समाजसेवा के चार रंग

आत्मसंतोष के लिए कर्तव्य भावना से की जानेवाली सेवा... 

लोक बिरादरी प्रकल्प द्वारा दी गई सामग्री के साथ बालग्राम परिवार | फोटो सौजन्य : अमित कोहली


लॉकडाऊन और बाढ़ जैसी आपदाओं के कारण महाराष्ट्र के मराठवाडा इलाके में कार्यरत कई सेवाभावी संस्थाओं को काफी समस्याओं का सामना करना पडा. महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए काम करनेवाली बीड ज़िले की चार संस्थाओं को लोक बिरादरी प्रकल्प, हेमलकसा (गडचिरोली) की तरफ से मदद पहुंचाई गयी. लोक बिरादरी प्रकल्प में छोटे बच्चों और अध्यापकों के साथ बतौर स्वयंसेवक (वालंटियर) काम करनेवाले अमित कोहली इस सहायताकार्य में सहभागी हुए थे. उस दौरान इन संस्थाओं से जुड़े कुछ निष्ठावान कार्यकर्ताओंसे और समर्पित भाव से काम करनेवाले समाजसेवीयोंसे उन्होंने संवाद किया. सामाजिक संस्थाओं का आपस में भाईचारा होता है, एक-दूसरे के काम के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता भी होती है, इस बात की याद दिलानेवाला यह अनुभव उन्होंने  कर्तव्य साधना के पाठकों के लिए शब्दबद्ध किया है... 

सेवा करना शायद मनुष्य की जन्मजात प्रकृति है। हम दूसरे के लिए कुछ अच्छा करके, उनके चेहरे पर मुस्कान लाकर अपने दिल में सुकून महसूस करते हैं। शायद ही कोई इन्सान होगा जो अपने आसपास के लोगों को खुश न देखना चाहता हो। लेकिन अकसर हम खुद को दायरों में कैद कर लेते हैं और फिर तमाम ज़िन्दगी उन दायरों से बाहर नहीं निकल पाते। अपना परिवार, अपना खानदान, अपना गाँव या मोहल्ला, अपना इलाका…. ये सब वो दायरे हैं जिसमें हम बंधे रहते हैं। लेकिन, कुछ लोग होते हैं जो इन दायरों को बड़ा करते हैं, फैलाते हैं… इस हद तक कि उस दायरे में वो तमाम इन्सान भी शामिल हो जाते हैं, जिन्हें अन्यथा हम पराया मानते हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए अपना निजी कुछ नहीं रह जाता, जो होता है वो सबका हो जाता है और इन्हें हम समाज सेवी कहने लगते हैं। 

समाज सेवा की व्याख्या करते हुए डॉ. प्रकाश आमटे सही कहते हैं, कि यह दूसरों के भले के लिए, उपकार की भावना से नहीं बल्कि अपने आत्मसंतोष के लिए कर्तव्य भावना से की जानी चाहिए। क्योंकि यदि हम उपकार की भावना से किसी की सेवा करेंगे तो हममें अहंकार बढ़ेगा जबकि अगर हम कर्तव्य भावना से सेवा करेंगे तो हममे नम्रता आएगी। अनेक लोग ऐसे हैं जो व्यक्ति के रूप में समाज की सेवा करते हैं, कुछ लोग संस्था बनाकर समाज की भलाई के लिए काम करते हैं।

सामाजिक संस्थाओं का आपस में एक भाईचारा होता है, एक-दूसरे के काम के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता होती है, इसी प्रेरणा से लोक बिरादरी प्रकल्प, हेमलकसा ने कोविड-19 के समय में बीड ज़िले की चार संस्थाओं को कुछ सहायता सामग्री पहुँचाई। ये चार संस्थाएँ हैं - निर्धार सामाजिक सेवाभावी संस्था (माजलगाँव), बालग्राम (गेवराई), शान्तिवन (आर्वी, ता. शिरूर कासार) और  Infant India (बीड)। ये संस्थाएं महिलाओं, बच्चों आदि के साथ काम करते हैं। इनका सम्पर्क लोक बिरादरी प्रकल्प के साथ काफी लम्बे समय से है। कुछ जगहों पर बाढ की वजह से और सभी जगहों पर कोविड-19 और लम्बे लॉकडाउन की वजह से कई तरह समस्याएँ हो रही थीं। कुछ ज़रूरी सामान भी उन लोगों को नहीं मिल पा रहा था। इसलिए लोक बिरादरी प्रकल्प की ओर से उन्हें देने के लिए कम्बल, मच्छरदानी, वॉटर फिल्टर वगैरह सामान पहुँचाया गया।
 
