सुविख्यात समाजकर्मी बाबा आमटे ने अपने काव्यसंग्रह ‘ज्वाला आणि फुले’ में कहा है, ‘क्रांति सीता की तरह होती है।’ आशय था, वह होती है, पर दिखाई नहीं देती। उसके चार चेहरों की बात उन्होंने कही है- समता, बंधुता, स्वातंत्र्य और निर्मिति। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर को इसका एहसास था। तभी तो उन्होंने जो कुछ किया, बताया, वह लिखा। जो लिखा, उसे प्रकाशित किया। उन्हें भविष्यकालीन भारतवर्ष स्वातंत्र्य, समता, बंधुता, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के पंचशील मूल्यों का बनाना था। जब तक जनता अंधविश्वास उन्मूलन से विवेकवादी नहीं बनेगी, तब तक उसका विज्ञाननिष्ठ बनना असंभव है। इसलिए उन्होंने अपने समग्र साहित्य से अपनी इन धारणाओं का अलख जगाया। उसके अनुवाद से ऐसे भारतवर्ष की आशा की जा सकती है।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में महाराष्ट्र में विविध पत्र-पत्रिकाओं का उदय सामाजिक सुधारों का कारण बना। ‘दर्पण’ (1832), ‘प्रभाकर’ (1840), ‘ज्ञानोदय’ (1842), ‘विविधज्ञानविस्तार’ (1850), ‘निबंधमाला’ (1874) ऐसी पत्रिकाओं में उल्लेखनीय रही। इन्होंने हिंदुधर्म में प्रचलित अनिष्ट रूढ़ियों का विरोध किया। अंधविश्वास उन्मूलन का समर्थन किया। सतिप्रथा, बालविवाह विरोध और विधवा विवाह, आंतरजातीय, आंतरधर्मीय विवाह का समर्थन इनकी नीति रही। लोकहितवादी, राजा राममोहन राय, दादोबा पांडुरंग, न्यायमूर्ति रानडे, रा. गो. भांडारकर आदि ने ‘ब्राह्मो समाज’ (1828), ‘प्रार्थना समाज’ (1867) के जरिए धर्म एवं समाज सुधार संबंधी प्रबोधन आरंभ किया। परवर्ती काल में आर्य समाज (1875), ‘सत्यशोधक समाज’ (1873) में महात्मा फुले, स्वामी दयानंद सरस्वती के कार्य ने इसमें गति और गहराई लायी। कर्मकांड विरोध, पुनर्विवाह समर्थन, स्त्री शिक्षा, दहेज प्रथा उन्मूलन, मंदिर में अछूतों के लिए प्रवेश, अस्पृश्यता निवारण, पर्दापद्धति विरोध जैसे सुधारों का समर्थन समय की माँग बन कर सामने आयी।
बीसवीं सदी में ‘सुधारक’ पत्रिका के जरिए गोपाल गणेश आगरकरने समाज सुधार के तेवर कड़े किये। स्वामी केवलानंद सरस्वती, डॉ. के. ल. दप्तरी, महामहोपाध्याय पां. वा. काणे, तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी प्रभृति ने आजादी के पूर्व काल में धर्म सुधारों को समाज सुधारों का सानी बनाया। आजादी के बाद महाराष्ट्र राज्य की स्थापना सन 1960 में हुई। महाराष्ट्र की प्रगतिशील पहचान में आजादी के पूर्व कालखंड से महात्मा गांधी, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, राजर्षि शाहू नरेश का असाधारण योगदान रहा है। इसी नींवपर परवर्ती काल में कर्मवीर भाऊराव पाटील, साने गुरुजी, आचार्य विनोबा भावे के कार्य को देखा जा सकता है। सन 1970 के दरमियान और बाद में महाराष्ट्र की प्रगतिशील धारा में विवेकवाद, इहवाद, विज्ञानवाद को लेकर दलित पैंथर, युवक क्रांति दल, ‘एक गाँव, एक पनघट’ अभियान, मराठवाडा विश्वविद्यालय के नामांतर आंदोलन, महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति, विज्ञान प्रबोधिनी जैसे उपक्रम और अभियान चले। पर अपवाद कार्य में निरंतरता देखी गई। ऐसे में उल्लेखनीय है महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का कार्य।
महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति
सन 1989 में स्थापित अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति ने पिछले तीन दशकों में कार्य किया, वह भारतवर्ष के लिए अनुकरणीय रहा है। समिति की राज्य में 200 शाखाएँ कार्यरत है।12,000 सदस्य है। अब तक 2000 व्याख्यानों के जरिए समिति ने जन जागरण का कार्य किया है। 50 से अधिक पुस्तिकाएँ एवं ग्रंथों की निर्मिति समिति के कार्यों का लेखाजोखा बनकर हमारे सामने है। अनेक परिषद, उपक्रम, आंदोलन, अभियान के जरिए समिति कार्यकर्ताओं ने महाराष्ट्र में प्रगतिशील सोच को गति दी है। संविधान की प्रतिबद्धता, व्यसनमुक्ति, जातिपंचायत विरोध, अंधविश्वास उन्मूलन, आंतरजातीय एवं आंतरधर्मीय विवाह समर्थन, विज्ञान से चमत्कारों का पर्दाफाश, बुवाबाजी विरोध, फलज्योतिष, भानामति, डाकीण प्रथा-परंपरा विरोध, धर्मचिकित्सा, पर्यावरणपूरक उपक्रमों का संचालन, पुरानी प्रथाओं को वैज्ञानिक एवं मानवीहित का जामा पहनाना, जटानिर्मूलन, अंधविश्वास उन्मूलन कानून, जातपंचायत उन्मूलन कानून समिति के प्रमुख कार्य रहे हैं।
इन सारे कार्यों की संस्थापना, संयोजन, संगठन कार्य कर डॉ. नरेंद्र दाभोलकर जी ने अपनी अलग पहचान बनायी । कबड्डी जैसे खेल के संघटक के रूप में सक्रिय नरेंद्र दाभोलकर समाजवादी खेमे में शामिल हुए। व्यवसाय से डॉक्टर परंतु वृत्ति से सामाजिक कार्यकर्ता रहे डॉ. दाभोलकर का व्यवसाय में न रहना स्वाभाविक था। सामाजिक कृतज्ञता निधि संकलन के बहाने आपने समुचे महाराष्ट्र की यात्रा की। डॉ. श्रीराम लागू, ना. ग. गोरे, एस. एम्. जोशी, यदुनाथ थत्ते के प्रभाव वे साप्ताहिक साधना के संपर्क में आये और बाद में संपादक भी बने। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के व्यक्तित्व की यह विशेषता रही है कि वे कुशल संगठक, प्रभावी वक्ता और तर्कशील शैली के लेखक रहे है। यही कारण है कि उनकी हत्या (20अगस्त, 2013) के बाद उन्होंने जो लिखा था, उसका पुनर्पाठ एवं पुनर्वाचन समुचे महाराष्ट्र में आरंभ हुआ। इसके चलते भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों से उनके साहित्य के भाषांतर की माँग ने जोर पकड़ा। उसकी परिपूर्ति में आज तक उनके 15 ग्रंथों में से चार के छ: खंड इसके पूर्व हिंदी में प्रकाशित हुए है। आगामी 22 अगस्त, 2020 को पाँच और हिंदी भाषांतर आ रहे है।
डॉ. नरेंद्र दाभोलकर: समग्र साहित्य अनुवाद परियोजना
डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की सन 2013 में हुई निर्मम हत्या के बाद उनके जीवन, कार्य एवं विचारों को भारतवर्ष में प्रसारित करने के हेतु उनके समग्र साहित्य के अनुवाद की योजना बनायी गयी। हिंदी प्रकाशन जगत के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन समूह राजकमल प्रकाशन से संपर्क किया गया। उन्होंने अपने प्रकाशन की ‘सार्थक धारा’ के अंतर्गत इसे प्रकाशित करने की योजना बनाकर समूह के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी जी ने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के जीवन, कार्य, समर्पण एवं विचारों पर एक तरह से प्रतिष्ठा की मुहर जड़ा दी। राजकमल प्रकाशन समूह के संपादक सत्यानंद निरूपम जी ने इसके स्तरीय निर्मिति का बीड़ा न सिर्फ उठाया, अपितु बेडा पार कर अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध की। योजना के जितने अनुवादक है, उन्होंने अपनी संपूर्ण क्षमता ओं से अनुवाद में अपने जान की बाजी लगायी। अनुवाद को स्तरीय एवं संपूर्ण बनाने के हेतु संपादन की नीति निर्धारित की थी। संपादन समन्वयक के रूप में डॉ. गिरीश काशिद एवं डॉ. चंदा सोनकर ने जी तोड़ मेहनत कर इस परियोजना को अंजाम दिया। अनुवादक सर्वश्री डॉ. चंदा गिरीश, डॉ. प्रकाश काम्बले, डॉ. विजय शिंदे, प्रा. जयसिंग काम्बले, डॉ. अमोल पालेकर, डॉ.संजय नाईनवाड, डॉ. जयराम सूर्यवंशी, डॉ. भाऊसाहब नवले, डॉ. विजय राऊत, प्रा. अनिल गेले, डॉ. धनंजय झालटे, डॉ.प्रकाश अभिमन्यु काम्बले, श्री. निलेश झालटे ने जिस प्रकार से अनुवाद कार्य किया, वह उनकी अंधविश्वास उन्मूलन की प्रतिबद्धता का प्रमाण है। वे सब समाज के साधुवाद के पात्र है। इस परियोजना के आर्थिक प्रबंधन की जिम्मेदारी डॉ. हमीद दाभोलकर ने उठाकर एक तरह से पितृऋण से निजात पाने का प्रयास किया। उनकी एक पुस्तक, जो उन्होंने अपने पिता के साथ लिखी थी, उसका भी प्रकाशन ‘मन-मन के सवाल’ के रूप में परियोजना में करने की योजना है। प्रस्तुत अनुवाद परियोजना एक तरह से समुचे भारतवर्ष को विवेकवादी, विज्ञानवादी बनाने के डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के सपने का अंग है।
पूर्वप्रकाशित अनुवाद ग्रंथ
इस परियोजना के तहत इसके पूर्व छह अनुवाद प्रकाशित हुए है। सन 2015 में मराठी ग्रंथ ‘तिमिरातुनी तेजाकडे’ (2010) का अनुवाद ‘अंधविश्वास उन्मूलन’ नाम से तीन खंडों में प्रकाशित हुआ है। खंड शीर्षक है - ‘विचार’, ‘आचार’ और ‘सिद्धान्त’। ये खंड मूल बृहत् खंड के ही तीन हिस्से है। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर ने ‘विचार’ खंड में अंधविश्वास उन्मूलन के विचार पक्ष को इसमें उजागर किया है। फलज्योतिष, वास्तुशास्त्र, छद्मविज्ञान, संमोहन, भानामति, बुवाबाजी को लेकर चर्चा है। विचार खंड को डॉ. चंदा गिरीश ने अनूदित किया है। ‘आचार’ खंड महाराष्ट्र अंधश्रद्धा समिति द्वारा हाथ लिये गये विभिन्न आंदोलनों, अभियानों एवं पर्दाफाशों का लेखाजोखा है। इसका अनुवाद डॉ. प्रकाश काम्बले का है। ‘सिद्धांत’ खंड विचार और कार्य से निकले चिंतन की निचोड़ है, जिसे सिद्धांत रूप दिया गया है। यह अनुवाद डॉ. विजय शिंदे का कार्य है।
