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प्रश्न : समग्र तर्कतीर्थ के अठारह-खंडों की परियोजना के पहले खंड में तर्कतीर्थ द्वारा विश्वकोश में की गयी प्रविष्टियाँ शामिल हैं। यह संभव है कि कई लोग सोचते होंगे कि ये डेढ़ सौ से अधिक प्रविष्टियाँ अपठनीय और दुर्बोध रही होंगी; आपको उन प्रविष्टियों में कौन सी विशेषताएँ महसूस हुई हैं?
तर्कतीर्थ ने प्रविष्टियों के अनुशासन को अपनाया है। यानी शुरुआती दौर में वे प्रविष्टियों का संज्ञापन करते हैं। उदाहरणार्थ अंत्ययात्रा। वे अंत्ययात्रा को इस प्रकार से स्पष्ट करते हैं कि आम आदमी भी उसे आसानी से समझ सके। इसके पश्चात अंत्ययात्रा की परंपरा कब से शुरू हुई यहाँ से लेकर वर्तमान में अंत्ययात्रा कैसे निकाली जाती है, इसे स्पष्ट करते हैं। आम आदमी को पता होगा कि अंतयात्रा किसे कहते हैं। मैं इसे एक उदाहरण के रूप में बता रहा हूँ। यह विस्तार उस नोंद में नहीं है लेकिन तर्कतीर्थ के subconscious में है। पहले जब अंत्ययात्रा निकलती थी तब उसमें ‘राम नाम सत्य है’ का घोष चलता था। लेकिन गाँधी की मृत्यु के पश्चात 'राम नाम सत्य है' का घोष बंद होकर 'रघुपति राघव राजाराम' का घोष शुरू हो गया।
उनकी प्रविष्टियों में समय का भान रखने की आदत और शैली दिखाई देती है। ये प्रविष्टियां उस विषय की पृष्ठभूमि बताती हैं, इतिहास बताती हैं और वर्तमान का स्वरूप भी बताती हैं। इसलिए मेरा मानना है कि वे सर्वकालिक हैं। भाषा की बात करें तो उनके वाक्य बहुत सरल हैं। उन्होंने रचनाशात्र में, परिचय ग्रंथ में लिखा है, 'यह कोष सभी विषयों को एक साथ संग्रहित करने वाला कोष है।' सभी विषयों के संग्राहक कोष की विशेषता यह है कि उसके पाठक सभी स्तर के होते हैं। यह साधारण वाचक भी होता है, अज्ञ और सज्ञानी भी होता है। तो वह प्रविष्टि अज्ञानियों को ज्ञान देने वाली और ज्ञानियों को प्रगल्भ करने वाली होनी चाहिए। इस प्रकार से मेल बिठाकर उन्होंने सभी प्रविष्टियाँ लिखी हुई नजर आती है।
प्रश्न : तर्कतीर्थ द्वारा लिखी गई 159 प्रविष्टियाँ विश्वकोश के विभिन्न खंडों में बिखरी हुई हैं। लेकिन समग्र तर्कतीर्थ की इस परियोजना के पहले खंड में इन्हें संकलित किया है। इससे किसी भी जिज्ञासु पाठक को अब यह अच्छी सुविधा मिली है।
न केवल एकत्रित की हैं बल्कि वर्णानुक्रम से दी है। यह भी विश्वकोश या ज्ञान कोष का अनुशासन है। हम जब शब्दकोश देखते हैं तो उसमें (A) पहले और (Z) अंत में आता है। आपके मन में स्थित शब्द के सटीक क्रम का अंदाज़ा आ जाता है। इसका मतलब यह है कि अ को अंत में नहीं देखना चाहिए और क्ष को पहले नहीं देखना चाहिए का शास्त्र ज्ञान भी विश्वकोश ही देता है।
प्रश्न : यह पहला खंड है, जिसमें विश्वकोश की प्रविष्टियाँ है। दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें खण्ड में भाषण संकलित हैं। दूसरे खंड में लक्ष्मण शास्त्री जोशी के 'व्यक्ति और विचार' विषय पर दिए गए भाषण हैं। तीसरे खंड में 'धर्म' से संबंधित भाषण हैं। चौथे खंड में 'साहित्य' से संबंधित और पांचवें खंड में 'संस्कृति' पर भाषण हैं। आपने यह विभाजन सुविधा के अनुसार किया है। कुछ भाषण दो- तीन भाषणों का संगम कह सकते हैं। अत: ये चारों खंड तर्कतीर्थ द्वारा महाराष्ट्र तथा विदेशों में दिये गये भाषणों का संकलन हैं। उनके हजारों भाषण हैं, उनमें से दो सौ भाषण इस खंड में हैं। क्या आपने इन भाषणों में नजर आने वाले तर्कतीर्थ आपसे संवाद करते हैं, उनकी आवाज आपको सुनाई देती है, ऐसा कुछ महसूस किया है?