ज़रूरत का सामान पहुँचाने के बहाने मुझे मराठवाडा की हालत का एक जायज़ा मिला, वहाँ के समाज, खेती, अर्थव्यवस्था वगैरह का थोड़ा सा परिचय मिला और सबसे महत्त्वपूर्ण यह कि इन चारों संस्थाओं में कुछ निष्ठावान और समर्पित व्यक्तियों से मुलाकात करने का मौका मिला। उनसे जो थोड़ी सी बातचीत हो सकी और उनके काम को जो थोड़ा-सा समझ सका, उसे यहाँ साझा कर रहा हूँ। 

पहला पडाव – निर्धार सामाजिक सेवाभावी संस्था

माजलगाँव में सत्यभामा सौन्दरमल नाम की महिला "निर्धार सामाजिक सेवाभावी संस्था” चलाती है। मूल रूप से वो उन महिलाओं के साथ काम करती है जो किसी ना किसी रूप में अपने पतियों से प्रताड़ित हैं। ज़्यादातर शिकायतें शराब पीकर पीटने की मिलती है। इसलिए वो शराबबंदी पर भी काम कर रही हैं। महिलाओं को कानूनी सहायता और मानसिक-भावनात्मक सहयोग देने के साथ-साथ वो उनके आर्थिक स्वावलम्बन के लिए भी कोशिशें करती हैं।

उनके कार्यक्षेत्र में दूसरी समस्या गन्ना मज़दूरों की है। यूँ तो मराठवाडा में बड़े इलाके में गन्ने की पैदावार होती है और कई सारी चीनी मिलें भी हैं। लेकिन बीड ज़िले में इस तरह की प्रगति नहीं हुई है। इसलिए गन्ने के खेतों में काम करने के लिए यहाँ से हज़ारों की संख्या में मज़दूर पलायन करके पडौसी ज़िलों में जाते हैं। साल में तकरीबन 4-6 महीने वे सपरिवार बाहर रहते हैं। ऐसे में उनके बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है, अकसर बच्चों से भी मज़दूरी या बेगार कराई जाती है और उनका यौन शोषण भी होता है। ऐसे बच्चों को सत्यभामा स्कूलों-छात्रावासों में भर्ती कराने की कोशिश करती है, ताकि वो इस शोषण से दूर रहें और उनकी शिक्षा जारी रहे।

इनके काम में संघर्ष ज़्यादा नज़़र आता है जो शायद इस लिए है कि इनका काम मुख्य रूप से पीड़ित-प्रताड़ित महिलाओं को न्याय और अधिकार दिलाने पर केन्द्रित है। हमारी पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में लड़े बगैर महिलाओं को न्याय और अधिकार मिलना मुश्किल है। यह संस्था पीडित व ज़रूरतमन्द महिलाओं-बच्चों को रोज़गार, शिक्षा, प्रशिक्षण आदि से जोड़ने का काम करती है, जो इसका मुख्य उद्देश्य है।

निर्धार सामाजिक सेवाभावी संस्था की स्थापना 2014-15 में हुई थी, लेकिन इनके पास न तो कोई दीर्घकालीन प्रोजेक्ट है और ना ही कोई और ऐसा स्रोत है जहाँ से संस्था के कामकाज को वित्तीय सहायता मिल सके। इसलिए व्यवस्थित दफ्तर और नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों के बगैर सत्यभामा अपने पति और कुछ अन्य स्वयंसेवकों के साथ मिलकर काम कर रही हैं। इन्हें यदि समुचित वित्तीय सहयोग और तटस्थ मार्गदर्शन मिले तो इनकी पहुँच ज़्यादा व्यापक और प्रभावी हो सकती है।

