का प्रचार इतना ही कार्य किया तो उतना ही कार्य पर्याप्त था। लेकिन इस कार्य का सुसंगत विचार आगे विवेकवाद, धर्मनिरपेक्षता, जाति उन्मूलन, सामाजिक न्याय की ओर जाता है।  यह कार्य कुछ हद तक हो गया है। संक्षेप में, चमत्कारों के आकर्षण से शुरू हुई यह चर्चा व्यापक समाज परिवर्तन के आयाम तक पहुँच चुकी है। मेरी जानकारी के अनुसार इस प्रकार का कार्य करनेवाले भारत के किसी भी संगठन का ऐसा विकास नहीं हुआ है।

कार्य की सही सामर्थ्य वैचारिक प्रस्तुति में नहीं बल्कि समिति ने जो कई उपक्रमशील कार्यक्रम और आंदोलन किए हैं, उसमें है। आगे जिन उपक्रमों का जिक्र किया गया है वे सब पूरे संगठन ने मिलकर किए हैं, लेकिन उसमें मैंने हमेशा जागरूकता के साथ हिस्सा लिया है। भानमती के प्रकार लोगों में गूढ़, जिज्ञासा और भय निर्माण करते हैं। इनकी खोज कैसे की जाए? इन पर रोक कैसे लगाएँ? इसके लिए समिति ने एक पद्धति तैयार की है। आज तक समिति ने 250 से ज्यादा भानमती के प्रकार सफलता से बंद किए हैं। समिति को किसी भी आंदोलन में असफलता नहीं मिली है। समिति ने बाबागिरी के ख़िलाफ कई बार संघर्ष किया है। अपने जान की बाजी लगाकर बाबागिरी के प्रकार बंद किए हैं। आदिवासी बहुल जिले में डायन प्रथा आज भी अस्तित्व में है। गाँव में घटित होनेवाली कोई भी दुखद घटना कथित डायन ने अपने प्रभाव से, दुष्ट वृत्ति से घटित की है, ऐसा पूरा गाँव अंधविश्वास के कारण मानता है। उस डायन स्त्री को गाँव से भागना पड़ता है और कभी-कभी आपने प्राण भी गंवाने पड़ते हैं। नंदुरबार जिले में तीन साल पहले इस प्रथा के विरोध में आंदोलन छेड़ा गया। उस समय आदिवासी इलाके के जनआंदोलन, स्वयंसेवी संस्था, प्रशासन इन सबका एकमत हुआ था कि आदिवासीयों का डायन प्रथा पर गहरा विश्वास है। इस संबंध में कार्य आरंभ करना मतलब उनका रोष मोल लेना होगा। फिर भी डायन प्रथा के विरोध में समिति ने संघर्ष शुरू किया, आज वह ऐसे मुकाम तक पहुँचा है कि अब महाराष्ट्र के अन्य दस आदिवासी जिलों में भी उसकी शुरुआत की जाएगी। शुरुआत में समिति ने चमत्कारों को साबित करने के लिए एक लाख रुपए देने की चुनौती दी थी। इसको बढ़ाकर 2 लाख, 5 लाख और 10 लाख तक बढ़ाया। पिछले साल मुझे अमरीका में दस लाख का पुरस्कार मिला। वह पूरी राशि मैंने चुनौती की राशि बढ़ाने के लिए समिति को दी। अब यह रकम 21 लाख रुपए हो गई है।

प्रत्यक्षतः लोगों के मन में संघर्ष जाग्रत हो इस हेतु कई मुहिमों को समिति ने चलाया है, जिसमें मैंने हर समय हिस्सा लिया है। ‘भूत की खोज, मन का बोध’ यह मुहिम कोंकण में चलायी गई। चार ग्रुप ने 167 कार्यक्रम किए, जिनके द्वारा हम तीन लाख लोगों तक पहुँचे। ‘चमत्कार करो - मेला रोको - 11 लाख रुपए कमाओ !’ ऐसा आवाहन करते हुए ‘चमत्कार सत्यशोध यात्रा’ पूरे महाराष्ट्र में दो बार पहुँची। गोवा, बेलगाँव और कोकण में सर्पयात्रा निकाली गई। सर्पदंश पर प्राथमिक उपचार किए जाते हैं इसके बारे में सिखाया गया तथा सर्प से संबंधित होनेवाले अंधविश्वास को दूर किया। मराठवाडा में भानमती के प्रकार अलग पाए जाते हैं। महिलाओं के शरीर में संचार होने के बाद वे जोर-जोर से चिल्लाती हैं, जमीन पर लोटपोट होती हैं। कुछ महिलाएँ कुत्ते जैसी भौंकने की आवाज निकालती हैं। ऐसा कई लोग मिलाकर करते हैं। इसके कारण गाँव में अंधविश्वास की जबरदस्त दहशत बनी रहती है। मई की कडी धूप में आठ गुटों के साथ हमने करीबन 250 कार्यक्रम पूरे मराठवाडा में आयोजित किए। मराठवाडा में भानमती के प्रकार आज भी बंद नहीं हुए हैं, लेकिन उसकी मात्रा कम हो गई है।