यह अनुभव अवश्य आता है। वि. स. खांडेकर और तर्कतीर्थ महाराष्ट्र के दो ऐसे सांस्कृतिक वक्ता हैं, जो बोलते समय समाज के हर वर्ग के लोगों को अपने साथ ले जाते हैं। मैंने खांडेकर के कई भाषण पढ़े हैं। 'यह मैं तुमसे बताता हूं' कहकर वे श्रोता को अपने में समाहित कर लेते हैं। तर्कतीर्थ बोलते समय श्रोताओं में जिज्ञासा पैदा करते है। इस अर्थ में तर्कतीर्थ का कोई भी भाषण सामान्य भाषण नहीं होता था। जिसे हम प्रेषितों के प्रवचन कहते हैं, उसी अर्थ में उनका बोलना होता है। तर्कतीर्थ की वाणी के बारे में कई लोगों ने लिखा है कि उनके कई भाषण सुनने पर भी उनकी ज्ञान पिपासा कभी ख़त्म नहीं होती है। जब वह एक ही विषय पर कई भाषण देते हैं तो प्रत्येक भाषण स्वतंत्र होता है। पहले भाषण का दूसरे भाषण पर कोई प्रभाव नहीं रहता है। उनमें सभी विषयों को समझने की अद्भुत शक्ति थी। उन्होंने इसे अपने वाचन और चिंतन के माध्यम से विकसित किया था। वे प्राच्यविद्या में जितने विद्वान थे उतने ही अंग्रेजी के भी विद्वान् थे। उन्होंने आधुनिक युग की सभी ज्ञान- विज्ञान की शाखाओं और वादों का अध्ययन किया था। इसी कारण उनके भाषणों में कभी भी भारतीय विद्याओं का ही विवेचन नहीं आया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनका कोई भी भाषण प्राचीन, आधुनिक और समकालीन की समीक्षा के बिना पूरा नहीं होता है।
तर्कतीर्थ का मानना था कि जब आप कोई पुराणी कहानी बताते हैं तो उसका तब तक कोई मतलब नहीं होता जब तक कि वह वर्तमान से संबंधित न हो। नहीं तो वह कीर्तन बन जाता है। यह कीर्तन नहीं प्रवचन बनना चाहिए। प्रवचन शिक्षाप्रद होना चाहिए। प्रबोधन से सुनने वाला श्रोतावर्ग प्रगल्भ होना चाहिए। इस प्रकार की रचना बनाकर वे भाषण देते थे। इसी कारण उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग दो हजार भाषण देने की नोंद मेरे पास है। उसमें से मात्र दो सौ भाषण ही इन चार खंडों में दे पाया हूँ। क्योंकि भाषणों की उतनी ही प्रामाणिक संहिताएँ मेरे हाथ लगी। इन भाषणों को संकलित करते समय मैंने स्वयं को अनुशासित किया कि केवल वही भाषण लिये जाएंगे जिनकी लिखित संहिता उपलब्ध है। जो भाषण आधे- अधूरे या संक्षिप्त हैं उन्हें नहीं लिया जायेगा। बेशक, उनका एक अलग संग्रह किया चाहिए। मुझे आश्चर्य होता है कि तर्कतीर्थ पान के ठेले के उद्घाटन में भी जाते हैं और पान के बीड़े पर बोलते हैं। प्राच्यविद्या में जाते हैं और वहां केवल संस्कृत पर ही नहीं बोलते बल्कि दुनिया में प्राच्यविद्या क्या है, स्पेनिश, ग्रीक में क्या है इस पर बात करते हैं। ग्रीक और भारतीय मिथक को समझाते हैं। इसी कारण उनका प्रत्येक भाषण सुनने योग्य और विचारोत्तेजक बनता था।
हमने भाषणों को चार खंडों में विभाजित किया है। पहला खंड विचार और दर्शन के बारे में है, जिसे आगे दो भागों में विभाजित किया गया है- स्वतंत्रता-पूर्व भाषण और स्वातंत्र्योत्तर भाषण। इस विभाजन का कारण यह है कि उनकी आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद की समझ में जमीन- आसमान का अंतर है। आजादी के पहले के भाषणों में उनके मन में रुढ़िवादी विचारों का द्वंद्व नजर आता है। स्वतंत्रता के बाद के सभी भाषण फ्रांस में घटित पुनर्जागरण(Renaissance) की छाया से प्रभावित नजर आते हैं; जिससे इन भाषणों में विश्वव्यापकता नजर आती है। धर्म पर उनके कुछ भाषण हैं। जैसे- हिंदूधर्म समीक्षा, सर्वधर्म समीक्षा, सिख पंथ आणि इतिहास इत्यादि। इन्हें पढ़ते समय ध्यान में आएगा कि वे मार्क्सवाद के माध्यम से हिंदू धर्म की आलोचना, सर्वधर्म समीक्षा में सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन, सिख धर्म न होकर संप्रदाय है जैसी प्रस्तुति करते हैं। कोई भी प्रस्तुति करते समय प्रमाणों के साथ विवेचन करना उनके भाषणों की विशेषता रही है। उनके साहित्यिक भाषण मुख्यतः साहित्यिक गोष्ठियों के हैं। इन्हें पढ़ते समय ध्यान में आएगा कि साहित्य सिर्फ ललित नहीं, गैर-ललित साहित्य का भी एक अलग आयाम है जिसकी समाज को बहुत जरूरत है। वे इस धारणा से लिखते थे कि वैचारिक समृद्धि के बिना समाज उन्नत नहीं हो सकता। मैं आपको एक उदाहरण बताता हूँ।