दूसरा पड़ाव – बालग्राम

सहारा अनाथालय परिवार का बालग्राम! यह बीड़ ज़िले में गेवराई के नज़दीक है। 106 बच्चों और 8-10 वयस्कों के इस परिवार का संचालन संतोष गर्जे नाम का एक युवा करता है। संतोष का बचपन अनाथालय में बीता, शायद इसलिए वे परिवार लफ्ज़ के मायने और उपयोगिता बेहतर जानते हैं। एक फ्लैटनुमा मकान से इस संस्था की शुरुआत हुई थी, फिर गेवराई के पास एक जगह खरीदकर इस संस्था को दान दी गई। उस जगह पर टीन का एक बड़ा हॉल खड़ा किया गया जिसमें चार पार्टिशन करके लड़के और लड़कियों के रहने की जगह और संस्था का दफ्तर वगैरह बनाया गया। आज यहाँ तकरीबन पाँच हज़ार किताबों का पुस्तकालय है, एक बड़ा वाचन कक्ष है, कम्प्यूटर लैब है और एक्टिविटी हॉल भी है। भोजनालय में सारे बच्चे एक साथ बैठकर खाना खाते हैं। बड़ी लड़कियों के लिए कुछ कमरे अलग से बनाए गए हैं। सारे बच्चे पास के एक स्कूल में पढने जाते हैं। कुछ बच्चे पुणे, औरंगाबाद आदि शहरों में उच्च शिक्षा ले रहे हैं। 

संतोष को युवकों के बीच व्याखान देने के लिए बुलाया जाता है। ऐसे ही एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात प्रीति से हुई। इनके बीच दोस्ती हुई और फिर शादी। बालग्राम के सारे बच्चे इन्हें आई-बाबा (माँ-पिताजी) कहते हैं।  यहाँ तीन-चार कार्यकर्ता ऐसे भी हैं, जिनका बचपन बालग्राम में ही बीता और अब पढ़ाई पूरी करके यहीं सेवाएँ दे रहे हैं। सन्तोष ने अन्य मित्रों के सहयोग से इनकी शादी करा दी है। ऐसी ही एक शादी की स्थानीय समाचार-पत्रों में काफी चर्चा हुई थी क्योंकि इसमें शामिल होने के लिए दूर-दूर से मेहमान आए थे। प्रीति बताती हैं कि इसके बाद बालग्राम की लड़कियों से शादी करने का प्रस्ताव लेकर कई लोग आने लगे। लेकिन उनमें से अधिकांश वो लोग होते हैं जिनकी शादी अन्यथा नहीं हो पा रही है। उनमें से कुछ शराबी भी होते हैं। इस तरह की घटनाओं को लेकर दुख होता है कि समाज में अब तक अनाथ बच्चों के प्रति पर्याप्त संवेदनशीलता का विकास नहीं हो पाया  है। संतोषगर्जे जैसे और कई युवाओं की ज़रूरत है जो बालग्राम जैसे अनोखे परिवार बनाएँ ताकि परिवार के बारे में समाज की समझ थोड़ी व्यापक हो सके।

तीसरा पड़ाव – शान्तिवन

शिरूर कासार तालुका में काफी दूर-दराज का गाँव आर्वी, मराठवाडा के किसी आम गाँव जैसा ही है। उसे खास बनाया है दीपक नागरगोजे के सपनों ने। बाबा आमटे के वार्षिक श्रमदान शिविर में युवा दीपक शामिल हुए। बाबा आमटे की एक बात उनके मन में गहरे उतर गई। उन्होंने कहा था, आपको समाज की सेवा करने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं। जहाँ आप रहते हैं, वहीं पता करें कि लोग किन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं? वहीं उन समस्याओं के कारणों को खोजें और उनके समाधान की कोशिश करें।

शिविर से लौटकर दीपक ने अपने गाँव और आसपास के इलाके को नए नज़रिए से देखा और उसे समझने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि खेती अच्छी नहीं होती, पानी का संकट है, मज़दूरों को काम की तलाश में पलायन करना पड़ता है, इस सबका असर बच्चों की शिक्षा पर भी पड़ता है। इसलिए उन्होंने शिक्षा और खेती के सुधार पर काम शुरु किया। तकरीबन 20 सालों की मेहनत के बाद आज शान्तिवन में हाईस्कूल है जहाँ 900 बच्चे पढते हैं और इसमें से लगभग 300 बच्चे छात्रावास में नियमित तौर पर रहते हैं। मजदूरों के पलायन के मौसम में तकरीबन 6 महीनों के लिए छात्रावास में 300 और बच्चे आ जाते हैं। 