‘विज्ञान जाग्रति परियोजना’ अध्यापकों को अंधविश्वास उन्मूलन का विचार देनेवाला एक अलग ही उपक्रम है। शिविर के माध्यम से अध्यापकों को एक पाठ्यक्रम पढाया जाता है। उसके बाद अध्यापक वह पाठ्यक्रम छात्रों को पढाते हैं। छात्रों की परीक्षा ली जाती है। पिछले पंद्रह वर्षों में दस हजार से अधिक अध्यापकों ने इसका लाभ उठाया है। ढाई से तीन लाख छात्रों ने यह परीक्षा दी है। साथ ही ‘विज्ञान बोध वाहिनी’ इस नाम से समिति ने एक वाहन तैयार किया है। हर एक स्कूल में यह वाहन जाता है। उस दौरान मानों विज्ञान महोत्सव ही मनाया जाता है। आदिवासी आश्रम पाठशालाओं में और अन्य स्कूलों में भी यह उपक्रम सफल साबित हुआ है।

समिति ने अलग-अलग प्रश्नों पर महाराष्ट्र के विविध इलाकों में परिषदों का आयोजन किया है। लातूर में ‘वैज्ञानिक संवेदना कृति परिषद’ का आयोजन सफल रहा। सातारा में ‘अंध रूढियों के बंधन तोड़ो’ यह परिषद हुई। सोलापुर में परिषद लेकर महिलाओं का अंधविश्वास उन्मूलन का घोषणापत्र प्रसारित किया गया। बारामती में वैज्ञानिक अनुभूति और धर्मनिरपेक्षता को लेकर शिक्षा क्षेत्र की सनद तैयार की। विवेक जागरण परिषद के लिए महाराष्ट्र से एक लाख हस्ताक्षर इकठ्ठे किए गए। दो मांगों को लेकर हस्ताक्षर लिए गए थे। पहली – सरकार व्यसनवर्धक नीति को छोड़कर व्यसनविरोधी समग्र नीति का स्वीकार करें। तो दूसरी माँग थी कि विवाह के पूर्व एच.आय.वी. की जाँच करने की सख्ती करें। बाद में इन हस्ताक्षरों को मैंने और चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री सुशीलकुमार शिंदे जी के सामने पेश किए। (हमेशा की तरह उसका कुछ भी नहीं हुआ।) प्रबोधन के कार्यक्रम अधिक पैमाने पर आयोजित करनेवाला महाराष्ट्र अंनिस यह प्रायः  एकमात्र संगठन होगा। समिति की 180 शाखाएँ हैं। अंनिस के इस प्रबोधन के कार्यक्रम में थोड़ा मनोरंजन भी होता है, जिसके कारण उसकी अच्छी माँग भी होती है। इसके कारण हर शाखा अगर सालभर में 10-12 कार्यक्रम भी करेगी तो पूरे महाराष्ट्र में एक साल में करीबन 2000 कार्यक्रम होते हैं। 

अंनिस की वैचारिक बैठक में विषय की पकड़ और तर्कशुद्ध बहस की जरूरत होती है। इसके साथ ही प्रवाही वक्तृत्व और प्रामाणिक गर्मजोशी अगर लोगों तक पहुँच गई तो उसके अच्छे परिणाम सामने आते हैं। मुझे इसका लाभ मिला है। पिछले बीस सालों में मैंने हजारों व्याख्यान दिए हैं। सभी प्रभावी साबित हुए। कई जगहों पर भाषण खत्म होने के बाद प्रश्नोत्तरों का कार्यक्रम होता है, जो जिज्ञासापूर्ति के लिए नहीं बल्कि दाभोलकर को परास्त करने के लिए होता है। मैं ऐसे चंगुल में कभी नहीं फंसा हूँ। पूछा गया प्रश्न मेरे विषय से संबंधित नहीं है, जिसके कारण मुझे कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा है, ऐसा भी मेरे साथ कभी नहीं हुआ है। कई बार कई चैनल्स पर ली गई चर्चाओं में पूछे गए प्रश्न, सूत्रसंचालक द्वारा पूछे गए जटिल प्रश्नों के भी उत्तर मैंने स्पष्टता से दिए हैं। प्रबोधन का और एक अलग कार्यक्रम होता है, जिसमें डॉ. श्रीराम लागू और मेरे बीच विवेक जागरण का वाद-संवाद होता है। ईश्वर यह प्रमुख अंधविश्वास है, उसका जब तक विरोध नहीं करते हैं तब तक अंधविश्वास का उन्मूलन ही संभव नहीं है, ऐसी डॉ. लागू की ठोस भूमिका है। मैं खुद नास्तिक हूँ, लेकिन समिति का यह विचार है कि समिति के कार्य में हिस्सा लेने के लिए नास्तिक होने की शर्त नहीं है। समिति ईश्वर और धर्म के प्रति तटस्थ है। यह तटस्थता डॉ. लागू को पलायनवाद लगती है। मुझे लगता है कि यह भूमिका भारतीय घटना में जो धर्मनिरपेक्षता है उसके आशय से संगत है। इस विषय पर मेरे और डॉ. लागू जी के 100 से ज्यादा संवाद पूरे महाराष्ट्र में हुए हैं। वे बहुत चर्चित हुए। वे विचार-प्रबोधन को आगे ले जाने के लिए भी उपयुक्त साबित हुए।