1954 में तर्कतीर्थ साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने तब कुछ लोगों ने प्रश्न खड़ा किया कि, ‘तर्कतीर्थ ने उपन्यास, कहानियाँ, कविताएँ कहाँ लिखी हैं?' उनके मित्र प्रो. गोवर्धन पारिख ने इसका बहुत सुन्दर उत्तर दिया है। इस प्रकार के प्रश्न पूछने वाले इस ग़लतफ़हमी से दूर रहें कि केवल ललित ही साहित्य नहीं है। वास्तव में साहित्य का उच्च स्तर वैचारिकी में होता है।' तर्कतीर्थ द्वारा ललित साहित्य न लिखने पर आपत्ति जताने वालों को उन्होंने समझाया कि ललित साहित्य का आग्रह, अभिमान सृजनात्मकता का सामान्यीकरण (Mediocrity) है। इसलिए तर्कतीर्थ ने उस काल में ‘नवभारत’ पत्रिका चलाई। इस पत्रिका की विशेषता यह थी कि तर्कतीर्थ से पहले उसमें कहानियाँ और कविताएँ हुआ करती थीं, लेकिन तर्कतीर्थ ने उसे पूर्णतः वैचारिक बना लिया। उनके भाषणों को पढ़ते हुए मुझे यह अहसास होता है कि विचार-व्यवहार की प्रतिबद्धता तर्कतीर्थ की समस्त साहित्यिक साधना का सूत्र था।
प्रश्न : जैसा अभी आपने उल्लेख किया, उनके भाषण पान टपरी के उद्घाटन के भी हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मेलनों के भी हैं। साहित्य सम्मेलनों के भी है और धार्मिक परिषदों के भी। कुछ भाषण बहुत छोटे यानी दो, तीन, चार परिच्छेदों के और कुछ तो 55 से 60 पन्नों के हैं। इनमें इतनी विविधता है। इसी प्रकार की विविधता इस परियोजना के छठे खंड में है। इस खंड में विभिन्न अवसरों पर समाचार पत्र, टीवी पर दिए गए साक्षात्कार हैं। अभी भाषणों से हम साक्षात्कार खंड की ओर आए हैं। इन साक्षात्कारों की विविधता और उनकी विशेषताएं क्या हैं?
साक्षात्कारों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे समकालीन मद्दों पर टिप्पणी करते हैं। तर्कतीर्थ हमेशा अपने समय के साथ चले। मुझे हमेशा लगता है कि जिन्हें हम सोशल लीडर कहते हैं या थॉट लीडर/ थॉट प्रोसेसर कहते हैं या समाज के वैचारिक सैनिक कहते हैं ऐसे सभी लोगों को यह समझना चाहिए कि अपने विचार व्यक्त करते समय उनमें समाज के सभी मद्दों पर टिप्पणी करने की क्षमता होनी चाहिए। लोग ऐसा कहेंगे कि कोई भी सर्वज्ञ नहीं है। हालांकि सर्वज्ञ न होने पर भी सर्वस्पर्शी हो सकता है, इसकी प्रतीति तर्कतीर्थ के साक्षात्कार देते हैं। कई बार उनके साक्षात्कार विवादास्पद रहे हैं, खासकर मंडल कमीशन पर दिया गया उनका साक्षात्कार। दैनिक सकाळ (मराठी समाचार पत्र) में प्रकाशित यह साक्षात्कार इतना विवादास्पद रहा था कि नरेंद्र दाभोलकर ने वाई में उनकी प्रेतयात्रा निकाली थी। तर्कतीर्थ पर, उनके वक्तव्यों पर कई बार वाई में बहिष्कार का हथियार उठाया गया। किसी की भी परवाह न करते हुए अपनी अंतरात्मा की आवाज पर कायम रहते हुए, यहां तक कि अकेलेपन को सहते हुए तर्कतीर्थ ने अपनी विचारों की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा है। उनके साक्षात्कार वैचारिक स्वतंत्रता का ज्वलंत उदाहरण हैं।
प्रश्न : उनके साक्षात्कार विभिन्न प्रकार के हैं। अलग-अलग कारणों से दिए गए हैं। लेकिन प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों में, विशेष रूप से साक्षात्कार के उत्तर देते समय सेन्स ऑफ़ ह्यूमर, तत्परता और हाजिरजवाबी प्रवृत्ति जैसी कुछ विशेषताएं नजर आई?
