27 जनवरी 2025 को तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी की 125वीं जयंती वर्ष की शुरुआत हुई। इस अवसर पर 'तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी समग्र वाङ्मय', इस 18 खंडों के ग्रंथ-प्रकल्प के संपादक सुनीलकुमार लवटे का विस्तृत साक्षात्कार, हम अधिक व्यापक पाठक वर्ग के लिए हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं।
यह साक्षात्कार साधना साप्ताहिक की "ऐवज" वीडियो शृंखला के लिए संपादक विनोद शिरसाठ ने लिया था। इस साक्षात्कार के दोनों अंशों को शब्दांकित कर, साधना साप्ताहिक के 30 मार्च 2024 के अंक में प्रकाशित किया गया था। जिज्ञासुओं के लिए साक्षात्कार के वीडियो की और मराठी में लिखित साक्षात्कार की लिंक भी नीचे दी गई है।
इस साक्षात्कार के पहले भाग को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
- संपादक, साधना
सुनीलकुमार लवटे पिछले 50 सालों से सार्वजनिक जीवन में कार्यरत हैं। उनके व्यक्तित्व के विविध पहलुओं की बड़ी संख्या गिनायी जा सकती है। हालाँकि उसमें से छह-सात पहलु ही मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं। वे एक शिक्षक, प्राध्यापक थे। उन्होंने बड़ी मात्रा में स्वतंत्र रूप से लेखन किया है। बड़ी संख्या में अनुवाद किए हैं। कई किताबों का संपादन किया है। वे सामाजिक कार्यकर्ता तो हैं ही, साथ ही उन्होंने कलात्मक पद्धति से संग्रहालयों (Museum) का निर्माण किया है। इसके साथ ही एक कुशल समन्वयक के रूप में उनकी पहचान विशेष है। इस संदर्भ में मुझे संस्कृत कहावत 'योजकत्व दुर्लभस्य' विशेष रूप से याद आ रही है। मैं उन्हें पिछले 10-15 साल से करीब से जानता हूँ। उनके कार्य को करीब से देख रहा हूँ।
हाल ही के दो दशकों का उनका महत्त्वपूर्ण कार्य है वि. स. खांडेकर (ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त मराठी साहित्यकार) के असंग्रहित और अप्रकाशित साहित्य के संपादन की परियोजना। उन्होंने डॉ.नरेंद्र दाभोलकर की दर्जनों किताबें मराठी से हिंदी में अनुवादित करने वाली परियोजना के संपादन और समन्वय का कार्य किया है। उनकी आत्मकथा 'खाली ज़मीन वर आकाश' विशेष है। लेकिन मैं इनमें से किसी भी विषय पर कोई सवाल नहीं पूछूंगा। वे पिछले पांच सालों से एक बहुत ही महत्वपूर्ण परियोजना का संपादन कर रहे हैं। परियोजना है- 'तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी का समग्र वाडःमय'। यह कुल 18 खंडों, साढ़े दस हजार पृष्ठों और ग्यारह हजार से अधिक इकाइयों वाली परियोजना है। यही आज के साक्षात्कार का विषय है।
प्रश्न: सर, लक्ष्मण शास्त्री जोशी परियोजना की चर्चा तो हम करेंगे ही, लेकिन इसके पूर्व आपने लक्ष्मण शास्त्री जोशी को कब देखा, सुना? उनके थोड़े बहुत सहवास से उनके प्रति आपकी धारणा ने कैसे आकार लिया?
मैं तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी को अपनी युवावस्था से लेकर उनकी मृत्यु तक सुनता, देखता और पढ़ता आया हूँ। सामान्यतः 1970-71 का दौर है, जब मेरा वैचारिक गठन हो रहा था। राष्ट्र सेवा दल, साधना, आंतरभारती जैसे विचार प्रवाह में साने गुरुजी, वि. स. खांडेकर, एस. एम. जोशी, ना.ग. गोरे, यदुनाथ थत्ते को पढ़ते, सुनते हुए मैं बड़ा हुआ। मैंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की और शिक्षक बन गया, लेकिन प्राध्यापक बनने के बाद ही मैंने तर्कतीर्थ को पहली बार सुना। उस समय महाराष्ट्र की धारणा थी कि महाराष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन का कोई भी बड़ा समारोह तर्कतीर्थ की उपस्थिति और उनके व्याख्यानों के बिना समृद्ध न होगा। उनको सुनने का अर्थ है अपना विस्तार करना, नए समाज की ओर जाना, नई दृष्टि के साथ नई सोच अपनाना। उस समय मैं पढ़ता कम था। लेकिन वह मेरे जीवन का ऐसा समय था जब उन्हें सुनते हुए मुझे ऐसा लगता था जैसे मैं कोई बहुत बड़ी बात सुन रहा हूँ।
लक्ष्मण शास्त्री जोशी को महाराष्ट्र में 'तर्कतीर्थ' नाम से ही जाना जाता था। यह वास्तव में उनकी उपाधि थी, लेकिन यही उनकी पहचान बनी थी। असल में उस काल में भारत और महाराष्ट्र में कई तर्कतीर्थ थे। लेकिन तर्कतीर्थ कहने के बाद एक ही सूत्रवाक्य सामने आता था- लक्ष्मण शास्त्री जोशी! मेरी धारणा है कि उन्होंने भारत और महाराष्ट्र को यह सूत्रवाक्य अपने विद्वत्तापूर्ण लेखन, व्याख्यानों और प्रबोधन के माध्यम से दिया था।
प्रश्न: तर्कतीर्थ का जन्म 1901 में और मृत्यु 1994 में हुई। उन्हें 93 वर्ष का जीवन मिला। 23 वर्ष की आयु में उन्हें तर्कतीर्थ की उपाधि मिली। अगले 70 सालों तक वे महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन में बहुत 'केंद्रीभूत' रूप में कार्यरत रहें। उनकी पहचान हमेशा 'प्राचीन और आधुनिक' के चौराहे पर खड़ा रहने वाला और प्राचीन और आधुनिकता के बीच की कड़ी के रूप में करा दी जाती है। अब आपने यह परियोजना पूर्ण की है, इसपर हम बात करने वाले हैं। इस समय आपके मन में तर्कतीर्थ की छवि क्या है?
वर्तमान में हम सब जिस विपत्ति से गुजर रहे हैं, उसे व्यापक अर्थ में हम सांस्कृतिक विपत्ति ही कहेंगे। (वास्तव में यह धार्मिक विपत्ति है।) पिछली सदी में इसी प्रकार की आपत्ति विशेषकर तिलक की मृत्यु और गांधी पर्व के शुरुआत में देश में थी। आम तौर यह समय1923-25 से 1950 तक का था। यह काल भारत और महाराष्ट्र के निर्माण में 'धार्मिक और सामाजिक सुधारों का काल' था। उसकी नींव महात्मा फुले, आगरकर, तिलक आदि ने इसके पूर्व की सदी में डाल दी थी। तर्कतीर्थ के उद्योन्मुख काल में उनका आकलन अपने पूर्व काल के किसी से भी प्रभावित न था। पढ़ने से उनमें जन्मगत बुद्धि विकसित हुई, दृष्टि विकसित हुई; इसने उन्हें प्रगतिशील, विवेकवादी और बुद्धिवादी बना दिया।