महाराष्ट्र सरकार ने जादूटोना विरोधी कानून विधानसभा में मंजूर किया; लेकिन आज तक वह स्वीकृत नहीं हुआ है। इस कानून के विरोध में मैं महाराष्ट्र में हर जगह बोलता आया  हूँ। यह कानून हिंदू धर्म विरोधी है, ऐसा झूठा प्रचार इस कानून के ख़िलाफ किया गया। अतः इस विषय पर मेरा भाषण विस्फोटक होगा इसलिए उसे इजाजत न दी जाए, ऐसे कई निवेदन जहाँ मेरा व्याख्यान था वहाँ पर पुलिस को दिए गए। पुलिस संरक्षण में तथा गडबड़ी होने की संभावना में भी पूरी सभा अच्छी तरह से संपन्न हुई। ईश्वर के नाम पर होनेवाली पशु हत्या रोक दी जाए, इसके लिए महाराष्ट्र अंनिस ने करीबन 150 से अधिक जगहों पर यशस्वी सत्याग्रह किए। शनि शिंगणापुर (तहसील नेवासा, जिला नगर) में शनिदेव के चबूतरे पर आज भी महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता। इसके विरोध में मैंने पंढरपुर से नगर तक यात्रा निकालकर, सत्याग्रह किया और साथियों के साथ जेल गया। महाराष्ट्र में करीबन एक करोड़ परिवार में हर साल गणेशमूर्ति की प्रतिष्ठापना होती है। हर मूर्ति साधारणतः दो किलो की होती है। इनमें से अधिकांश मूर्तियाँ प्लैस्टर ऑफ पैरीस से बनाई जाती हैं और जहरीले रासायनिक रंगों से रंगी होती हैं। अतः हर साल करीबन दो करोड़ किलोग्रॅम प्लैस्टर ऑफ पैरीस पानी के स्त्रोत में फेंका जाता है। पानी से वह कडा बनता है, पानी में कीचड़ की मात्रा बढ़ जाती है। पानी के स्त्रोत बंद हो जाते हैं। रासायनिक रंग पानी को जहरीला बनाता है। इसको रोकने के लिए विसर्जित गणपति मूर्ति दान करो, ऐसी मुहिम समिति द्वारा चलाई गई। उत्तर पूजा के बाद विसर्जन के लिए आई हुई गणपति की मूर्तियाँ दान के रूप में समिति स्वीकारती है और बाद में इन मूर्तियों को दान किया जाता है। शुरू में इस मुहिम के लिए अच्छा प्रतिसाद मिला। महाराष्ट्र में विभिन्न जगहों पर करीबन 30 से 40 हजार गणेश मूर्तियाँ जमा होती थीं।

लेकिन पिछले दो सालों से हिंदू जनजागरण समिति ने इसका जोरदार विरोध शुरू किया। पानी का प्रदूषण हुआ तो भी चलेगा, लेकिन धार्मिक संकेतों के अनुसार मूर्तियाँ नदी के पानी में ही विसर्जित होनी चाहिए, ऐसी भूमिका उन्होंने ली। विसर्जन के स्थान पर तनाव और सुरक्षा की समस्या निर्माण होने लगी। परंतु तब तक प्रशासन और प्रदूषण नियंत्रक मंडल के द्वारा इस निर्णय को अनुकूलता मिली और इस समस्या को हल करने की दृष्टि से एक कदम आगे बढ़ाया गया। इस दौरान किसी-न-किसी कारण से कोर्ट-कचहरी हो आना अपरिहार्य हो गया था। निर्मला-माता के सहज योग के कार्यक्रम के सामने प्रदर्शन करते समय उनके भक्तों ने हमें खूब पीटा। उसके बाद हम पर ही फौजदारी मुकदमा दर्ज किया गया। उसके बाद मैंने उसके बारे में एक लेख लिखा जो मेरी ही पुस्तक में प्रकाशित हुआ। अतः मुझ पर दिल्ली कोर्ट में मानहानि का आरोपपत्र दाखिल किया गया। मुकदमा दर्ज करनेवाले भूतपूर्व आयकर आयुक्त थे। सनातन भारतीय संस्था में अपनी युवा डॉक्टर लड़की जाने की शिकायत समिति के पास आयी। उस व्यक्ति को साथ लेकर मैंने प्रेस कॉन्फरन्स ली। यह खबर लोकसत्ता, महाराष्ट्र टाइम्स, बेलगाँव तरूण भारत आदि समाचारपत्रों में छपी। समिति की मासिक पत्रिका में भी यह खबर छपी। संबंधित समाचार पत्रों पर आरोपपत्र दर्ज न करते हुए मुझ पर ही चार दिवानी और तीन फौजदारी आरोपपत्र दर्ज किए गए। तीन मुकदमों से मुझे बाइज्जत बरी कर दिया गया। बाकी के मुकदमे आज भी शुरू हैं। उनमें से एक मुकदमा एक करोड़ रूपयों की मानहानि का दावा करने वाला है।