हाल ही के दिनों में आप टीवी पर आप कॉफी विथ करण नामक साक्षात्कार का कार्यक्रम देखते होंगे। उसमें रैपिड फायर प्रश्न होते हैं। वस्तुनिष्ठ प्रश्न और वस्तुनिष्ठ उत्तर। उदाहरण- क्या आप भगवान को मानते हैं? नहीं। ऐसे स्वच्छ/ स्पष्ट विचारों का आधार तर्कतीर्थ ने अपने साक्षात्कारों से स्पष्ट किया है। उनमें किसी की भी परवाह किए बिना उत्तर देने का दृढ़ विश्वास (courage of conviction)था। मुझे लगता है कि अपने विचारों के प्रति ईमानदार रहना बुद्धिमान व्यक्ति की लिटमस टेस्ट है। परवाह और परिणामों का विचार किए बिना तर्कतीर्थ साक्षात्कार देते रहें। इसी कारण ऐसा कभी नहीं हुआ कि महाराष्ट्र ने उनके साक्षात्कार पढ़े और छोड़ दिए।
दूसरी ओर उनके साक्षात्कारों के प्रतिसाक्षात्कार हुए हैं। यानी उनके साक्षात्कारों पर वाद- विवाद संपन्न हुए हैं। एक बिलकुल ही साधारण सी बात बता दूँ, तर्कतीर्थ ने विश्वकोश का परिचय ग्रंथ प्रकाशित किया। उस परिचय ग्रंथ पर महाराष्ट्र में तीन महीने तक बहस चली। तर्कतीर्थ इतने उदारवादी थे कि उन्होंने आलोचकों की आलोचनाएँ भी छापीं और अपने उत्तर भी। 'केसरी' पत्र का एक साक्षात्कार तो खुलासा देने वाले उत्तरों के साथ छापा था। केसरी ने उसे संक्षिप्त करके छाप दिया। तर्कतीर्थ ने नवभारत में मूल को पुनः प्रकाशित किया और नीचे लिखा, ' इसमें रेखांकित पंक्तियाँ केसरी के संपादकों द्वारा हटा दी गईं थी।' विचार के प्रति यह प्रतिबद्धता तर्कतीर्थ द्वारा अपने ज्ञान व्यवहार में संरक्षित है। इसलिए इस साक्षात्कार का महत्त्व असाधारण है।
मैं देखता हूँ कि आज- कल के साक्षात्कार बहुत सतही नजर आते हैं। चाहे वे राजनीतिक हो, सामाजिक या साहित्यिक। मेरा मानना है कि हर किसी को अपने विचार विशेषताओं को स्वीकार कर समाज के लिए confrontation करने का साहस दिखाना चाहिए। जब तक हम विचारों के प्रति प्रतिबद्ध नहीं रहेंगे, समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा।
प्रश्न : इस समग्र वाड:मय परियोजना के अगले तीन खंड- सात, आठ और नौ लेखसंग्रह हैं। इन्हें भी आपने तीन भागों में विभाजित किया है। सातवां खंड राजनीतिक और दार्शनिक, आठवां सांस्कृतिक और खंड नौवां संकीर्ण है। इन सभी लेखों में आशय के साथ-साथ विषय और प्रस्तुति की विविधता है। लेख छोटे भी हैं और बहुत बड़े भी हैं। इन तीन खंडों से उनके लेखों का दायरा पता चलता है। इसके पहले हमने चर्चा की है, यह लेखन प्रविष्टियाँ, भाषण और साक्षात्कारों से अलग है। आप इस संग्रह के बारे में क्या बताएँगे?