दीपक ने हमें आर्वी के आसापास कई खेतों में घुमाया। यह क्षेत्र आधुनिक खेती का एक मॉडल बनने जा रहा है। यहाँ इज़राइली पद्धति से आम जैसे फलों के बागीचे लगाए गए हैं जो कम जगह में ज्यादा पैदावार दे सकते हैं। पानी की समस्या से निजात पाने के लिए खेत-तालाब का उपाय अपनाया गया है। शान्तिवन संस्था तकरीबन 100 किसान परिवारों के साथ काम कर रही है। दीपक बताते हैं कि आधा एकड़ जमीन में बनाए गए खेत-तालाब से तकरीबन दस एकड़ खेत-बागान में सिंचाई की जा सकती है। साथ ही इन्होंने नदी के गहरा करने का भी काम भी शुरु किया है। अब तक कुल मिलाकर तररीबन 50 किमी लम्बाई के बरसाती नदी-नालों को गहरा किया जा चुका है। आर्वी के किसान अब अनार, मौसमी, निम्बू, आम, पपीता जैसे फल उगा रहे हैं। कपास और अरहर की पारम्परिक खेती के साथ बीच-बीच में गन्ने के खेत भी नज़र आते हैं, जो दीपक की नज़र में पानी के बेजा इस्तेमाल है। इसके अलावा, खेत-तालाब में मछलीपालन करके किसानों को अतिरिक्त आमदनी का साधन भी मुहैया कराया गया है।

गाँव से कुछ दूरी पर बालिकाओं के लिए एक नया स्कूल और छात्रावास बन रहा है, जो 2022 तक शुरु हो जाने की उम्मीद है। हालाँकि कोविड-19 की वजह से इसका काम थम गया है। इस परिसर में फलों के बागीचे भी लगाए जा रहे हैं। दीपक कहते हैं कि 3-4 सालों में ही हम कोशिश करेंगे कि यह स्कूल और छात्रावास आत्मनिर्भर हो जाए। दीपक और उनकी पत्नी कावेरी, दोनों ही जी-जान से काम में जुटे हुए हैं लेकिन उन्हें सक्षम साथी कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है जो इस मिशन में साथ मिलकर गुणवत्तापूर्ण काम कर सकें।

चौथा पड़ाव – आनन्दग्राम 

कोविड-19 की वजह से अब लोगों को यह समझ आ रहा है कि संक्रमण किसी को भी हो सकता है। साथ ही कोविड-19 ने कुछ लोगों को भी सिखाया है कि बीमारों के साथ जो छूआछूत वाला व्यवहार किया जाता है, वह मानसिक रूप से कितना पीड़ादायी होता है। लेकिन एड्स के मरीज पिछले कई दशकों से इस तरह का भेदभाव और सामाजिक बहिष्करण झेल रहे हैं। एच.आई.वी. एक ऐसी बीमारी है, जिसका कोई इलाज अब तक नहीं मिला है। समाज में इसके विषय में कई तरह की भ्रान्तियाँ भी फैली हुई है।

ऐसे में दत्ता बारगजे ने एच.आई.वी. पॉजिटिव बच्चों के साथ काम करने का बीडा उठाया है। इन बच्चों को यह लाइलाज बीमारी अपने माता-पिता से मिली है। इन्फेंट इंडिया द्वारा संचालित आनन्दग्राम में 76 बच्चे और 5-7 कार्यकर्ता हैं, सभी एच.आई.वी. पॉजिटिव हैं। यहाँ बच्चों का छात्रावास है। आम स्कूलों में इन बच्चों को भेदभाव और अपमान झेलना पड़ता है, इसलिए आनन्दग्राम परिसर में ही शासन ने ज़िला परिषद द्वारा संचालित प्राथमिक स्कूल खोला हुआ है। खाली समय में ये बच्चे हस्तकला और चित्रकारी करते हैं। दत्ता बारगजे इनकी सेहत का खास खयाल रखते हैं इसलिए रोज़ाना सुबह कसरत और शाम को खेल कराए जाते हैं। बच्चों को समय पर दवाई दी जाती है। दत्ता का बेटा अब डॉक्टर बन गया है जो आनन्दग्राम में बच्चों की देखभाल में अपने पिता की सहायता करता है। 