मैं जनता हूँ कि समिति के कार्य का लेखा-जोखा बताने की यह जगह नहीं। फिर भी पीछे मूडकर देखते हुए इतना कुछ हो गया, इसकी खुशी और गर्व है। कार्य की शुरुआत 1985 में हुई। उस समय संगठन उतना मजबूत नहीं था। महाराष्ट्र में विभिन्न जगहों पर समझ के साथ काम करने वाले विभिन्न गुटों का मुक्त संगठन इस रूप में इसकी पहचान थी। तीन-चार वर्षों में इसका कार्य अवरुद्ध हो गया। मैं 1971 से परिवर्तन आंदोलन में सक्रिय था। सामाजिक न्याय, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार और राजनीति जैसी जैसे मोर्चों पर लड़ता रहा। कुछ कारणवश 1985 में इस कार्य में सक्रिय हो गया। मिलजुलकर काम करने से पहले ही मतभेदों के कारण तितर-बितर होने की स्थिति आ गई। मुझे यह कार्य उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगता था, इस कारण से संगठन में मतभेद होते हैं, यह बात समझ में आते ही मैंने रूकने का निर्णय लिया। यदि ऐसा होता तो कार्य का क्या होता, पता नहीं, परंतु मैं उस कार्य में न होता, यह सच है। पुणे के साथियों ने मुझे कहा कि ‘‘हमें कार्य करने की इच्छा है, आपके पास समय एवं वक्तृत्व है, अतः हमारे लिए आप कार्यरत रहें।’’ यह तय हुआ कि दो वर्षों तक मैं  समन्वयक के रूप में काम करूँगा और यदि यह कार्य सफल रहा तो ही इसको आगे निरंतर किया जाएगा। वह 1989 साल था। दो साल बाद 1991 में संगठन बनवाने का निर्णय हुआ। उस समय संगठन की 15-20 शाखाएँ थी। पहला कार्यकारी मंडल चुना गया। मुझे कार्याध्यक्ष बनाया गया। मजे की बात यह है कि मुझे कार्य करने के लिए जिन पुणे के साथियों ने आग्रह किया था उन सभी ने कार्य करना छोड़ दिया लेकिन मैं निरंतर कार्य करता रहा। संगठन का यह इतिहास केवल 17-18 वर्षों का है।

आज महाराष्ट्र के हर एक जिले में संगठन पहुँचा है। 180 शाखाएँ हैं। काफी संख्या में सक्रिय कार्यकर्ता हैं। अभी-अभी मुझे एक बुजूर्ग सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि, ‘‘लगता है आपका अच्छा चल रहा है।’’ मैंने पूछा, ‘‘मतलब?’ उन्होंने कहा, ‘‘आपका संगठन पूरे महाराष्ट्र में फैला हुआ है, लेकिन संगठन में कहीं भी मतभेद दिखाई नहीं देते। आपको कभी आर्थिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा है। जनसंचार माध्यम भी हमेशा आपके साथ होते हैं।’’ उनके इस कथन से मैं अंदर ही अंदर खुश तथा अंतर्मुख भी हुआ। संगठन में झगडे, एक-दूसरे से अनबन तथा एक-दूसरे पर हावी होने की बातें कम होती हैं। पिछले कई सालों में कुछ अपवाद छोड़कर मैंने बहुत कम समय इसके लिए दिया है। ऐसे माहौल में काम करते समय जो आश्वासकता होती है वह हमेशा मुझे मिली है। कार्यकर्ताओं का प्यार और विश्वास भी बहुत मिला है, इसके कारण किसी को मेरे प्रति जलन भी हो सकती है। संगठन की स्थापना जब हुई तब से मैं कार्याध्यक्ष हूँ। पिछले 3 सालों से मैं यह कार्याध्यक्ष पद छोडने का निर्णय जाहिर करता आया हूँ। हो सकता है कि मेरे जैसी प्रतिष्ठा अन्य किसी को नहीं मिल सकेगी। इसलिए हमने संगठन के पाँच वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की कार्यकारी समिति बनाई है। संगठन के सारे निर्णय यह समिति निश्चित करती है। यह तय हो गया है कि जैसे ही जादूटोणा विरोधी कानून मंजूर हो जाएगा, वैसे ही मैं मेरे पद से मुक्त हो जाऊँगा। इस बात को अब डेढ़ साल हो गया है। कानून बनने में इतनी देर हो जाएगी ऐसा नहीं लगता था लेकिन देर हो गई। इस कारण मेरे कार्याध्यक्षपद की अवधि भी बढ़ती गई। अर्थात पद के बिना भी मैं हमेशा कार्यरत रहूँगा ही। कार्य का प्रबंधन, गुस्सा न करना, अच्छी सेहत, दृढ़ता,  यात्रा करना और हमेशा कार्य करने की प्रबल इच्छा और क्षमता आदि बातें मुझे एक वरदान के रूप में प्राप्त हुई हैं। हो सकता है कि कभी स्थितियाँ बदलेगी लेकिन मैं हमेशा सतर्क रहने का प्रयास करता हूँ। इतना बड़ा आंदोलन चलाने के लिए आर्थिक रसद भी लगती है। करीबन 18 वर्षों में कभी-भी आंदोलन आर्थिक संकट से नहीं गुजरा है, यह एक आश्चर्य ही है। संगठन की विशेष कार्यपद्धति की इसमें बहुत बड़ी भूमिका है।