उनके गुरु नारायण शास्त्री मराठे तथा स्वामी केवलानंद सरस्वती वाई में प्राज्ञपाठशाला नामक एक संस्कृत विद्यालय चलाते थे। यह उस समय का राष्ट्रवादी शिक्षा देने वाला विद्यालय था। वहां इस विचार से शिक्षा दी जाती थी कि विद्यार्थी देश की आजादी के लिए जिम्मेदार हो, देश को आजादी दिलाने वाला हो। उदाहरण देना हो तो कोल्हापुर के वि. गो. विजापूरकर नाम के एक सज्जन वहाँ के राजाराम कॉलेज में प्राध्यापक थे। आगरकर, तिलक के प्रभाव में उन्होंने कोल्हापुर में 'समर्थ विद्यालय' नाम से एक राष्ट्रीय शिक्षा विद्यालय शुरू किया था। उन्हें लगता था कि उनके छात्र देश को आजादी दिलाएंगे। वे इसी प्रकार की शिक्षा देते थे। उनके इस कार्य को देखकर अंग्रेज आग बबूला होते थे। अंग्रजों ने कोल्हापुर संस्थान को सूचित किया कि आपके संस्थान में यह विद्यालय नहीं चलाया जाना चाहिए। फिर उन्होंने कोल्हापुर संस्थान से अपनी पाठशाला का बोरिया- बिस्तर समेटा और मिरज संस्थान में आ गये। मिरज संस्थान को भी अंग्रेजों ने परस्त कर दिया। फिर वे तलेगांव आए। वहां हथियार रखने और साजिश रचने का आरोप लगाकर स्कूल बंद कर दिया गया। प्रा.बिजापुरकर के सामने प्रश्न था कि शिक्षा के माध्यम से जिस प्रकार का ध्येयवाद पैदा करना चाहता हूँ; यदि वह शिक्षा ही नहीं दी जायेगी तो विद्यालय किसलिए चलायें? इसलिए वे इसी प्रकार की शिक्षा देने वाली 'प्राज्ञ' पाठशाला में अपने सभी छात्रों और अध्यापकों को ले आए। समर्थ विद्यालय के शिक्षकों और छात्रों के प्राज्ञ पाठशाला में आने से एक संस्कृत पाठशाला 'राष्ट्रीय पाठशाला' बन गई। मेरा मानना है कि अगर किसी ने तर्कतीर्थ का कायाकल्प किया है, तो वह समर्थ विद्यालय के शिक्षकों और छात्रों ने। मुझे यह एक रोमांचकारी समय लगता है।
आज भी आप महाराष्ट्र से पूछते हैं कि तर्कतीर्थ ने क्या लिखा? तो इन दो किताबों के सिवाय तीसरी किताब का नाम बताया नहीं जा सकता। पहली किताब 'वैदिक संस्कृतिचा विकास', जिसे साहित्य अकादमी का पहला पुरस्कार मिला है और जिसका अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत भाषा में अनुवाद हुआ है। दूसरी किताब है- 'हिंदू धर्माची समीक्षा।' ये दोनों पुस्तकें 'आधुनिकता और प्राचीनता’ का समन्वय करने का कार्य करती हैं। 1941 में प्रकाशित 'हिन्दूधर्माची समीक्षा' किताब में उनके 1940 के भाषण सम्मिलित हैं। यह उनके मार्क्सवादी बनने का समय था। यह भी हैरान करने वाली बात है कि एक सनातनी संस्कृत विद्वान मार्क्सवादी बनता है।
एक ओर गांधीवाद विकसित हो रहा था तो दूसरी ओर समाजवाद। प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध तक का काल महाराष्ट्र के जागरण का काल था। सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, विवेकवादी जागरूकता के लिए लोग कई मोरचे पर काम करते थे। उस समय तर्कतीर्थ को लगता था कि ‘धर्म परिवर्तन’ही ‘समाज परिवर्तन’का साधन है। इसलिए वे और उनके गुरूजी छोटे- छोटे प्रयास करते थे। उदाहरण के रूप में 1923 में वाई में घटित घटना बता सकते हैं। वाई में ब्राह्मण सभा का आयोजन किया गया था। सभा का विषय तत्कालीन समय का ज्वलंत प्रश्न था- क्या विवाह अपनी जाति में करना चाहिए? यानी कऱ्हाडे ब्राह्मण चित्पावन ब्राह्मणों से विवाह करें? आज हम इस प्रश्न पर हंसते हैं पर वह समय कितना कर्मकांडी था इसका यह उदाहरण है। ऐसी सभाओं में तर्कतीर्थ और केवलानंद सरस्वती जाते और बताते कि, “आप लोग चित्पावन, कऱ्हाडे, देशस्थ, कोंकणस्थ जैसे भेद लेकर बैठे हैं? सबका खून एक है, सबका वर्ण एक है, सबकी संस्कृति भी एक ही है। तो मिश्र विवाह करने में ग़लत क्या है?"
तर्कतीर्थ ने लिखा है कि, 'मैंने 1923 से 1930 तक सात साल कई ब्राह्मण बैठकों में भाग लिया। इसी तरह की एक बड़ी धर्मसभा का आयोजन गुजरात सीमा पर धूले के पास सोनगीर में किया गया था। इस सभा के लिए शंकराचार्य उपस्थित थे। उस सभा में तर्कतीर्थ ने यह बताया कि, 'हमें प्रायश्चित के बारे में अत्यंत उदारतापूर्वक सोचना चाहिए।' उन दिनों अनैतिक संबंधों से पैदा हुए बच्चे, मिश्रित विवाह से पैदा हुए बच्चे पाप माने जाते थे। पाप से मुक्ति पाने के लिए माता-पिता को तो तपस्या करनी ही पड़ती थी, लेकिन बच्चों को भी पापी माना जाता था। तब तर्कतीर्थ कहते थे कि, 'आप उन्हें धर्म में लाने का प्रयास करते हैं, लेकिन यह प्रयास तो जैसे बीमारी से इलाज भयावह जैसी स्थिति है। आप के द्वारा बताया गए प्रायश्चित आसान नहीं है, आप प्रायश्चित में उदारतापूर्वक छूट क्यों नहीं देते?' उस समय का पुरोहित समाज प्रायश्चित्त में छुट देने को भी तैयार नहीं था। इसलिए 1930 के दौरान तर्कतीर्थ महसूस करने लगे कि जिस रूढ़िवादी सामाजिक वर्ग को हम जागृत करना चाहते हैं, उन्हें शब्द्प्रामान्य के अलावा धर्म मंजूर नहीं है। फिर उन्होंने फैसला किया कि अपना सिर पत्थर पर मारने की बजाय अपना रास्ता बदलना चाहिए। वे धार्मिक और सामाजिक आंदोलन से राष्ट्रीय आंदोलन की ओर आ गए।
प्रश्न: एक महान पंडित के रूप में उनकी पहचान और उनके द्वारा किए गए विशाल कार्यों से महाराष्ट्र परिचित है। लेकिन फिर भी यह आदमी एक महान विद्वान है तो कैसे? और उनका कार्य विशाल है तो कितना विशाल? इसकी जानकारी महाराष्ट्र के बड़े- बड़े लोगों को नहीं थी और आज भी नहीं है। ऐसे तर्कतीर्थ के समग्र साहित्य पर कार्य करने का विचार आपके मन में सबसे पहले कब आया? ऐसा प्रतीत होता है कि दिसंबर 2018 में आपने यह प्रस्ताव महाराष्ट्र राज्य साहित्य संस्कृत मंडल को प्रस्तुत किया था। उनकी स्वीकृति से जनवरी 2019 को काम आपके पास आया। 2019 से 2023 तक पांच साल आपने इस पर काम किया। आपको 'समग्र तर्कतीर्थ' परियोजना की आवश्यकता क्यों महसूस हुई?
लॉकडाउन से पहले, 2018-19 के दौरान किसी बहाने से मैंने 'तर्कतीर्थ' पढ़ने के लिए लिया था। उसका कारण यह था कि उस समय वर्तमान सरकार की वाह- वाह चल रही थी। आने वाली नई सरकार सनातनी विचारों की रहने के संकेत मिल रहे थे। इसीकारण मन में विचार आया कि 100 साल पहले समाज ऐसे विचारों के बारे में क्या सोचता था?' फिर इस बहाने 'तर्कतीर्थ' का पाठ करने लगा। खासकर उनकी दो किताबें। आज भी आप महाराष्ट्र से पूछते हैं कि तर्कतीर्थ ने क्या लिखा? तो इन दो किताबों के सिवाय तीसरी किताब का नाम बताया नहीं जा सकता। पहली किताब 'वैदिक संस्कृतिचा विकास', जिसे साहित्य अकादमी का पहला पुरस्कार मिला है और जिसका अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत भाषा में अनुवाद हुआ है। दूसरी किताब है- 'हिंदू धर्माची समीक्षा।' ये दोनों पुस्तकें 'आधुनिकता और प्राचीनता’ का समन्वय करने का कार्य करती हैं। 1941 में प्रकाशित 'हिन्दूधर्माची समीक्षा' किताब में उनके 1940 के भाषण सम्मिलित हैं। यह उनके मार्क्सवादी बनने का समय था। यह भी हैरान करने वाली बात है कि एक सनातनी संस्कृत विद्वान मार्क्सवादी बनता है।