एक मुलाकात एक अभिनव उद्यमी से

वैसे तो हमें उपरोक्त चार संस्थाओं का ही दौरा करना था और उन्हें राहत सामग्री सौंपनी थी, लेकिन बालग्राम में अनायास ही सूरज देशमुख से मुलाकात हो गई। गेवराई के रहने वाले सूरज की पढाई नज़दीक के नवोदय विद्यालय और फिर पुणे में हुई। उनके भीतर कुछ अलग ही जज़्बा था सो नौकरी करने या फिर सिर्फ पैसा कमाने के लिए व्यवसाय करने के बदले सूरज ने 'सामाजिक पर्यटन’ का पेशा अपनाया। पुणे में पढ़ते वक्त ही उनका सम्पर्क बाबा आमटे द्वारा स्थापित आनन्दवन से हुआ। आनन्दवन का एक संगीत समूह (बैण्ड) है - स्वरानन्द। सूरज इनके सम्पर्क में आए और पहले पुणे और फिर गेवराई में इनके कार्यक्रम आयोजित किए। इस तरह पढ़ते हुए ही ये आनन्दवन, वरोरा और लोक बिरादरी प्रकल्प, हेमलकसा के साथ भावनात्मक रूप से जुड़ गए। इस जुड़ाव की वजह से पुणे से अगर किसी व्यक्ति को इन दोनों संस्थाओं में जाना होता या इनके बारे में कोई और जानकारी चाहिए होती तो वे सूरज देशमुख से सम्पर्क करते थे। 

इस पहचान को सूरज ने आगे बढ़ाते हुए 'तुकाई टूरीज़्म’ नाम की एक कम्पनी बनाई और पुणे, मुम्बई जैसे शहरों के संवेदनशील लोगों को आनन्दवन और लोक बिरादरी प्रकल्प का दौरा कराने लगे। कालान्तर में इस काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने केरल और भारत के अन्य स्थानों पर भी इस सामाजिक पर्यटन का विकास किया, साथ ही अब वे विदेशों में भी इस तरह के दौरे आयोजित कर रहे हैं। आगे वो नवाचारी शिक्षा संस्थाओं, पुरातात्विक स्थलों और भारत के अन्य अनदेखे-अनजाने इलाकों से लोगों को परिचित करना चाहते हैं।
सूरज, सन्तोष गर्जे के दोस्त भी हैं और  बालग्राम से भी जुड़े हुए हैं। इसकी हर गतिविधि में शामिल रहते हैं और हर तरह की मदद करते हैं।

स्वयंसेवी संस्थाओं के इस दौरे से माध्मम से मुझे मराठवाडा के एक छोटे से इलाके में बुनियादी काम कर रहे कुछ व्यक्तियों से मिलने का मौका मिला। व्यक्ति की तरह संस्थाओं की भी अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं, सीमाएँ होती हैं और कमियाँ भी होती हैं। लेकिन उनके काम का आकलन करते हुए हमें यह देखना चाहिए कि उनकी परिस्थितियाँ कैसी हैं? इलाके का भूगोल क्या है? जिन व्यक्तियों और समूहों के बीच वो काम कर रहे हैं उनकी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक हैसियत क्या है? यह भी देखना चाहिए कि उनके पास संसाधन कैसे हैं, टीम किस प्रकार की है, स्थानीय प्रशासन और अन्य समाजिक समूहों का सहयोग कैसा है? 

इन तमाम आयामों पर विचार करके ही हम किसी स्वयसेवी व्यक्ति या संस्था के काम का आकलन कर पाएँगे। इस लिहाज से देखा जाए तो मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि बीड ज़िले की जिन चार संस्थाओं में जाने का मुझे मौका मिला, वो सभी उत्कृष्ट काम कर रहे हैं। इतना उत्कृष्ट कि अनेक युवाओं के लिए वह अनुकरणीय हो सकता है। रही बात कमियों की, तो उनकी ओर इशारा कर देना ही काफी नहीं होता। कमियों को दूर करने के लिए स्वयं को आगे आना पड़ेगा। और, बकौल बाबा आमटे यही समाज सेवा का प्रस्थान बिन्दु है। 

- अमित कोहली, हेमलकसा, गडचिरोली. 
lbp.edu1@gmail.com 

हे ही वाचा:  

शिक्षण सुरूच राहावे यासाठी…
'शिक्षणाच्या लॉकडाऊन' वर मात करणाऱ्या लोक बिरादरी प्रकल्पाच्या तीन शाळा
  

Tags: हिंदी अमित कोहली लोकबिरादरी प्रकल्प हेमलकसा बाबा आमटे कोरोना बीड मराठवाडा रिपोर्ताज Hindi Amit Kohli Lok Biradari Prakalp Baba Amte Corona beed Marathwada NGO Reportage Load More Tags

Add Comment