डॉ. नरेंद्र दाभोलकरने ‘भ्रम आणि निरास’ (1985) नाम से लिखे ग्रंथ का हिंदी अनुवाद है, ‘भ्रम और निरसन’। इसका प्रकाशन सन 2018को संपन्न हुआ। यह अनुवाद डॉ. विजय का किया हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ में डॉ. दाभोलकर जी ने भूत-पिशाच वशीकरण, ग्रह आदि का प्रकोप जैसे अंधविश्वासों की चर्चा कर उन्हें विज्ञान की कसौटी पर निर्मूल किया है। सन 2019 को दो ग्रंथों के अनुवाद प्रकाशित हुए। एक है विवेकवादी डॉ. नरेंद्र दाभोलकर। यह डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के लिखे आलेखों का संग्रह है। इसमें साप्ताहिक साधना, पुणे के वर्तमान संपादक विनोद शिरसाठ द्वारा लिया गया डॉ. दाभोलकर का दीर्घ साक्षात्कार भी है। इससे डॉ. दाभोलकर की कार्य संबंधी भूमिका उजागर होती है। यह अनुवाद कार्य डॉ. प्रकाश काम्बले द्वारा संपन्न हुआ है। ‘आओ विवेकशील बने’ अनुवाद डॉ. अमोल पालेकर ने किया है। ‘ठरलं... डोळस व्हायचं’ शीर्षक मराठी रचना (2011) का यह हिंदी तर्जुमा है। इसमें ‘युवा सकाळ’ मराठी दैनिक में प्रकाशित साप्ताहिक स्तंभलेखन का ग्रंथ रूप है। युवाओं को विवेकशील बनाने के उद्देश्य हुआ यह लेखन काफी दिलचस्प है और पठनीय भी। ये सारे ग्रंथ हिंदी भाषिक या हिंदी पाठकों के लिए वैज्ञानिक नजरिया पेश करता है।
प्रकाश्य ग्रंथों के बारे में
इस वर्ष डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के सातवें स्मृति दिन के उपलक्ष्य में पाँच अनूदित ग्रंथों का प्रकाशन 22 अगस्त, 2020 की शाम सुविख्यात वैज्ञानिक डॉ. डी. रघुनंदन के हाथों होने जा रहा है। प्रकाशन ऑनलाईन होगा। प्रकाश्य ग्रंथ है, ‘विश्वास और अंधविश्वास’, ‘ऐसे कैसे पनपे पाखंडी’, ‘मन-मन के सवाल’, ‘जंग अंधविश्वासों की’ तथा ‘विवेक की प्रतिबद्धता’। इसके क्रमश: अनुवादक है - प्रा. जयसिंग काम्बले, डॉ. संजय नाईनवाड, डॉ. जयराम सूर्यवंशी, प्रा. अनिल गेले तथा डॉ. धनंजय झालटे और डॉ.प्रकाश अभिमन्यु काम्बले। मूल मराठी ग्रंथ ‘श्रद्धा-अंधश्रद्धा’, ‘ऐसे कैसे झाले भोंदू’, ‘प्रश्न मनाचे’, ‘लढे अंधश्रद्धेचे’, और ‘विवेकाची पताका घेऊ खांद्यावरी’ के ये अनुवाद है।
‘विश्वास और अंधविश्वास’ मनोविकार, ईश्वर की संकल्पना, अवतार लेना (अंगात येणे) जैसी बातों पर मंथन का संग्रह है। ‘ऐसे कैसे पनपे पाखंडी’ बुवाबाजी का पर्दाफाश है। ‘मन-मन के सवाल’ अंधविश्वासों के संदर्भ और समस्याओं का मनोवैज्ञानिक उत्तर और पहल है। डॉ. हमीद दाभोलकर इसके सहलेखक जरूर है, पर लेखन में अहम् भूमिका उन्हीं की है। यह समुपदेशन शैली का नमूना है। ‘विवेक की प्रतिबद्धता’ पाठकों के परिवर्तन के उद्देश्य से किया गया संबोधन है।