महाराष्ट्र फाउंडेशन की ओर से संगठन को सर्वोत्तम सामाजिक कार्य पुरस्कार 10 साल पहले प्राप्त हुआ था। उस समय भी संगठन का कार्यालय नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन इस कारण से कार्य कभी नहीं रुका। संगठन की सभी शाखाएँ अपना खर्चा स्वयं उठाती हैं। हम उन्हें मध्यवर्ती शाखा से किसी भी प्रकार की आर्थिक मदद नहीं देते हैं। वे भी हमसे मदद की अपेक्षा नहीं रखती हैं। संगठन की शाखाओं ने कार्यक्रम किए तो कुछ मानदेय भी मिल सकता है। स्वयं अध्ययन परीक्षा के उपक्रम द्वारा भी कुछ निधि प्राप्त होता है। कार्यकर्ताओं ने संगठन को जो भी छोटी-मोटी मदद की है तथा संगठन के मासिक के वार्षिक अंक के लिए जो भी विभिन्न शाखाओं से विज्ञापन प्राप्त होते हैं, उनमें से 10 प्रतिशत राशि से शाखा अपनी जरूरत पूरा करती है। संगठन जो मध्यवर्ती उपक्रम चलाता है उसके लिए तथा यात्रा के लिए लगने वाला खर्च दीपावली अंक के विज्ञापन या जो भी चंदे के रूप में निधि इकट्ठा हुआ है उसमें से किया जाता है। पिछले 18 साल में कभी-भी पैसे के बिना कोई भी कार्य नहीं रूका है। ‘अच्छे के लिए कभी-भी पैसे की समस्या नहीं आती है।’ गांधीजी के इस वचन पर मेरा पूरा विश्वास है। मैंने ठान लिया है कि कभी पैसों की समस्या आई, तो पैसे प्राप्त करने के लिए आपाधापी करने के बजाय कार्य की गुणवत्ता बढ़ाने का प्रयास करना है। यह बात मैं अपने साथियों को भी बताता आया हूँ।

यह सच है कि संगठन हमेशा चर्चा में रहता है। इसलिए शोहरत के लालच का आरोप संगठन पर होता है। मेरा यह मत है कि मुझे और संगठन को जो शोहरत सभी माध्यमों ने दी है, वह पर्याप्त है और वह दीर्घकाल मिली है। किसी संगठन को ऐसी अनुकूलता हमेशा ही नहीं मिलती है। इसलिए मैं हमेशा अपने साथियों को कहता रहता हूँ कि ‘इसके बाद शोहरत से दूर रहने की मानसिक तैयारी रखिए।’ मुझे लगता है कि शोहरत तीन कारणों से मिलती है। पहला कारण यह है कि अंधविश्वास उन्मूलन के कई कार्य मौलिक होते हैं। जो कार्यकर्ता वास्तविक स्थिति का मुकाबला करता है, उस कार्यकर्ता पर माध्यमों की नजर पड़ती ही है। दूसरा कारण यह है कि समिति के कार्यकर्ता प्रामाणिक हैं, ऐसा महाराष्ट्र के अधिकांश जनसंचार माध्यमों की समान्य राय है। इसलिए समिति से संबंधित समाचार में दिखावा नहीं होता है। तीसरा कारण यह है कि मैंने खुद और मेरे साथियों ने जनसंचार माध्यमों के साथ अच्छे संबंध बनाए हैं। निश्चित समय पर समाचार या लेख जनसंचार माध्यमों तक पहुँचाने के लिए सावधानी बरती जाती है। व्यापक अर्थ में कहा जाए तो अंधविश्वास उन्मूलन से संबंधित कोई भी घटना हुई तो उससे संबंधित लेख मैं किसी-न-किसी प्रमुख समाचापत्र के लिए लिखता हूँ और उसे प्रकाशित भी किया जाता है।


हेही ऐका : सुशिक्षितांच्या अंधश्रद्धा  (पुणे विद्यापीठातील मराठी विभागात 2010 मध्ये केलेले भाषण)