तर्कतीर्थ द्वारा लिखे गए लेख दार्शनिक, सांस्कृतिक, चरित्रात्मक और ऐतिहासिक हैं। इससे पता चलता है कि एकाध व्यक्ति समाज के प्रति कितनी व्यापक और उदार होती है। इन लेखों में पचास व्यक्तिलेख हैं। ये लोग उनके विचारों के नहीं थे, इनकी पहचान नहीं थी। उन्होंने गांधी, नेहरू, स्टालिन, मार्क्स, सावरकर, यशवंतराव चव्हाण, मारुतराव कन्नमवार, प्र.के. अत्रे, पु. ल. देशपांडे, सेनापति बापट, योगी अरविंद और मानवेंद्र रॉय के बारे में भी लिखा है। मेरी दृष्टि से वैचारिक अछूता को न अपनाते हुए सभी को अपना मानना और उनके प्रति सहभाव से लिखना वैचारिक उदारता की लिटमस टेस्ट है।
तर्कतीर्थ ने आत्मकथा नहीं लिखी और जीवनी के बारे में भी वे स्वयं को आरक्षित मानते थे, लेकिन उन्होंने समय-समय पर अपने बारे में लगभग पंद्रह आत्मकथात्मक लेख लिखे हैं। उदाहरण- मेरा वेद पठन, मैं रॉयवादी क्यों बना? पत्नी की मृत्यु के पश्चात उन्होंने सत्यवती जी के बारे में लिखा। इन लेखों का संपादन करें तो वह उनकी लघु आत्मकथा होगी। मुझे महाराष्ट्र के दो ऐसे विचारशील व्यक्ति मिले जिन्होंने अपनी पत्नी के बारे में बहुत उदारतापूर्वक लेकिन निष्पक्षता से लिखा- नरहर कुरुंदकर और तर्कतीर्थ। उन दोनों ने पत्नी का महत्व जानने, उसके प्रति अंतर्मुखता आने के पश्चात जो लिखा है उसे वर्तमान के सभी लोगों को पढ़ना चाहिए।
तर्कतीर्थ ने आत्मकथा नहीं लिखी और जीवनी के बारे में भी वे स्वयं को आरक्षित मानते थे, लेकिन उन्होंने समय-समय पर अपने बारे में लगभग पंद्रह आत्मकथात्मक लेख लिखे हैं। उदाहरण- मेरा वेद पठन, मैं रॉयवादी क्यों बना? पत्नी की मृत्यु के पश्चात उन्होंने सत्यवती जी के बारे में लिखा। इन लेखों का संपादन करें तो वह उनकी लघु आत्मकथा होगी। मुझे महाराष्ट्र के दो ऐसे विचारशील व्यक्ति मिले जिन्होंने अपनी पत्नी के बारे में बहुत उदारतापूर्वक लेकिन निष्पक्षता से लिखा- नरहर कुरुंदकर और तर्कतीर्थ। उन दोनों ने पत्नी का महत्व जानने, उसके प्रति अंतर्मुखता आने के पश्चात जो लिखा है उसे सभी लोगों को पढ़ना चाहिए। तर्कतीर्थ ने इस लेख में अपनी पत्नी को गृहीत न मानकर एक मित्र, सहकारी, सहकर्मी और सम्मानित जीवन साथी के रूप में मानने का आदर्श पाठ दिया है। उसी लेख का उत्तरार्ध बाद के लेख 'स्मृति और गौरव' में है।
‘व्यक्ति अपने बारे में लिखते समय असंगति की दूरी कम हो तो उसे पारदर्शी मानना चाहिए।' मुझे लगता है कि इस कसौटी पर तर्कतीर्थ पारदर्शी हैं। उनके बेटे, बहू, पोती, दोस्त और सहकर्मियों द्वारा लिखे गए तर्कतीर्थ और स्वयं तर्कतीर्थ ने अपने बारे जो लिखा है उसमें बहुत कम अंतर देखने को मिलेगा। उन्होंने कई अनुवाद किए हैं। यात्रा वृतान्त लिखे हैं। उनके यात्रा वृतांत ऐसे नहीं हैं कि आयफेल टॉवर से मुझे पेरिस कैसा लगा; बल्कि पैरिस की संस्कृति कैसी हैं, रूस में सर्वधर्म परिषद के लिए जाने पर वहां की शिक्षा कैसे थी, इस बारे में लिखा है। रूस में उनसे पूछा गया था कि, 'क्या आप किसी होटल में रहना पसंद करेंगे या हॉस्टल में?' उन्होंने कहा, 'हॉस्टल में।' हॉस्टल में जाने के बाद उन्होंने कहा, 'मुझे लड़के और लड़कियों के दोनों सेक्शन में जाने की स्वीकृति मिले।' उन दिनों लड़के और लड़कियों के हॉस्टल अलग-अलग होते थे। तर्कतीर्थ द्वारा ऐसा कहने पर रूस ने छात्रावास की दीवारें हटाकर लड़के और लड़कियों को कॉमन अॅक्सेस प्रदान दिया। एक आदमी छोटे-छोटे सुझाव देकर क्रांति ला सकता है, इसके आदर्श पाठ के रूप में तर्कतीर्थ की ओर देखना चाहिए।