थोड़े समय पहले मैंने जिस राष्ट्रीय आंदोलन का उल्लेख किया, उसमें तर्कतीर्थ ने क्रांतिकारी कार्य किया। संगमनेर, नगर आदि क्षेत्रों में युवा कार्यकर्ताओं के लिए शिविर आयोजित किए, उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में समझाया। कलवन, बागलाण, नामपुर, मांगी-तुंगी आदि धुले-नासिक जिले के इलाके हैं। इन जिलों में तर्कतीर्थ ने 'जंगल सत्याग्रह' के रूप में पचास हजार आदिवासियों का मोर्चा निकाला है। इस क्षेत्रों के डेढ़ सौ ------ के इस्तीफ़े लेकर अंग्रेज़ों को सौंप दिये। उन्होंने बागलाण में बार्डोली पद्धति से सत्याग्रह किया। इस अध्ययन के दौरान मैं ब्रिटिश इंटेलिजेंस रिपोर्ट पढ़ रहा था। उसमें लिखा है कि, ‘This can be treated as Mini Bardoli.’ इस रिपोर्ट में तर्कतीर्थ का वर्णन करते हुए लिखा है,Renowned Sanskrit Scholar becoming revolutionary in India. उस दौरान यह शख्स हथियार रखता था और हथियारों की आपूर्ति भी करता था।
उनमें यह सब कहां से आया? वे जब धुले की जेल में थे तब द्वा. भ. कर्णिक के संपर्क में आए। आगे जाकर कर्णिक ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ और 'संग्राम' समाचार पत्र के संपादक बने। इन्होंने ही स्वतंत्र महाराष्ट्र की विचारधारा को आकार देने के साथ ‘महाराष्ट्र टाइम्स’ की नींव रखी। उस समय में वे केसरी के प्रतिनिधि के रूप में भी दिल्ली में रहते थे। वहां वे साम्यवाद के संपर्क में आये। उन्होंने छोटे पत्रक निकालकर आम जनता में वितरित करने की पद्धति को अपनाया था। उनकी धारणा थी कि जब तक कोई विचार जनता तक नहीं पहुँचता तब तक क्रांति नहीं होती है। द्वा. भ. कर्णिक गुप्त रूप से इन पत्रकों को धुले जेल में लाते थे। उनके भाई वसंतराव कर्णिक (आगे जाकर रॉयवादी बनें) के माध्यम से भी पत्रके आयी जिन्हें तर्कतीर्थ द्वारा पढ़ा गया। उस समय तर्कतीर्थ को साक्षात्कार महसूस हुआ। अपने लेख 'मैं रॉयवादी क्यों और कैसे बना?' में उन्होंने लिखा है, 'कोई भी नया विचार मुझे परेशान कर देता है। मैंने मार्क्सवाद पढ़ा और व्याकुल बन गया। यानी मेरी पुरानी चेतना परमाणु विखंडन की तरह ज्यामितीय रूप से विभाजित हुई और मैं एक नए विचार की ओर आकर्षित हुआ।' नौ महीने जेल में रहने के दौरान उन्होंने मार्क्सवाद पढ़ा, कम्युनिस्ट घोषणापत्र पढ़ा, 'दास कैपिटल' पढ़ा। तब उनकी धारणा बनी कि इस देश में परिवर्तन केवल गांधी विचारों से नहीं होगा; वह केवल हथियारों द्वारा ही संभव होगा, केवल जन-समितियों द्वारा ही संभव होगा। यानी एक ओर विनोबा धुले जेल में गीता पर प्रवचन देते थे और साने गुरुजी उसे लिखते थे, उसी समय तर्कतीर्थ उसी जेल में लोगों को मार्क्सवाद समझाते थे।
साधारणत: नवंबर 1932 में जेल से बाहर आने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि इस विचार का प्रसार करना चाहिए। उसी दौरान कर्णिक बंधुओं के माध्यम से वे मानवेंद्र रॉय के संपर्क में आये। मानवेन्द्र रॉय भारत आने से पहले आठ साम्यवादी देशों में क्रांति कर चुके थे। इनमें मेक्सिको, रूस, जर्मनी शामिल थे। एक 13 साल का लड़का क्रांति के लिए भारत से विदेश भाग जाता है और अंतरराष्ट्रीय मार्क्सवाद के संस्थापकों में से एक बनता है। भारत में वेश और अपना नाम बदलकर डॉ. महमूद बनकर आता है। उस समय भारत पर कांग्रेस का प्रभाव बहुत अधिक था। उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता स्वीकार कर ली। साने गुरूजी द्वारा सफल बनाए गए फैज़पुर कांग्रेस अधिवेशन (1937) में रॉय ने बहुत प्रभावशाली भाषण दिया था।
यदि आप भारत में समाजवाद की उत्पत्ति ढूंढने जाएंगे तो पाएंगे कि भारत में समाजवाद की लौ फैजपुर कांग्रेस में प्रज्वलित हुई थी। वजह हैं, मानवेंद्र रॉय! उन्होंने कांग्रेस के इस अधिवेशन में कहा था कि 'मुझे इस बात का संदेह है कि भारत को केवल अहिंसा से ही स्वराज मिलेगा। दुनिया के जिन देशों में क्रांति हुई है वह केवल हथियारों से ही हुई हैं। अगर भारत में सत्ता पराजित होगी तो हथियारों से होगी, शास्त्र से नहीं।' उस समय नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण जैसे लोग रॉयवादी विचारों के थे। तब नेहरू, पटेल और गांधी ने रॉय को बुलाकर बताया कि 'आप में और हम में दृष्टिकोण का बुनियादी अंतर है। कांग्रेस के मंच पर हम क्रांति की बात कभी नहीं करेंगे। हम परिवर्तन की ही बात करेंगे।' जब इन सभी समाजवादियों को इस बात का एहसास हुआ तो उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर समाजवादी पार्टी बनाई और रॉय ने 'रॅडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी' की स्थापना की। इस पार्टी का मानना था कि जनता की समितियां बनानी चाहिए, जनता द्वारा आंदोलन कर क्रांति करनी चाहिए। यह दौर 1936-40 का है।
उस समय रॉय को लगता था कि लोगों की समितियां बननी चाहिए। 1975 के समग्र क्रांति के दौरान जयप्रकाश नारायण भी लोक समितियों की बात करते थे। आज जब हम अपने देश पर नजर डालेंगे तो हमें अहसास होगा कि पुन्हा तीसरी बार लोक समितियों के बीना बदलाव संभव नहीं है। इस पृष्ठभूमि में मेरे मन में समग्र लक्ष्मणशास्त्री परियोजना करने संबंधी विचार आया।
(तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी पद्म विभूषण संमान स्वीकारते हुए)
प्रश्न: आपने शुरुआत में तर्कतीर्थ की जिन दो किताबों का जिक्र किया, उनसे प्रभावित होना, देश की नई सरकार- उसकी समग्र स्थिति और उसी परिप्रेक्ष्य में तर्कतीर्थ का समग्र जीवन क्रम, उनका चरित्र, उनके जीवन में आए इतने सारे नाटकीय (dramatic) मोड़, यह सब आपके मन में मंडरा रहा था। परिणामस्वरूप आपको लगा कि इस व्यक्ति के समग्र साहित्य का संपादन करना चाहिए और आपने यह प्रस्ताव 'साहित्य संस्कृति मंडल' को प्रस्तुत किया। उसके बाद वास्तव में इसकी शुरुआत कैसे हुई? संसाधन जुटाने, लोगों से संपर्क करने और इस संपादन को मूर्त रूप देने की प्रक्रिया क्या थी?