समिति की और मेरी व्यक्तिगत रूप से कसौटी लगी वह एक अलग क्षेत्र है। महाराष्ट्र में वर्तमान सामाजिक वास्तविकता की जिन्हें थोड़ी बहुत समझ हैं उनको यह बात पता है। जब भी कोई संगठन खड़ा होता है, वह किसी जाति का है और उसका नेतृत्व किस जाति का व्यक्ति कर रहा है, इसकी चर्चा महाराष्ट्र में होती ही है। समिति का संघटनात्मक कार्य और आंदोलन का जैसे-जैसे नाम होने लगा वैसे-वैसे यह चर्चा जोर पकड़ने लगी। अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति और डॉ. दाभोलकर धर्म को डूबो रहे हैं। उन्हें हद्दपार करो, ऐसी माँग  हिंदुत्त्ववादी संगठन करते रहे हैं, इसमें आश्चर्य नहीं है। लेकिन दूसरी ओर खुद को प्रगतशील कहलानेवाले या धर्म-निरपेक्ष समझने वाले संगठन तथा उनके प्रमुख नेता-गण, उनके विचारों को माननेवाले साप्ताहिक इन सब ने ‘दाभोलकर ब्राह्मण हैं, इसलिए उनके नेतृत्व में अंधविश्वास उन्मूलन संभव नहीं है। बहुजनों को फंसाने का यह ब्राह्मणी षडयंत्र है।’ ऐसा प्रचार पूरे महाराष्ट्र में किया। जाति की मानसिकता यह एक अजीब बात है। उस मानसिकता का तर्कशास्त्र गलत होता है। फिर भी उसे सही बताया जाता है। ऐसे जहरीले प्रचार के कारण संगठन का बड़ा नुकसान हो सकता था, लेकिन नहीं हो पाया। इसी कारण से अब यह प्रचार भी काफी कम हुआ है। यह इसलिए हुआ क्योंकि मेरी जाति को शोषण का जो गुणविशेष चिपका हुआ है, वह मुझे लागू नहीं है ऐसा नहीं है, बल्कि उसका सही कारण यह है कि अंधविश्वास उन्मूलन की सारी शाखाओं में विभिन्न जातियों के कई बहुजन भरे हुए हैं, इसलिए संगठन को जाति का लेबल चिपकाना असंभव कार्य है। जब संगठन के हर स्तर पर पदाधिकारियों को चुना जाता है तब जाति की बात ही नहीं आती है, इसलिए 35 जिलों का प्रतिनिधित्व करनेवाली कार्यकारिणी अपने आप ही बहुजातीय बनी है। इसका अर्थ यह है कि शाखा स्तर से राज्य स्तर तक के पदाधिकारी चुनते समय जाति का विचार कभी नहीं किया गया है। मात्र जिन सदस्यों से वे चुने गए, उनमें ही इतनी विविध जाति के लोग हैं इसलिए चुनाव कैसा भी हो फिर भी वह बहुजनवादी ही होगा।

संगठन का विस्तार होना तथा उसमें झगड़े न होना, जनसंचार माध्यमों का हमेशा समर्थन मिलना, लोगों से आवश्यक निधि उपलब्ध होना, और जातिभेद से संगठन दूर रहना आदि बाते कैसे संभव हो पायी? इसका उत्तर मेरे पास नहीं हैं। लेकिन इसको लेकर जो संभावनाएं मुझे लगती हैं वे इस प्रकार है – सबसे पहले संगठन में लोकतंत्र का पालन किया जाता है। दूसरा कारण यह है कि कारोबार जानबूझकर विकेंद्रित किया गया है। कार्यकर्ता को स्वायत्तता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जो भी कार्यकर्ता संगठन में शामिल होने के लिए आते हैं वे स्वयं की आंतरिक प्रेरणा से आते हैं। आसपास के अंधविश्वास के कारण उनका दम घुटता है, लेकिन प्रतिवाद करने के लिए उन्हें दिशा नहीं मिलती है। समिति के रूप में उन्हें एक संगठित और मजबूत दिशा मिलती है। इसलिए संगठन को संभालना, उसको मजबूत बनाना और उसका विकास करना उनकी आंतरिक ज़रूरत होती है। इससे ही वह संगठन को झगडे, जाति-विचार, आर्थिक दुरवस्था से दूर रखने की कोशिश करता है।  संगठन की स्थापना जब से हुई है तब से मैं संगठन का कार्याध्यक्ष हूँ। मेरा नाम संगठन के सिक्के की दूसरी बाजू के रूप में जुड़ा हुआ है। परंतु संगठन को उपर्युक्त स्वरूप देने के लिए मैंने कोई विशेष प्रयास नहीं किए हैं। इसलिए यह सब कहाँ से आता है और कैसे होता है, इसके बारे में मुझे भी जिज्ञासा है। इस कार्य के लिए कई लोगों का सहकार्य मिला वह एक महत्त्वपूर्ण निधि है। उसे खुला करना उचित नहीं है। मुकदमा लड़ने के लिए वकील ने फ़ीस नहीं ली। आंदोलन के कई कार्यक्रमों में  डॉ. श्रीराम लागू, निलू फुले जैसे बुजूर्ग ‘मजदूर’ जैसा काम करते रहें। (‘बेठबिगार’ यह उन्होंने प्रेमभरी शिकायत के रूप में उच्चारित किया शब्द है।) मेरी पत्नी, भाई-बहन, बच्चों ने मुझे बहुत बड़ा सहयोग दिया, जिसके कारण मैंने अपने आप को कभी अकेला महसूस नहीं किया।