तर्कतीर्थ की ज्ञान प्रस्तुति को झागोर परिषद में standing ovation मिलता है, जिसमें रूस के सभी धार्मिक पंडित शामिल थे। तर्कतीर्थ वहां हमारे हिंदू धर्मशास्त्र की श्रेष्ठता और परंपरा को बताते हैं। जिसे सुनकर यूरोपीय और रूसी लोग सोचते हैं कि भारत का धर्म दर्शन पर आधारित है। इसका एक छोटा उदाहरण बताता हूँ। हमने दुनिया को 'बुद्ध' दिया है। लेकिन हमने उसे छोड़ दिया है। मैं भारतीय प्रतिनिधिमंडल के साथ जापान में दुनिया की सबसे बड़ी बुद्ध प्रतिमा किंकाकुजी देखने गया था। दुनिया के सारे प्रतिनिधि मेरे साथ थे। वहाँ का भिक्कू पंडित मेरी बगल में खड़ा था। उसने मुझसे यूं ही पूछा, 'यू आर फ्रॉम?' मैंने कहा, 'इंडो।' उसने कहा, 'कम विथ मी।' और वह मुझे गुप्त रूप से इन सब लोगों के बीच से ले गया। उस लकड़ी की मूर्ति को, मूर्ति के चारों ओर परिक्रमा लगाने के लिए एक मार्ग है। उस पर आज तक केवल दो ही लोग चल सके हैं। एक था जापान का राजा और दूसरा यह भिक्कू और तीसरा मैं। मैंने उनसे पूछा, 'आपने मुझे यह सम्मान क्यों दिया?' उनका जवाब बेहद अहम है - 'You have given Budha to us!' हमें समझना होगा कि भारत का सारा वैभव प्राचीन वाड:मय में निहित है। वेद कालबाह्य हैं, इस दृष्टि से जो लोग हमारे प्राचीन वाड:मय की ओर देखते हैं; उनके प्रति भी हमें नए शास्त्र, नए विचार से देखना होगा। इसका अहसास तर्कतीर्थ के लेख प्रदान करते हैं।
प्रश्न : खंड संख्या दस और ग्यारह दोनों पुस्तकों से संबंधित हैं। दसवें खंड में विभिन्न लोगों की पुस्तकों के लिए तर्कतीर्थ द्वारा लिखित प्रस्तावनाएँ शामिल हैं। ग्यारहवें खंड में विभिन्न पुस्तकों का संक्षिप्त परिचय और समीक्षाएँ शामिल हैं। आपको प्रस्तावना लिखने वाले तर्कतीर्थ और परिचय कराने वाले तर्कतीर्थ में कुछ अंतर और समानता महसूस हुई?
तर्कतीर्थ ने अपने जीवन में एक बहुत बड़ा अंतर बनाए रखा। उनके सहयोगी, सन्मित्र बताते हैं कि उन्होंने दो चीजों को कभी नकार नहीं दिया- भाषण का निमंत्रण और प्रस्तावना लेखन। आज- कल जब बड़े- बुजुर्गों को प्रस्तावना लिखने के लिए कहा जाए तो अनेक संवाद सुनने को मिलते हैं, 'मैं व्यस्त हूं, मुझसे नहीं हो पाएगा।' मुझे कई महीने, दिन लगेंगे।' तर्कतीर्थ ने कभी भी ऐसे बहाने नहीं दिए। रोजमर्रा के काम करते हुए उन्होंने साहित्य संस्कृति मंडल की दो सौ से अधिक पुस्तकों की भूमिकाएँ लिखी हैं। लगभग उतनी ही भूमिकाएं अन्य पुस्तकों की लिखी हैं। मैं उन सभी को प्राप्त नहीं कर सका। लेकिन अधिकाधिक प्रस्तावनाएँ देने का प्रयास किया है।
पुस्तक समीक्षा के प्रति वे एकदम मिजाजदार थे। वे कहते कि ‘समीक्षा तभी लिखनी चाहिए जब किताब दिल को छू जाती है।' वॉल्ट व्हिटमैन की किताब ‘तृणपर्णे’ में एक आशय समृद्ध वाक्य है- 'Who touches the book, touches the heart.’ इस कसौटी को अपनाकर तर्कतीर्थ ने केवल तीस पुस्तक समीक्षाएँ या परिक्षण लिखे हैं। उन्होंने उन पुस्तकों की समीक्षा की है जिन्हें हम मराठी की कालजयी रचनाएँ कहेंगे। उनकी वाचन की बैठक बहुत विचारशील, समाधिस्थ रहती थी। इसका एक छोटा उदाहरण बताता हूँ। उनकी बेटी की शादी थी। मंडप में कन्यादान हुआ और तर्कतीर्थ दुल्हन के कमरे में जाकर लिखने बैठ गये। उनके सचिव ने कहा, 'क्या आपको नहीं लगता कि यह कुछ ज़्यादा हो रहा है?' उन्होंने कहा, 'इस अति की वजह से ही मैं कुछ कर पाया हूँ। अब कन्यादान हो गया है। पिता का काम बचा ही क्या है? मेरा काम पूरा हुआ है। आप पंगत लगाइए। मेरा कार्य जारी है।'
आदमी को अपनी क्षमता का पता होना चाहिए। इन दो खंडों में एक ओर आम लोगों का सम्मान और दूसरी ओर अभिजात का गौरव हुआ है।
प्रश्न : बारहवां खंड आम जनता तो क्या, मराठी के अच्छे पाठकों को भी अपनी समझ के परे लगेगा। इस खंड में संस्कृत और मराठी के प्रबंध और जीवनियाँ शामिल हैं। लेकिन ये जीवनियाँ पारंपरिक अर्थों में जीवनियाँ नहीं हैं। तो इस कठिन खंड के प्रति लोगों की जिज्ञासाएँ बढ़ने या कम होने संबंधी क्या बताएँगे?