दरअसल मुझे अंदाजा नहीं था कि ये प्रोजेक्ट इतना बड़ा हो जाएगा। हमारे यहां एक कहावत है 'अंधेरे में तीर चलाना'। ये सच है कि अँधेरे में तीर चलाए बिना अनुसंधान नहीं किया जा सकता। इस प्रोजेक्ट के संबंध में मैं प्राज्ञ पाठशाला में गया, उस समय मुझे बताया गया कि ‘हमारे पास उनकी दो- तीन किताबें और दो- तीन छोटी संस्कृत पुस्तिकाएं हैं।' उन्होंने वह किताबें मुझे दे दी। इन्हें पढ़ने के बाद मैंने खोजना शुरू किया। 'अस्पृश्यता मीमांसा' नामक 17-18 पन्नों का संस्कृत प्रबंध प्राप्त हुआ। कक्षा 11वीं में मेरा संस्कृत विषय होने के कारण मैं संस्कृत जानता हूँ। इसे पढ़ने के बाद पता चला कि तर्कतीर्थ ने इसे महात्मा गांधी के लिए लिखा था। 1932 में महात्मा गांधी जेल में थे। डॉ. बाबा साहब आंबेडकर चुनावों में स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्रों के लिए आग्रही थे। महात्मा गांधी इसके ख़िलाफ़ थे, वे 'आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र’ लेने की बात कर रहे थे। इसने 'पुणे समझौते' को जन्म दिया, जिसका इतिहास सभी जानते हैं। लोग मोटे तौर पर कहते हैं कि पुणे समझौते में गांधी की हार हुई और आंबेडकर जीत गये। मैं इन दो नेताओं के संपूर्ण साहित्य के अध्ययन से आपको बताऊंगा कि ये दोनों महान नेता एक-दूसरे के प्रभाव से अधिक प्रगल्भ हुए हैं।
थोड़ा विषयांतर होगा, लेकिन 'गांधीजी के अनशन की समाप्ति' पर एक अलग डॉक्युमेंटेशन होना चाहिए। डॉक्टरों का कहना था कि 'अगर 24 घंटे में अनशन ख़त्म नहीं हुआ तो We will loose Gandhi।' सवाल यह था कि यह बात गांधी को कौन बताए। उस समय भारत में केवल एक ही व्यक्ति उन्हें बता सकते थे, वह 'रवीन्द्रनाथ ठाकुर' थे। लोगों ने उन्हें बिनती की, 'आप महात्मा गांधी को समझाए।' उन्होंने गांधी को टेलीग्राम भेजा। उसमें वे गांधी जी को बताते हैं, आज- कल आप उठते- बैठते अनशन करते हैं। बार-बार अनशन करने से आपमें नैतिक अहंकार आया है, ये अच्छा नहीं है। कोई व्यक्ति देश से बड़ा नहीं होता। देश की भावना को ध्यान में रखते हुए आपको अनशन तोड़ देना चाहिए।' महात्मा गांधी अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार हुए। इस अनशन ने, टेलीग्राम ने और डॉ. बाबा साहब आंबेडकर के आग्रह ने गांधी जी का हृदय परिवर्तन कर दिया। इस अनशन के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने का फैसला किया। उन्होंने 'जमनालाल बजाज' से कहा कि, 'अपने वर्धा में ऐसा गांव खोजे जहां न सड़कें हों, न बिजली हो, न पानी हो और उस गांव में सभी हरिजन हों।'
हमारे पास कई लेखक और नेताओं के साहित्य की समग्र सूची उपलब्ध नहीं है; तर्कतीर्थ की भी नहीं है। उनकी प्राथमिक जीवनियाँ थीं, साथ ही समकालीनों द्वारा लिखी गई पुस्तकों में छोटे-छोटे नाम निर्देश मिलते थे जैसे कि यहाँ उनका व्याख्यान हुआ था। फिर वह काल- उस समय के समाचारपत्र खोजकर उस भाषण को ढूंढने का प्रयास करना। इसी पद्धति से मैंने उनके सभी लेख, साक्षात्कार, भाषण, शोध प्रबंध, उनके द्वारा पाण्डुलिपियों की बनायीं गयी सूची, अनुवादित भारतीय संविधान को प्राप्त किया ही साथ ही सौ वर्षों में तीर्थंकर के साहित्य पर जिन- जिन लोगों ने लिखा, मैं उसकी खोज करने लगा।
बजाज ने आज हम जिसे 'सेवाग्राम' कहते हैं, उस 'सेगांव' नामक गाँव का चयन कर गांधी जी को सूचित किया। गांधी जी ने कहा, 'मैं प्रत्यक्ष गांव देखूंगा, फिर निर्णय करूंगा।' गांधी जी तांगे वर्धा से सेगांव आकर तसल्ली करते हैं और मीरा यानी मिस स्लेड को सौ रुपये देकर कहते हैं, 'अब से जीवन भर हमें यहीं रहना है। सौ रुपये में झोपड़ी बनाओ।' आज जिसे हम 'बापू की कुटी' कहते हैं, वह उस समय की सौ रुपये की झोपड़ी है। गांधीजी की शर्तें थीं कि, 'झोपड़ी के निर्माण की सामग्री इसी क्षेत्र की होनी चाहिए। मजदूर यहीं के होने चाहिए और सौ रुपयों में ही वह बननी चाहिए।' गांधी को समझने के लिए लोगों ने कितनी छोटी-छोटी बातें लिखी हैं! मेरा मानना है कि गांधी को समझे बिना अंबेडकर को नहीं समझा जा सकता! तर्कतीर्थ तो बिल्कुल ही नहीं समझते हैं!
प्राज्ञ पाठशाला में मैंने 'अस्पृश्यत्व मीमांसा' नामक एक छोटी सी संस्कृत पुस्तक देखी, उसी की यह पृष्ठभूमि है। पुणे समझौते के बाद महात्मा गांधी यहां आए और उन्होंने तय किया कि मैं सिर्फ और सिर्फ सामाजिक कार्य ही करूंगा। इसकी शुरुआत अस्पृश्यता उन्मूलन से होगी। 1932-35 में गांधी जी बहुत रुढ़िवादी, सनातनी थे। उन्होंने दो प्रकार के धार्मिक विद्वानों को येरवडा जेल में बुलाया। अत्यंत ही रूढ़िवादी धार्मिक विद्वान और बहुत ही प्रगतिशील धार्मिक विद्वान। वे सनातनियों से पूछते हैं कि, 'क्या हमारे धर्म में अस्पृश्यता उन्मूलन की संभावना है? और उसके कुछ मानक हैं?' प्रगतिवादियों से पूछते कि, 'मुझे ऐसा प्रमाण दो, जिससे मैं छुआछूत मिटा सकूं।' उन दोनों की बातें सुनने के बाद गांधी जी इस निर्णय पर पहुंचे कि हमारे सभी पनघट जाति-धर्म से मुक्त होने चाहिए। हमारे सभी मंदिर जाति-धर्म मुक्त होने चाहिए, यह अस्पृश्यता उन्मूलन के बिना संभव नहीं है। इसे धर्म का आधार है इसका भरोसा होने पर 'हरिजन' पत्रिका का पहला अंक 11 फरवरी, 1933 को आया (यदि मेरी याददाश्त सही है तो)। वह पहला अंक बहुत क्रांतिकारी है, एक तरफ बाबा साहब आंबेडकर का लेख है। दूसरी ओर प्रगतिशील धर्म पंडितों का 'Statement of untouchability' है। इसमें बा. न. राजहंस का एक लेख है। वह पहला अंक अस्पृश्यता उन्मूलन की बुनियादी प्रस्तुति है। उसमें सभी प्रगतिशील धार्मिक विद्वानों ने कहा है कि, 'हमारे पनघट, हमारे शिक्षा संस्थान, हमारा समाज और मंदिर सभी के लिए खुले होने चाहिए। अगर हम अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए धर्म को आधार बनाकर काम करेंगे तभी यह संभव होगा।' इसका प्रमाण है तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री का ग्रंथ- 'अस्पृश्यत्व मीमांसा' (1934)। इस प्रबंध में अस्पृश्यता उन्मूलन के धार्मिक आधारों की चर्चा है। हमने समग्र तर्कतीर्थ में केवल यह संस्कृत निबंध नहीं दिया है बल्कि उसका मराठी अनुवाद भी दिया है। आम आदमी को गांधी जी के आग्रह का पता चले।
प्रश्न: आपके द्वारा समग्र तर्कतीर्थ परियोजना करने का निर्णय होने पर संसाधन एकत्रित करने, लोगों से मिलने की प्रक्रिया क्या थी?
यह प्रक्रिया तो जैसे 'साधारण प्रमाण के आधार पर बहुत बड़ा निष्कर्ष निकालने' जैसी थी। हमारे महाराष्ट्रीयन और भारतीय समाज में न तो सुरक्षा की साक्षरता है और न ही अनुसंधान का अनुशासन है। मैं कई लेखकों और राजनीतिक नेताओं के बारे में बता दूँ कि हमारे पास उनके लेखन की समग्र सूची नहीं है; तर्कतीर्थ की भी नहीं है। उनकी प्राथमिक जीवनियाँ थीं, साथ ही समकालीनों द्वारा लिखी गई पुस्तकों में छोटे-छोटे बिंदु थे। उनके व्याख्यान की कहीं से जानकारी मिलती तो उस दौर के अखबारों को खोजकर उस भाषण को ढूंढने की कोशिश करता। ऐसा करते हुए मुझे उनके सभी लेख, साक्षात्कार, भाषण, प्रबंध, पांडुलिपियों की सूचियाँ, अनुवादित भारतीय संविधान मिल गया। लेकिन मैंने उन लोगों की तलाश शुरू की जिन्होंने सौ वर्षों के दौरान तर्कतीर्थ के साहित्य पर लिखा। अभी हम सभी के लिए गूगल एक वरदान है, हम इसका सही तरीके से उपयोग नहीं कर रहे हैं। बिलकुल कल की बात बताता हूँ। कल मैं गूगल पर, डॉ. पा. वा. काणे और तर्कतीर्थ खोज रहा था। मैंने देखा कि 'वैदिक संस्कृति के विकास' का संस्कृत अनुवाद है। इस प्रकार के झटके, जिन्हें मैं सोशल झटके या रिसर्च झटके कहता हूं, बैठते गए।
तर्कतीर्थ ने उस दौरान दुनिया भर में भाषण दिए हैं। वे हमारे पास कहीं नहीं हैं। जिस प्रकार से तर्कतीर्थ को विदेशियों ने सुरक्षित रखा है उसे हम सुरक्षित नहीं रख पाये हैं। एक उदाहरण बताता हूँ। लगभग 1972 में तर्कतीर्थ ने पेरिस की प्राच्य विद्या परिषद में एक निबंध लिखा था। ‘The Cosmic state and Collective Kingship of Vedic Gods.’ उसमें बताया था कि, 'जिस तरह से लौकिक विश्व में एक राजा की सत्ता रहती है उसी तरह से देव श्रुष्टि में भी एक राजा होकर उसकी सत्ता रहती है। इस निबंध में इसकी खोज की थी। मैंने फ़्रांस की राष्ट्रीय लाइब्रेरी को एक मेल लिखा। उसका उत्तर उसी दिन मिला। ‘If you are interested, we will serve the essay, speech he had read in original congress.’ मैंने दूसरे दिन उन्हें 'हाँ' कहा। तीसरे दिन उनका संदेश आया, ‘Do you want it free or with cost?’ मैंने कहा, ‘With cost.’ इस पर उन्होंने कहा, ‘We will take a minimum cost as you are scholar.’ उन्होंने बिलकुल ही कम पैसों में, झेरॉक्स के दाम में वह निबंध भेज दिया। हमारे यहाँ मात्र मैंने डॉलर की कीमत पर संदर्भ प्राप्त किए हैं। जहां हम संदर्भ को 'विरासत' के रूप में देखते हैं, वहां विदेश में इसे 'ओपन सोर्स', 'पब्लिक डोमेन' के रूप में देखा जाता है। महाराष्ट्र और भारतीय समाज को किसी बिंदु पर उदारता के साथ ज्ञान को 'सामाजिक संपत्ति' के रूप में देखना चाहिए। ऐसी उदारता के कारण ही मुझे यह सामग्री प्राप्त हो सकी। मैं विनम्रता के साथ बताऊंगा कि लॉकडाउन के दौरान कई ग्रंथालयों ने मुझे आवश्यक सामग्री भेजी, उपलब्ध करायी। मैं उन सभी का ऋणी हूँ।
प्रश्न: इसमें महाराष्ट्र कौन कौनसे ग्रंथालय हैं?
शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर का ग्रंथालय, करवीर नगर वाचन मंदिर, मुंबई का मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय, पुणे का नगर वाचन मंदिर, राज्य मराठी पुस्तकालय, बदलापुर के ग्रंथ सखा जैसे ग्रंथालयों ने मुझे कोरोना काल में मेल से सामग्री भेजी है। मैंने ऐसे दोस्त खोज निकाले जो किताबों के मामले में मेरे जैसे ही पागल थे। विश्वकोश के दप्तर में काम करने वाले 'रवींद्र घोडराज' को बताने की फुरसत की वो सामग्री खोजकर भेज देते थे। बदलापुर के 'श्याम जोशी' के साथ ही ग्रंथालय के संचालक 'दत्ता क्षीरसागर' ने कई अखबार दिए हैं। इस परियोजना का श्रेय मेरे अकेले का नहीं, ऐसे हजारों हाथों का है। असल में यह संयुक्त सहयोग परियोजना है।
प्रश्न: तर्कतीर्थ के गुजरे आज तीन दशक हो गए हैं। उनका सार्वजनिक जीवन सत्तर वर्षों का था। उनके जीवनकाल में और मृत्यु के पश्चात भी यह सारा एवज बिना उपयोग के गोदामों में बिखरा पड़ा था। जब यह एवज सामने आ रहा था, तो आप इसे देख रहे थे, पढ़ रहे थे, समायोजित कर रहे थे; तब आपको कई नई चीजे मिली होंगी। जैसे कि यह वर्तमान संदर्भ में अधिक प्रासंगिक है। यह सब देखते और पढ़ते समय क्या आपको लगा कि हमारा महाराष्ट्र तर्कतीर्थ मामले में कुछ कृतघ्न रहा है?
मैं कृतघ्न तो नहीं कहूंगा पर समकाल हमेशा रूढ़िवादी होता है। मैं आपको दो छोटे उदाहरण बताता हूँ। बाबरी मस्जिद ढहाई गई, उस समय का तर्कतीर्थ का एक साक्षात्कार है। उसमें वे कहते हैं, 'राम जन्मभूमि का कोई प्रमाण नहीं है।' इस बात का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है कि जहां अब राम मंदिर है, वहीँ राम का जन्म हुआ था। इसी दौरान मंडल आयोग के बारे में उनका कहना था कि, 'मंडल आयोग जाति जागरूकता को उदार नहीं बल्कि कठोर बना रहा है।' इतने सालों बाद देखते हैं कि आज हम धार्मिक और जातीय चेतना के परमकोटि पर खड़े हैं, (व्यक्तिगत रूप से कहूं तो मेरी कोई जाति नहीं है, मेरा कोई धर्म नहीं है। लेकिन लोग मेरी जाति भी ढूंढने निकलते हैं, इसे क्या करें?) इसलिए मुझे लगता है कि तर्कतीर्थ समग्र साहित्य वर्तमान महाराष्ट्र को फिर एक बार प्रबोधन काल (Renaissance) की ओर ले जाएगा।
प्रश्न: ठीक है, आप कहते हैं कि महाराष्ट्र कृतघ्न नहीं है, लेकिन उनके जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के तीस साल बाद भी इसे बिखरे हुए रूप में रखा गया है। मुझे स्वयं लगता है कि महाराष्ट्र के उनके प्रशंसक, अनुयायी या संपादन करने वाले विद्वानों या संस्थाओं ने इस कार्य को किया होता तो इसका अधिक उपयोगी होता। दूसरी बात, मुझे यह भी लगता है कि जिस व्यक्ति ने विश्वकोश बनाए, धर्मकोश बनाए, साहित्य संस्कृति मंडल के माध्यम से कई किताबें निकाली, उस व्यक्ति ने अपना लेखन बिखरा हुआ रखा है। उन्होंने भी अपने ऊपर अन्याय किया, अपनी उपेक्षा की और महाराष्ट्र ने भी कृतघ्नता दिखाई।
तर्कतीर्थ से पहले मैंने वि. स. खांडेकर साहित्य के संपादन का प्रोजेक्ट पूरा किया है। मैं देखता हूँ कि ऐसे बड़े लोग अपने लेखन के प्रति उदासीन होते हैं। आज हम वर्तमान को 'डाक्युमेंटेंशन एज' कहते हैं। उन दिनों इतनी प्रगल्भता नहीं थी कि हम अपनी कुंडली खुद बनाए, अपनी प्रोफाइल स्वयं बनाए, स्वयं ही अपनी जीवनी लिखे। आत्मकथा लेखन के लिए 'आत्मश्लाघा' शब्द है। यह वह समय था जब आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा बहुत ही निम्न स्तर की चीज़ मानी जाती थी। इसी कारण बुद्धिमान लोग अपने प्रति उदासीन थे। मैंने खांडेकर की 36 किताबों का संपादन किया। यह स्थिति जैसे उनकी अनिच्छा के कारण थी, वैसे ही उस समय उपलब्ध साधनों की कमी के कारण भी थी। उसके बाद कई ध्येयवादी समाचार पत्र और पत्रिकाएँ अल्प अवधि में, जिसे हम सामाजिक गर्भपात कहें, ऐसी अवस्था में बंद हुई। तर्कतीर्थ ने जिन- जिन समाचार पत्रों और साप्ताहिकों में लिखा- संग्राम, प्रमोद, चित्रा, युगांतर का आज एक भी अंक उपलब्ध नहीं है। हमारे पास सुरक्षा साक्षरता नहीं है; जो मैं अंग्रेज़ और फ़्रेंच लोगों में देखता हूँ।
प्रश्न: इस साक्षरता को हमारे यहाँ सबसे अधिक संरक्षित रखा महात्मा गाँधी ने। उन्होंने छोटे- मोटे चिटोरै, उसमें स्थित जानकारी, पत्र, सब कुछ संरक्षित रखा है। महात्मा गांधी का आदर्श उनके सामने था ही। महात्मा गांधी के सौ खंड हैं। पचास हजार पृष्ठ हैं। विश्व के किसी अन्य नेता के पास महात्मा गांधी के जितनी तस्वीरें नहीं हैं। तर्कतीर्थों की तो अपनी साधारण तस्वीरें तक उपलब्ध नहीं हैं।
हमारे यहाँ सुरक्षा साक्षरता नहीं है, यह एक हिस्सा है। दूसरा, तर्कतीर्थ के प्रतिभा की दहशत महाराष्ट्र ने हमेशा रखी है। मैं छोटे- छोटे उदाहरण बताता हूँ। नरहर कुरुंदकर, तर्कतीर्थ, आगरकर की समीक्षा बहुत कम लोगों ने की है। बुद्धिजिवी और बुद्धिवादी या बुद्धिप्रामाण्यवादी, विवेकवादी लोगों की पर्याप्त समीक्षा नहीं हुई है। अर्थात्, हमारे यहाँ उस समय और आज भी वैचारिकता का विरोध करने की प्रवृत्ति है। मुझे लगता है कि ‘ललित ही साहित्य है’ की धारणा से यह सांस्कृतिक व्यर्थता निर्माण हुई होगी।
प्रश्न: कुरुंदकर ने कहा है कि, 'यदि आप मेरी आलोचना करना चाहते हैं, मेरे साहित्य या विचारों की आलोचना करना चाहते हैं, तो आपको उन विषयों की गहराई में जाना होगा जिन पर मैंने लिखा है, भाषण किए हैं।' तो फिर आपका ऐसा कहना है कि तर्कतीर्थ के प्रति, उनके द्वारा उठाये गए विषयों के प्रति अधिक गहराई में जाने वाले लोग महाराष्ट्र में नहीं थे?