अब मेरे मार्गक्रमण संबंधी कुछ बातें। मेरी भूमिका ऐसी रहती है कि मैं कभी किसी टीका-टिप्पणी को उत्तर नहीं देता। आरोप-प्रत्यारोप के झंझट में नहीं पड़ता। मैं विरोधियों की टीका-टिप्पणी को आवश्यक उतना ही उत्तर देता हूँ और बात वहीं पर खत्म करता हूँ। कई बार मानहानि का दावा करने वाले आरोप होते हैं, लेकिन मैं वैसा नहीं करता। कोई आंदोलन कोर्ट-कचहरी तक न जाए, ऐसा मेरा मत है। समविचारी माने जानेवाले मित्र या संगठन भी जो टीका करते हैं, उन पर मैं चुप्पी साध लेता हूँ। यह मेरा आचरण गलत है या सही है मुझे पता नहीं है। लेकिन यह सही बात है कि प्रतिवाद न करने के कारण मेरा कभी कोई नुकसान भी नहीं हुआ है। मुझे ऐसे लगता है कि प्रदीर्घ सफर के बाद लोकमानस में आपके लिए एक मान्यता बनती है,  भडकीले आरोपों के कारण उसे कभी नुकसान नहीं पहुँचता। अंनिस और ‘साधना’ साप्ताहिक के कार्य के आलावा मैं दूसरा कोई कार्य नहीं करता। मैं कई वर्षों से कबड्डी के मैदान पर नहीं गया। सिनेमा, नाटक भी नहीं देखा और कभी पर्यटन भी नहीं किया।  मैं टीवी भी नहीं देखता। परिवार में होकर भी न के बराबर रहता हूँ। पढ़ता हूँ, वह भी आवश्यकता के अनुसार। मेरे कारण आसपास के लोगों को परेशानी होती होगी। लेकिन इसे कोई इलाज नहीं है। प्रमुख बात यह है कि मुझे इसमें मजा आता है। इसके कारण आलस्य और थकान महसूस नहीं होती है। मनुष्य विचार बदलता रहता है और कार्यकर्ता मेरे जैसे ही खुद को भूलकर कार्य करते रहते हैं। यह हमेशा आनंद देनेवाली, उत्साहित करने वाली बात है। अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य क्यों करना है इसके बारे में मैं हमेशा मेरे साथियों को बताता रहता हूँ , ‘‘समाज का हम पर कर्ज है, इसलिए समाज के प्रति यह हमारा दायित्व है, ऐसा समझकर कृपा करके बिलकुल कार्य मत कीजिए। अपने सर पर बोझ मत लीजिए। काम करते समय आनंद मिलना चाहिए, अगर ऐसा है तो ही कार्य करते रहो।’’

आंदोलन के मार्गक्रमण में धर्मनिरपेक्षता के आशय से संबंधित एक नई बात हमने उपस्थित की है। आजतक के धर्मनिरपेक्षता के प्रगतिवादीविश्लेषण से वह भिन्न है। सरकार द्वारा धर्मनिरपेक्षता को अंमल में लाया जाए, ऐसा एक मतप्रवाह है। अस्थिर अर्थकारण में धर्मनिरपेक्ष राजनीति असंभव होती है, इसलिए सबसे पहले अस्थिर अर्थकारण पर उपाययोजना करें तथा उस लड़ाई में हिस्सा लेनेवाले श्रमिकों को धर्मनिरपेक्षता बताई जाए, ऐसा यह दूसरा मतप्रवाह है। वर्तमान में मेरी यह राय है कि, इस देश के धर्मनिरपेक्षता की गर्भनाल महात्मा फुले, विठ्ठल रामजी शिंदे, महात्मा गांधी तथा डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के कार्य के साथ जोड़नी होगी। इन समाजसुधारकों ने समाजविमुख धर्म समाजोन्मुख किया और ईश्वरकेंद्रित धर्म मानवकेंद्रित किया। मुझे लगता है कि उस मार्ग से भारत देश में होनेवाली धर्मनिरपेक्षता अधिक आशयपूर्ण बनेगी। लेकिन आज वह प्रचार स्तर पर है।

अंधविश्वास उन्मूलन यह मामूली काम नहीं है। व्यापक परिवर्तन को आंदोलन के साथ जोड़ने की आवश्यकता है। लेकिन जो व्यापक आंदोलन चलाते हैं, वे और उनके कार्य तथा अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का कार्य इन्हें जोडनेवाली कड़ी आज भी आस्तित्त्व में नहीं है। अंधविश्वास उन्मूलन का कार्य ही केवल अपना कार्य है, ऐसी उलझन में कार्यकर्त न पड़े, यह आवश्यकता मुझे महसूस होती है। यह सावधानी हम बरतते हैं; लेकिन उसे अधिक अर्थपूर्ण करने की ज़रूरत है। 