तर्कतीर्थ द्वारा लिखित संस्कृत प्रबंधों में से एक 'अस्पृश्यता मीमांसा' है। जिसका जिक्र इसके पहले किया गया है। दूसरा है 'सर्वधर्मसमीक्षा' और 'शुद्धिसर्वस्वम्'। शुद्धिसर्वस्वम् में भी प्रायश्चित विधान है। इस प्रबंध में उन्होंने धर्म को उदार बनाने का प्रयास किया है। पहले हमारे यहाँ कर्मकांड, कर्मफल थे। पुनर्जन्म की अवधारणा थी, रूढ़ियाँ- रीति-रिवाज थे। उन्हें इसकी समसामयिक समझ थी। वे कहते, 'हम परंपरा के आधार पर किसी को पतित, तो किसी को पापी मानते हैं; लेकिन जिन्हें पापी या दुराचारी माना हैं, उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए धर्मशास्त्र द्वारा प्रायश्चित का विधान दिया गया है। लेकिन इस प्रायश्चित का स्वरुप रोग से इलाज भयानक जैसा है, इसे सहज कैसे बनाया जा सकता है? यह न केवल सहनीय है, बल्कि हमें यह भी देखना होगा कि यह समय के साथ सुसंगत कैसे होगा। एक तो पतित व्यक्ति बहिष्कृत होता है- उदाहरण के लिए विधवा को मांग में सिंदूर लगाने की इजाजत नहीं होती है। इस छोटी सी बात से उसके दिल पर लगी खरोंचों को कम करना हो तो आपको अपनी परंपराओं और तपस्याओं को उदार और विनम्र बनाना होगा। आप आजन्म प्रायश्चित्त कहेंगे तो वह व्यक्ति सदैव पतित रहेगा। जीवन भर के बजाय एक साल या दो साल पर आओगे तो पतित ख़त्म हो जायेगा। यदि प्रायश्चित का उद्देश्य पतित को समाप्त करना है तो प्रायश्चित संक्षिप्त होना चाहिए।
उन्होंने 1928-30 के आसपास मराठी में 'आनंदमीमांसा' और 'जड़वाद नामक दो ग्रंथ लिखे। 'आनंदमीमांसा' भारतीय दर्शन को छेद देता है। आलोचक भारतीय दर्शन को 'दुःख दर्शन' के रूप में वर्णित करते हैं। उदाहरण- बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन या सांख्य दर्शन को लीजिए। सभी दर्शनों में दुःख है, मोक्ष है और दुःख से मोक्ष तक की पूरी यात्रा है। उन्होंने 'आनंदमीमांसा' में बताया है कि, 'दुःख को गले लगाकर मोक्ष की साधना करने के बजाय आनंद को गले लगाकर जीवन की साधना करें, जिससे जीवन अधिक समृद्ध होगा। स्वर्ग और नरक किसने देखा है? वर्तमान में जियो और खुशी से जियो।' इसका मतलब वे यह बिल्कुल नहीं कहते कि आप सिर्फ मौज- मस्ती करें। आनंद को भी एक शिष्टाचार और सुंदरता होनी चाहिए। इसमें इसका सुंदर वर्णन है। जो कोई भी वर्तमान में खोई हुई ख़ुशी पाना चाहता है उसे आनंद मीमांसा पढ़ना चाहिए। जो ईश्वर के अस्तित्त्व को समझना चाहता है उसे 'जड़वाद अर्थात् नास्तिकता' प्रबंध को सप्रमाण पढ़ना चाहिए।
उनके प्रबंध के समान ही उनके द्वारा लिखी गयी जीवनियाँ भी विशेष हैं। तर्कतीर्थ ने मात्र दो जीवनियाँ लिखी हैं- उनके गुरु, 'केवलानंद सरस्वती' और ‘महात्मा फुले’। तर्कतीर्थ ने उनके गुरु की एक संक्षिप्त जीवनी संस्कृत और मराठी में भी लिखी है। इसका उद्देश्य अपने गुरु की प्रगतिशीलता को दर्शाना है। इसमें गुरुभक्ति, अंधभक्ति, गुरुनिष्ठा बिल्कुल नहीं मिलेगी। सबसे महत्त्वपूर्ण जीवनी है- 'महात्मा फुले'। उन्होंने 1947 में 'ज्योति निबंध' लिखा था। मेरी समझ है कि महात्मा जोतिबा फुले पर शुरुआती दौर में लिखने वाले लेखकों में एक तर्कतीर्थ हैं। निबंध का उपशीर्षक है- 'परंपरा के खिलाफ विद्रोह करने वाला पहला पुरुष’। उन्होंने वर्णन किया है कि फुले कितने विद्रोही थे। उस निबंध को लिखने के बाद लोगों ने कहा, 'यह फुले की बहुत संक्षिप्त जीवनी है, आप विस्तार से क्यों नहीं