गहराई में न जाने का कारण पचास वर्ष पहले एक प्रकार से गहन व्यक्ति पूजा का समय था। वर्तमान में हम किसी की भी आलोचना करते हैं। उन दिनों प्रगल्भ व्यक्ति के प्रति सम्मान का एक तत्त्व था। उस झिझक के कारण, संस्कारों के कारण लोगों ने आलोचना नहीं की। कहीं- कहीं आलोचनाएँ हैं जो अत्यंत सामान्य स्तर की हैं। मैं नहीं देखता कि तर्कतीर्थ के हिस्से कठोर आलोचना आई है।
जब साहित्य संस्कृति मंडल और विश्वकोश मंडल की स्थापना हुई तब नागपुर में साहित्य संस्कृति मंडल के उद्घाटन भाषण में यशवंतराव चव्हाण साहब ने कहा कि, 'साहित्य और संस्कृति’ राजनेताओं की जागीर नहीं है। यह पूरी तरह से और विशेष रूप से साहित्यिक और विद्वानों का प्रांत है। राज्य सरकार इसके लिए साधन उपलब्ध कराएगी। गलती से भी इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी।' इस आजादी के कारण ही तर्कतीर्थ और उनके सहयोगी इस प्रकार की प्रस्तुति कर सके थे। आज इतने वर्षों बाद जब हम उस मंडल, उसके कार्य को देखते हैं तो उनमें क्या रेखांकित होता दिखाई देता है? एक बार फिर महाराष्ट्र को आज हस्तक्षेप मुक्त ज्ञान व्यवस्था की आवश्यकता है।
प्रश्न: समग्र साहित्य परियोजना का एक खंड 'तर्कतीर्थ की साहित्य समीक्षा’ पर है, इस पर हम उत्तरार्ध में बात करेंगे। लेकिन पूर्वार्ध के ये कुछ अंतिम प्रश्न हैं जिनमें तर्कतीर्थ द्वारा धर्मकोश, साहित्य संस्कृति मंडल और विश्वकोश के लिए गए कार्य की कौनसी विशेषताएं आपको महसूस हुईं?
तर्कतीर्थ के कोश वाडःमय का प्रारंभ प्राज्ञ पाठशाला में हुआ। वहां धर्म चिकित्सा के संदर्भ में विचार किया गया। उस दौरान पां. वा. काणे के धर्मशास्त्र पर अंग्रेजी और बाद में मराठी में दो खंड आए। धर्मशास्त्र में एक प्रमाण है कि, 'किसी भी धर्म का अध्ययन कालानुक्रम से किए बिना धर्म परिवर्तन का अध्ययन संभव नहीं है।' इसी कारण केवलानंद सरस्वती को लगा कि हमें धर्म को ‘व्यर्थ और 'स्वीकार्य' में विभाजित करना चाहिए। जो स्वीकार्य है और भविष्य में मार्गदर्शक बन सकता है उसकी कालानुक्रमिक रूप से व्यवस्थित प्रस्तुति संभव होनी चाहिए। धर्मकोश और कुछ न होकर वैदिक वांड:मय की वर्तमान के लिए उपयुक्त सामग्री का कालगत इतिहास है। तर्कतीर्थ के समय में लगभग बीस खंडों का निर्माण किया गया, उनमें से 'व्यवहार कांड' नामक खंड (इसके कुल तीन भाग हैं) में राज्यशास्त्र, रीतिशास्त्र, रूढ़िशास्त्र, परंपराशास्त्र के बारे में विस्तार से लिखा गया है। लोगों की धारणा थी कि यह हमारा प्राचीन गौरव है। वैदिक साहित्य यानी 'बीत गई, बात गई' नहीं है।
एक उदाहरण बताता हूँ। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई। उस समय तर्कतीर्थ महाड़ में उपस्थित थे। मनुस्मृति जलाने के बाद तर्कतीर्थ ने मनुस्मृति की राख को पुडिया में बांधकर लिया।
प्रश्न: यह संदर्भ किस खंड में है?
इसका उल्लेख पत्रसंग्रह खंड के 'मान्यवरांशी पत्रव्यवहार' खंड में मिलता है। कुछ दिनों बाद वे बाबासाहब आंबेडकर से मिलने मुंबई गए। यह पत्राचार में भी लिखा है। उन्होंने कहा, 'आपके मनुस्मृति जलने का मैं समर्थक हूँ। लेकिन यदि मनुस्मृति को पढ़कर और अध्ययन के उपरांत जलाई होती तो समझ सकता था। कोई भी धर्मग्रन्थ पूर्णतः निरर्थक एवं अनुपयोगी नहीं होता है। अभी मैं धर्मकोश का अध्ययन कर रहा हूँ। इसी कारण मैं आपको दावे के साथ बता सकता हूं कि कोई भी वांड:मय पूरी तरह से निरर्थक नहीं होता है। मैं यह राख लेकर आया हूं। आपके माथे पर लगाता हूँ।' डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर इतने उदार थे कि उन्होंने कहा, 'राख लगाये और मुझे समझाईए।' तर्कतीर्थ ने मनुस्मृति में क्या स्वीकार्य है और क्या अस्वीकार्य है बताया और उन्हें वह पसंद आया।
प्रश्न: धर्मशास्त्र या धर्मकोश के प्रति जिज्ञासा निर्माण होने या बढ़ाने के लिए आपके द्वारा बताया गया उदाहरण काफी है। अब हम विश्वकोश की ओर आते हैं। तर्कतीर्थ के कालखंड में 15 खंड हो चुके हैं। आपने उन पर नजर डाली है, इन 15 खंडों का काम कैसे हुआ है?
महाराष्ट्र राज्य की स्थापना 1960 में हुई। पहले ही दिन एक पत्रकार ने तत्कालीन मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण से कैबिनेट की संरचना को देखकर प्रश्न पूछा था कि, 'यह राज्य मराठों का है या मराठी का?' चव्हाण साहब ने एक पल की भी देरी किए बिना कहा, 'यह राज्य मराठी का है!' उसी दिन उन्होंने घोषणा की, 'यह राज्य सरकार मराठी के विकास के लिए एक स्वतंत्र भाषा निदेशालय शुरू करेगी। भविष्य में मराठी को ज्ञान भाषा बनाने का प्रयास करेगी। मराठों का इतिहास यानी शिवाजी महाराज का इतिहास, इतिहास के साधन एकत्रित कर विधिवत पद्धति से लिखने का काम महाराष्ट्र सरकार द्वारा किया जायेगा। ये तीनों काम उन्होंने पूरे किए हैं। उन्होंने 19 नवंबर, 1960 को 'महाराष्ट्र राज्य साहित्य आणि संस्कृति मंडल' की स्थापना कर उसकी जिम्मेदारी तर्कतीर्थ पर सौंप दी। तर्कतीर्थ ने 1960-62 में महाराष्ट्र की ज्ञानरचना का खाका तैयार किया। इस योजना में उन्होंने दो बातें बताई हैं।
यह अच्छी बात है कि अगर मराठी भाषा और साहित्य को समृद्ध करना है तो आज हम मराठी 'अभिजात' बनने पर जोर दे रहे हैं और उसका समर्थन कर रहे हैं। लेकिन मराठी अभिजात तब बनती है जब सभी ज्ञानभाषाओँ के प्रवाह मराठी में आते हैं। उस समय तर्कतीर्थ ने अंग्रेजी लिखने वाले पर मूल मराठी भाषी विद्वानों से कहा कि, 'यह अच्छी बात है कि आप अंग्रेजी में लिखते हैं। लेकिन आप मराठी मातृभाषी हैं, तो आप इसे मराठी में क्यों नहीं लिखते?' ऐसा कहकर तर्कतीर्थ ज्ञान विज्ञान के सभी शास्त्रों को मराठी में लेकर आए। आयुर्वेद, प्लास्टिक, सीमेंट, भौतिकी, संगीतशास्त्र जैसे कई विज्ञान, विश्व के क्लासिक्स और नोबेल प्राप्त ग्रंथों को मराठी में लाने का प्रयास किया। उनकी धारणा थी कि मराठी भाषा तभी अभिजात और समृद्ध होगी जब ज्ञान और विज्ञान की विभिन्न शाखाएँ मराठी में आएगी।
बाद में 1962 में उन्होंने मराठी विश्वकोश का संकल्प लिया। उनके सामने Encyclopedia of Britannica था। ब्रिटानिका के स्तर का मराठी विश्वकोश तैयार होना चाहिए। (साधना प्रकाशन ने ही मेरी किताब ‘मराठी भाषा आणि साहित्य’ प्रकाशित की है। उसके अध्ययन के उपरांत ही मैं आपको बता सकता हूँ कि आज भी मराठी में सभी भाषाओँ के प्रवाह नहीं आए हैं। सभी भाषाओं की सर्वोत्तम रचनाएँ नहीं आई हैं।) तर्कतीर्थ ने उस समय देखा कि मराठी में संज्ञापन शाखा विकसित होनी चाहिए। यानी हर चीज़ को परिभाषित किया जाना चाहिए और उन परिभाषाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। इसलिए उन्होंने गहरा अध्ययन कर लिखा है कि विश्वकोश में ज्ञान की किस शाखा को कितने पृष्ठ दिये जाने चाहिए। ब्रिटानिका में उल्लेख तक न रहने वाले कई शास्त्र मराठी विश्वकोश में नजर आते हैं। उसके बाद उन्होंने देखा कि ज्ञान-विज्ञान की शाखा प्रौद्योगिकी तक आनी चाहिए। मेरे अनुसार मराठी विश्वकोश वेद से वेब (Web) तक की प्रस्तुति करता है।
मैं बता रहा था कि हम ज्ञान के प्रति कितने उदासीन दृष्टि से देखते हैं। तर्कतीर्थ ने पदनाम कोश की रचना की। तत्कालीन समय के प्रमुख मराठी नेता आचार्य प्र. के. अत्रे ने एक साहित्य सम्मेलन में बताया कि, 'यह पदनाम कोष न होकर बदनाम कोष है।’ तर्कतीर्थ ने वहीँ पर उसका उत्तर दिया। उन दिनों वाद- विवाद हुआ करते थे पर वितंडवाद नहीं होते थे। आज हम वितंड की ओर गए हैं। वेदांत में वर्णित विचार शैलियों में वितंड एक विवाद की शैली है। मत-मतान्तरों को अपनाकर 'वादे-वादे जायते तत्त्वबोध' की परम्परा को तर्कतीर्थ द्वारा विश्वकोश के माध्यम से विकसित की हुई नजर आती है।
प्रश्न: हमने धर्मकोश के बारे में बात की। तर्कतीर्थ के जीवनकाल में विश्वकोश के 15 खंडों का संपादन किया गया..