ये पाँचों ग्रंथ आगामी दिनों में वर्तमान धर्मप्रवण बनते जा रहे समाज को रोकने और बदलने में अहम भूमिका निभायेंगे, ऐसी धारणा है। वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक माहौल अंधविश्वास उन्मूलन के सामने एक चुनौती बनकर उभर रहा है। ऐसी स्थिति में ये ग्रंथ बुद्धिवादिता के बलपर समाज को तर्कशील, विवेकी एवं विज्ञाननिष्ठ बनाने की कोशिश करेंगे। असल में होता ऐसा है, परिस्थितियाँ जितनी विपरित बनती जाती है, वैचारिक लेखन की प्रासंगिकता एवं प्रस्तुतता गहरी होती जाती है। ऐसी विकल और विकट स्थिति में यह साहित्य एक छोटी रेखा के सामने महारेषा का कार्य करता है। इतिहास इसका गवाह है और भविष्य इसका साथी।
अनुवाद परियोजना की सार्थकता एवं योगदान
सन 2015 से निरंतर डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के जो छह ग्रंथ इसके पूर्व प्रकाशित हो चुके है, इनकी बिक्री धडल्ले से हो रही है। दैववादी समाज भले परंपराग्रस्त रहता है, वह विज्ञान से साक्षर होने के कारण निरक्षीर न्याय करता जा रहा है। हालातें उसे मजबूर बनाती है। पर मध्ययुग में प्रबोधन काल में (रेनासन्स) में योरोप में जो वैचारिक क्रांति आयी, उसने वहाँ के समाज को धर्मनिरपेक्ष बनाया। परवर्ती समाज और शासी सरकारों ने धर्म को व्यक्तिगत मानते, उसके सार्वजनिक प्रदर्शन को निषेधार्य माना। हमारे भारतवर्ष में संविधान भले स्वातंत्र्य, समता, बंधुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, विज्ञाननिष्ठा की दुहाई देता हो, हमारे शासक आजादी के पिछले 73वर्षों में धर्मनिरपेक्षता संबंधी नीरक्षीर सोच को न अपना पाये, न ऐसी आचार संहिता एवं व्यवहार इसके काबिल रहा। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर द्वारा स्थापित एवं समर्थित विवेकवाद, विज्ञाननिष्ठा, अंधविश्वास उन्मूलन कार्यक्रम हमारे राजनीतिक पक्षों के पल्ले न पडा, न गले उतरा। अपवाद कम्युनिस्ट पक्षों के पश्चिम बंगाल और केरल के कार्यकाल का रहा। यह खुशी की बात है कि इन अनुवादों को पढ़ कर अनेक राज्य सरकारें अंधविश्वास उन्मूलन कानून को अमल में लाने की दिशा में कार्यरत नजर आ रही है। वामपंथी पक्षों के साथ काँग्रेस या मध्यम पंथीय राजनीतिक पक्षों को चुनावी घोषणापत्र में विवेक और विज्ञानाधारित कार्यक्रमों को लेकर जनता से वोट माँगने की पहल का प्रारंभ जिस दिन होगा, उस दिन भारतवर्ष का लोकतंत्र एवं समाज सही माने में प्रगतिशील, एक प्रगल्भ, सुलझे, संगठित जन समुदाय का राष्ट्र बनेगा। डॉ. नरेंद्र दाभोलकर का जीवन, कार्य, विचार यादगार बनाना है, तो मरहूम शायर राहत इंदौरी के शब्दों में कहना पडेगा -
सफर की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे।
चले चलो के जहाँ तक ये आसमान रहे।।
- डॉ. सुनीलकुमार लवटे
drsklawate@gmail.com
(लेखक, ज्येष्ठ साहित्यिक तथा 'डॉ. नरेंद्र दाभोलकर: समग्र साहित्य अनुवाद परियोजना' के प्रधान संपादक है। वे कोल्हापूर के महावीर महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य भी रह चुके है।)
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