अंधविश्वास उन्मूलन के कार्य में कार्यकर्ताओं पर हर समय दूरबीन लगाई होती है। दूरबीन इस तरह से रहती है कि आपका आचरण कैसा है? कथनी और करनी में अंतर न हो, यह सही है, लेकिन ‘जैसा बोलते हैं वैसा करते हैं’ इस उक्ति पर चलने वाले लोग भी समाज में कम ही होते हैं। एक आंदोलन के रूप में हमारा संगठन और एक व्यक्ति के रूप में मैं खुद इस दिशा में चलने का ईमानदारी से प्रयास करता हूँ, ऐसा मुझे लगता है। हमारी असली ताकद संगठन के चरित्र में ही छुपी है। समिति कार्यकर्ता जैसा बोलते हैं वैसा ही आचरण करने का प्रयास करते हैं, ऐसी समिति के कर्याकर्ताओं से संबंधित लोकधारणा है। यह सच है कि यह बात कार्यकर्ताओं को तथा मुझे पूर्णतः संभव नहीं होती। लेकिन हमारा आचारण विचारों के अनुसार होना चाहिए, ऐसा हमारा प्रयास होता है। हमारे ‘कथनी और करनी’ में अंतर तो नहीं है? इस पर लोगों की हर समय नजर रहती है। अंनिस के बारे में यह अधिक होता है। इसलिए अंनिस में सहभागी होने के लिए कई लोगों का मन तैयार नहीं होता है। उन्हें स्वयं समिति के विचार जंचते हैं, लेकिन उन पर अमल करने तथा उन विचारों को अपने नजदीकी रिश्तेदारों को भी समझाने में वे असफल रहते हैं। फिर संबंधित बातों में दूसरी बाजू की भावनाएं तीव्र होती हैं। मन्नत को दोनों ने मिलकर पूरा करना होता है और पूजा भी एकसाथ करनी होती है। ऐसे समय पूजा को नकारने से पूरे परिवार का स्वास्थ्य धोखे में आता है। इस बारे में जो तत्त्वविचार और व्यवहार है वह ‘सुधारक’कार गोपाल गणेश आगरकर के दो वाक्यों से स्पष्ट होता है। पहला वाक्य है, ‘केवल ज्ञान बढ़ना उपयोगी नहीं, उसके अनुसार आचरण करने का धैर्य आना चाहिए।’ दूसरा वाक्य है, ‘इष्ट बताऊंगा और जो संभव है वह करूँगा’ मुझे परिवर्तन की यह कड़ी इस प्रकार दिखाई देती है। सबसे पहले विचार, बाद में उच्चार, उसके बाद प्रचार और फिर आचार। अगली सीढी पर संगठन अर्थात सामूहिक आचार और उसके बाद अंत में संघर्ष। जिस बात में बदलाव लाने की समिति को आवश्यकता लगती है, उन बातों के विरोध में संघर्ष होता है। विवेकवाद का विचार व्यक्ति के मन में बोना, यह आसान बात नहीं है। उस विवेक का उच्चारण निरंतर होता रहा तो भी एक कदम आगे बढ़ेगा और उच्चारण का रूपांतर धीरे-धीरे प्रचार मुहिम में हो जाता है। जिन बातों का प्रचार होता है, अगर उसका आचारण संबंधित व्यक्तियों द्वारा हुआ तो सोने पे सुहागा और ऐसा संगठन परिवर्तन के आंदोलन में उतरा तो दूध में शक्कर। लेकिन इन पड़ावों को पार करते समय व्यक्ति थक जाता है। यह स्वाभाविक भी है। इस राह पर मैं यथाशक्ति चल रहा हूँ। यह एक न खत्म होने होनेवाला सफर है, इस बात का मुझे एहसास है।

(शब्द दिवाली विशेषांक 2007 में मूलतः मराठी में प्रकाशित यह लेख ‘लढे अंधश्रद्धेचे’ इस पुस्तक के हिंदी अनुवाद ‘जंग अंधविश्वासों की’ से साभार)

अनुवाद : डॉ. धनंजय झालटे
अनुवाद संपादक : डॉ. गिरीश काशिद

- डॉ. नरेंद्र दाभोलकर


(डॉ. नरेंद्र दाभोलकर यांची सर्व पुस्तके हिंदीमध्ये अनुवादित करण्याचा प्रकल्प डॉ. सुनीलकुमार लवटे यांच्या संपादकीय नेतृत्वाखाली चार वर्षांपूर्वी हाती घेण्यात आला आहे. समन्वयक डॉ. चंदा सोनकर व अनुवाद संपादक डॉ. गिरीश काशिद यांनी त्यासाठी कार्य केले आहे. डॉ. नरेंद्र दाभोलकर यांच्या सर्व मराठी पुस्तकांचा अनुवाद पूर्ण झाला आहे. आतापर्यंत 12 अनुवादित पुस्तके प्रकाशित झाली असून, ती राजकमल प्रकाशन, दिल्ली यांनी प्रकाशित केली आहेत. ही सर्व पुस्तके amazon.in आणि rajkamalprakashan.com या वेबसाईटवरही विक्रीसाठी उपलब्ध आहेत. शिवाय, ही पुस्तके e book स्वरूपात kindle वर आहेत.)


मूळ मराठी लेख : एक न संपणारा प्रवास
English translation of this article : A Never-ending Journey


'एक न संपणारा प्रवास' या लेखाचा ऑडिओ : 

 

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