इसके अलावा 'मीमांसा कोश' के 7 खंड हैं। इसका संपादन उनके गुरु स्वामी केवलानंद सरस्वती ने शुरू किया था, लेकिन इसकी निर्मिती तर्कतीर्थ ने की है। बुनियादी ज्ञानशाखा का विकास, मराठी भाषा और साहित्य को ज्ञान के माध्यम के रूप में विकसित करने की नींव जिसने रखी है, वे तर्कतीर्थ ही हैं। श्री. व्य. केतकर, वि. का. राजवाडे द्वारा इसकी नींव डालने की बात मैं मानता हूँ पर उसका विकास मात्र तर्कतीर्थ ने ही किया है।
प्रश्न: ज्ञान की सुरक्षा हो या विकास, उसके लिए कोष वाडःमय बुनियादी माना जाता है। जब यह सब चल रहा था उसी दरमियान बीस वर्षों तक तर्कतीर्थ साहित्य संस्कृति मंडल के अध्यक्ष रहे। (1960-80) इस अवधि में लगभग 200 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इन पुस्तकों के विषय, उनके लेखक, उनके अनुवाद, तर्कतीर्थ द्वारा लिखी गई उनकी प्रस्तावनाओं और उनकी गुणवत्ता को देखें, तो इनमें उनका योगदान स्पष्ट झलकता है। आपने उनके बीस साल के कार्यकाल का जो अध्ययन किया है उसका स्वरुप क्या है और उससे क्या समझ मिली?
इसका श्रेय केवल तर्कतीर्थ को देना उचित नहीं होगा। उनके कुछ समकालीन सहकारी थे। तर्कतीर्थ ने ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के लिए समितियाँ नियुक्त की थी। उदाहरण के लिए फ्रेंच साहित्य के लिए उन्होंने फ्रेंच भाषा के विशेषज्ञों को एकत्रित किया। उनसे कहा गया कि, 'फ्रेंच में जो सर्वश्रेष्ठ है उसे हम मराठी में लाएंगे।' अंग्रेजी विशेषज्ञों से कहा गया, 'अंग्रेजी में जो सर्वश्रेष्ठ है उसे मराठी में लाओ।' इंजीनियरिंग के विशेषज्ञों से भी यही कहा गया। विश्वकोश लिखने से पहले तर्कतीर्थ द्वारा प्रविष्टि शास्त्र (नोंद) विकसित किया गया था। मेरी दृष्टि से 'विश्वकोश परिचय' 'स्टायलिस्टिक' पर लिखी गई पहली किताब है। उससे पहले हमने 'स्टायलिस्टिक' दृष्टि से विचार नहीं किया था। वैज्ञानिक पद्धति से नामकरण तथा विषय की वैज्ञानिक प्रस्तुति के प्रति वे बहुत सख्त थे। इसका प्रमाण एक शब्द है- आबरा का डबरा। पांच सौ शब्दों में इसकी नोंद लिखी जाए। इंजीनियरिंग विज्ञान की प्रस्तुति कम से कम तीन सौ पृष्ठों में की जाए।' इसका मतलब यह है कि तर्कतीर्थ ने विषय की व्याप्ति को ध्यान में रखते हुए पृष्ठों की रचना की है। मेरी दृष्टि में यह ज्ञान व्यवस्था का कार्य है। अंग्रेजी के 'ब्लू प्रिंट' शब्द के लिए रा. ग. जाधव मराठी में ‘रचनाकल्प’ शब्द लेकर आए। तर्कतीर्थ ने महाराष्ट्र को कई मराठी शब्द दिए। यदि आप पूछते हैं कि 'विश्वकोश ने महाराष्ट्र को क्या उपहार दिया है', तो मेरी धारणा है कि 'मराठी को प्रांतीय भाषाओँ में समृद्धि विश्वकोश और विश्वकोश के सहकारियों ने दी है।'
प्रश्न: साहित्य संस्कृति मंडल के काम पर नजर डालें तो सही सहयोगियों का चयन, उनके लिए एक ढांचा तैयार करना, उन्हें लगातार प्रेरित करना, अच्छे समन्वय के बिना संभव नहीं है। उनका यह कार्य बहुत महत्वपूर्ण है।
हमें इसमें एक और चीज़ जोड़नी होगी। जब साहित्य संस्कृति मंडल और विश्वकोश की स्थापना हुई तब नागपुर में साहित्य संस्कृति मंडल के उद्घाटन भाषण में यशवंतराव चव्हाण साहब ने कहा कि, 'साहित्य और संस्कृति राजनेताओं की जागीर नहीं है। यह केवल और केवल साहित्यकारों और विद्वानों का प्रांत है। राज्य सरकार इसके लिए साधन उपलब्ध कराएगी। लेकिन गलती से भी इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी।' इस आजादी के कारण तर्कतीर्थ और उनके सहयोगी इस प्रकार की प्रस्तुति कर सके।
आज इतने वर्षों बाद जब हम उस मंडल, उसके कार्य को देखते हैं तो उससे हमें क्या रेखांकित होता हुआ दिखाई देता है? आज महाराष्ट्र को एक बार फिर हस्तक्षेप मुक्त ज्ञान प्रणाली की आवश्यकता है।
प्रश्न :यशवंतराव चव्हाण तर्कतीर्थ पर विश्वास करते थे। ये दोनों रॉयवादी थे। मित्र थे। यह वास्तव है कि यशवंतराव का व्यक्तित्व अध्ययनशील, सुसंस्कृत था और उनके प्रबल समर्थन के कारण ही तर्कतीर्थ काम कर सके।
'लीडर मस्ट बी ए गुड रीडर’ या 'लीडर ऑफ़ रीडिंग कपॅसिटी’ वाल सूत्र यशवंतराव चव्हाण साहब हैं। उनकी आधिकारिक विदेश यात्राओं के दौरान पुस्तकालय के लिए तीन घंटों का समय दिया जाता था। वे पुस्तकालयों में किताबें खरीदते और पढ़ते थे। मराठी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर वे उस पुस्तक के पहले पाठक रहते थे। मैं उनका एक उदाहरण बताता हूँ। जब रणजीत देसाई को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो वह पुरस्कार लेने से पहले चव्हाण साहब से मिलने गये। साहब ने साहित्य पुरस्कृत रचना निकालकर उनके हाथ में सौंप दी। उसे रेखांकित किया गया था। तब रणजीत देसाई ने कहा, 'जिस देश और प्रांत को ऐसा विद्वान मुख्यमंत्री, विदेश मंत्री, वित्त मंत्री मिलता है, वह देश वास्तव में समृद्ध देश है!'
प्रश्न: मैंने पहले एक संदर्भ पढ़ा था, क्या वह इस खंड में है या आपको वह मिला या वह सच है? 1960 के दशक में यशवंतराव ने तर्कतीर्थ के सामने प्रस्ताव रखा कि, 'या तो आप राज्यसभा में आए या विश्वकोश एवं साहित्य संस्कृति मण्डल का काम संभाल लें।' उन्होंने राज्यसभा के बजाय यह कार्य संभाला। यह संदर्भ सही है?
सही है। दरअसल उनके पास एक विकल्प था, आप राज्यसभा जाएंगे या महाराष्ट्र में रहेंगे? उन्होंने कहा, 'मैं दिल्ली जाकर क्या करूं? मेरा रिश्ता मराठी से है।' उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल होने का ऑफर दिया था।
प्रश्न: वह राज्यपाल हो सकते थे, शायद राष्ट्रपति भी?
नेहरू तथा यशवंतराव के कार्यकाल में साहित्य अकादमी के प्रथम सचिव 'प्रभाकर माचवे' थे। उन्हें नेहरू जी ने तर्कतीर्थ की तरह ही चुना है। नेहरू चाहते थे कि नोबेल अकादमी की तर्ज पर साहित्य अकादमी की स्थापना की जाए। इसलिए वे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो सभी भारतीय भाषाएँ जानता हो। कई लोगों ने उनसे कहा कि, 'आजकल एक- दो व्यक्ति ही हैं जो सभी भारतीय भाषाएँ जानते हैं।' ऐसी उच्चार और अभिव्यक्ति क्षमता विनोबा के पास है। लेकिन साहित्य और समीक्षा की क्षमता एक ही व्यक्ति के पास है- प्रभाकर माचवे। नेहरू जी ने उनसे बिनती की, 'मैं एक ऐसी संस्था की स्थापना करना चाहता हूं, क्या आप उसके सचिव बनेंगे?' तो उन्होंने कहा, 'यह मेरे लिए सम्मान की बात है। मैं जीवन भर यही कार्य करता रहूंगा।' और जीवन भर उन्होंने भारतीय भाषाओं के समन्वय के लिए काम किया। आज आपको साहित्य अकादमी की साख, साहित्य संस्कृति मंडल की पवित्रता और जो मौलिक कार्य नजर आता है वह तत्कालीन अध्यक्ष और सचिव ने किया है। सेतु माधवराव पगड़ी कभी साहित्य संस्कृति मंडल के सचिव रहे हैं। ऐसी महान हस्तियों ने इस संस्थाओं में योगदान दिया है।
प्रश्न: नेहरू जी का पूरा कार्यकाल और अगले कुछ वर्ष यानी 1960 से 1980 में अगर तर्कतीर्थ विश्वकोश, वाई को अपना कार्यक्षेत्र तय किए बिना राज्यसभा में जाने का फैसला करते तो? उस समय सर्वपल्ली राधाकृष्णन से लेकर ज़ाकिर हुसैन तक के विद्वानों को देखते हुए- यदि तर्कतीर्थ ने राज्यसभा को अपनाया होता तो शायद जल्दी ही मंत्रिमंडल, राज्यपाल, उपराष्ट्रपति, शायद राष्ट्रपति के रास्ते उनकी यात्रा हो सकती थी.....
हां, राजेंद्र प्रसाद और तर्कतीर्थ का करीबी रिश्ता था। उनके महात्मा गांधी के साथ इतने घनिष्ठ संबंध थे कि उन्होंने महात्मा गांधी के बेटे की शादी में पौरोहित्य का कार्य किया था। इसके बावजूद यह आदमी राजनीति को एक साधन के रूप में नहीं देखता है। वे राजनीति को बदलाव का जरिया मानते हैं। एक बात हमें दुरुस्त करनी होगी कि तर्कतीर्थ ने ज्ञान का क्षेत्र चुना; लेकिन उन्होंने राजनीति से संन्यास नहीं लिया। समय-समय पर हर मुद्दे पर उन्होंने राजनीतिक विचार व्यक्त किए हैं।
इसका मतलब है 'Let us come to be differ.’तत्कालीन राजनेताओं में स्थित ‘मतभेदों के साथ एकत्रित आकर काम करने’ की वैचारिक प्रगल्भता को आज पुनर्जीवित करने की जरूरत है।
प्रश्न: अंतिम प्रश्न के उत्तर से एक प्रोव्होकेटीव्ह मुद्दा सामने आ सकता है कि, महाराष्ट्र के ऐसे लोग जो राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति नहीं बने उनमें तर्कतीर्थ का नाम होने से किसी को आश्चर्य होने का कोई कारण नहीं है। शुरुआती दिनों में केवलानंद सरस्वती उनके गुरु थे। इसके पश्चात वे एक ओर मार्क्स से, दूसरी ओर गांधी से और बाद के समय में रॉय से प्रभावित हुए। इन चार व्यक्तियों का प्रभाव और उनके अपने व्यक्तित्व से साकार हुए लक्ष्मण शास्त्री जोशी अब आपको कैसे दिखते हैं?
मुझे लगता है कि तर्कतीर्थ के सहाध्यायी जैसे विनोबा थे वैसे ही श्री. शं. नवरे भी थे। नवरे ने कई समाचार पत्रों का संपादन भी किया और कई वर्षों तक मुंबई के श्रद्धानंद महिलाश्रम के सचिव भी रहे। उस समय के सभी विद्वान लोग कर्मशील थे। इन सभी के चरित्र का अध्ययन करते समय आपको यह अहसास होगा कि उस समय का कोई भी उपदेशक मात्र बातूनी नहीं था, कृतिवीर था। मैं स्वयं तर्कतीर्थ के बारे में सोचता हूँ कि वे यदा-कदा रॉयवादी, वेदांतवादी, गांधीवादी, कांग्रेसी, मार्क्सवादी थे; लेकिन हर समय आजाद थे। अर्थात् उनका मार्क्सवाद से मतभेद था। गांधीवाद से मतभेद थे। वे अपने मतभेदों को खुलकर व्यक्त करते थे। इसलिए कुछ समय पहले मैंने कहा कि, 'Let us come together to be a differ’ मतभेदों के साथ एक-दूसरे का स्वीकार करना और एक-दूसरे की राय का सम्मान करते हुए नए उदारवादी विचारों की ओर बढ़ना ही तर्कतीर्थ के विचारों का असली प्रवाह है।
प्रश्न: उन्होंने अपना वर्णन 'परिवर्तनवादी विद्वान' के रूप में किया है जो आपके खंड में दिखाई देता है। चूंकि यह आपके साक्षात्कार का पूर्वार्ध है, इसमें मुझे आखिरी सवाल पूछना है कि पांच साल तक आपने तर्कतीर्थ के वाडःमय में कई डुबकियां लगाई हैं। कई बार आप चौंक गए होंगे, स्तब्ध रह गए होंगे। तो पाँच साल पहले के सुनीलकुमार लवटे, जो सत्तर साल के थे और पचहत्तर साल के सुनीलकुमार लवटे के बीच कोई बदलाव आया है?
इस परियोजना के एक खंड की प्रस्तावना का शीर्षक है, 'भयचकित नमावे तुजला...' मैं महत्वहीन हो गया, मुझे मेरी अज्ञानता का एहसास हुआ। तर्कतीर्थ ने ही एक लेख में लिखा है, 'हम ज्ञानसत्तावादी, ज्ञानतपस्वी आदि कहते हैं, जो सही नहीं है। मूलतः जिसे आप ज्ञान समाज और ज्ञान साम्राज्य कहते हैं, वह वास्तविक ज्ञान साम्राज्य का एक शतांश हिस्सा भी नहीं है।' इसके लिए उन्होंने प्रमाण दिया है, 'मैंने दुनिया की सारे कोष पढ़े हैं। इसे पढ़ते समय एक कोष मेरे हाथ आया और मेरा सारा अहंकार दूर हो गया। उस कोष का नाम था Encyclopedia of ignorance- अज्ञात का विश्वकोश। इस कोष में दुनिया भर के पचास वैज्ञानिकों ने पचास विषयों पर लेख लिखे हैं। अपनी- अपनी ज्ञान शाखाओं में आदमी कौनसी बातों से अनजान है इसकी सूची दी गयी है। उदाहरण के लिए, इसमें नींद पर एक निबंध है। और कहा गया है कि मनोविज्ञान अब तक नींद का समाधान नहीं ढूंढ पाया है। आगे लिखा है, 'मनुष्य ज्ञान का अहंकार रखता है, वह सारा अहंकार उसकी अज्ञानता से उत्पन्न होता है। उसे दूर करना है तो अज्ञान का साम्राज्य उजागर होना ही चाहिए।' मेरा यह प्रयास एक अज्ञानी साम्राज्य पर प्रकाश डालने का छोटा सा प्रयास है।'
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सुनीलकुमार लवटे जी के दीर्घ साक्षात्कार का यह पूर्वार्ध है। इसमें तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी कौन थे और उनके समग्र साहित्य का संपादन करते समय किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्या बोध मिला, किसकी खोज की इसके प्रति बिलकुल हिमखंड के नोक के जितना ही हम जान पाए हैं। वास्तव में इन अठारह खंडों में क्या निहित है यह उत्तरार्ध में देख पाएंगे .......
- सुनीलकुमार लवटे, कोल्हापुर
drsklawate@gmail.com
MOb. 9881250093
संवादक: विनोद शिरसाठ
अनुवाद: डॉ. प्रकाश कांबळे
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इस साक्षात्कार को मराठी में यहाँ पढें - तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी होते तरी कोण?
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