लिखते, ताकि हम फुले के बारे में अधिक विस्तार से जान सकें।' इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने 1991 में महात्मा फुले की स्मृति शताब्दी और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की जन्मशती के अवसर पर नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया के लिए एक विस्तृत 'ज्योति चरित्र' लिखा। यह चरित्र आज हिन्दी, अंग्रेजी और मराठी में भी उपलब्ध है। जो कोई जोतिबा फुले को समझना चाहते हैं उन्हें तर्कतीर्थ की यह वस्तुपरक जीवनी अवश्य पढ़नी चाहिए।
प्रश्न : तेरहवाँ खंड अपेक्षाकृत आसान है। यह पत्र खंड कल्पना का विस्तार करता है तथा विविध दिशाएँ दिखाता है! तर्कतीर्थ को लिखे तथा उनके द्वारा अन्यों को भेजे गए पत्र। स्वाभाविक रूप से अब हमें उन सभी पत्रों के संदर्भों की आवश्यकता नहीं है। आपने अपने प्रास्ताविक और फ़ुटनोट्स में जितना संभव हो उतने सदर्भ दिए होंगे। इस पत्र संग्रह की, उन्हें मिले उत्तर और उनके द्वारा दिए गए उत्तरों की विशेषता क्या है?
सबसे पहले देखें कि तर्कतीर्थ ने किस- किस को पत्र लिखे थे। इसमें बड़ी संख्या में महात्मा गांधी, यशवंतराव चव्हाण साहब को लिखे गए पत्र शामिल हैं। उनके कुल पत्राचार में से कुछ प्रतिनिधि पत्र इस संग्रह में शामिल हैं। तर्कतीर्थ का चरित्र संस्था पुरुष का चरित्र था। यदि आप इसे समझना चाहते हैं, तो आपको इनमें स्थित संस्थागत पत्राचार को देखना होगा। इसमें प्राज्ञ पाठशाला, धर्मकोश, नवभारत, मराठी ग्रंथ संग्रहालय के साथ किया गया पत्राचार शामिल है। रेडिकल डेमोक्रेटिक पार्टी, 'क्वेस्ट’का पत्राचार है। इसका मतलब है कि इसमें एक ओर संगठनात्मक पत्राचार और दूसरी ओर व्यक्तिगत पत्राचार का समन्वय दिखाई देता है। परंपरा से लोग तर्कतीर्थ को यशवंतराव चव्हाण के राजनीतिक गुरु मानते हैं। यह वास्तव नहीं है। वे दोनों एक दूसरे के बहुत करीबी दोस्त थे। दोनों एक-दूसरे को ‘प्रिय’ नाम से पत्र लिखते हैं। इससे उनके राजनीतिक गुरु होने की धारणा पूर्ण रूप से ख़ारिज हो जाती है। इन दोनों की दोस्ती इतनी अनोखी थी कि वे दोनों अपने निजी और सार्वजनिक जीवन की हर समस्या पर एक-दूसरे की राय लेते थे। मैं तो कहूंगा कि ये दोनों साथी थे, सहकारी थे, सहयोगी थे और समान विचारधारा वाले सहयात्री थे।
एक पत्र के बारे में छोटा सा उदाहरण बता दूँ- आपातकाल के दौरान यशवंतराव चव्हाण कांग्रेस पार्टी छोड़कर रेड्डी कांग्रेस में शामिल हुए। आप जानते हैं कि हर राजनीतिक पुरुष सत्ता और साधनों पर जीता है। इसके लिए यशवंतराव चव्हाण अपवाद नहीं थे। बाद में उन्हें लगा कि सत्ता से बाहर रहकर ज्यादा सामाजिक और परिवर्तनकारी काम नहीं कर पाऊंगा। फिर तर्कतीर्थ से विचार विमर्श कर बहुत सोच-समझकर वे इंदिरा कांग्रेस में लौट आए। वे इंदिरा गांधी को स्वीकृति पत्र भेजते हैं। उस समय इंदिरा गांधी का दबदबा था। उन्होंने यशवंतराव चव्हाण को जवाब देने का शिष्टाचार भी नहीं दिखाया। पत्र के तीन महीने बाद चव्हाण साहब तर्कतीर्थ को एक निजी पत्र लिखते हैं। (इस खंड में कुछ निजी पत्र भी छपे हैं। उन्हें छापना चाहिए या नहीं यह विवाद का मुद्दा हो सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि समय बीतते और व्यक्ति के चले जाने के बाद निजी और सार्वजनिक जैसी कोई चीज नहीं रह जाती है। जब आप लिखित की ओर जाते हैं तो इतिहास और कुछ न होकर अपने समय में निजी होता है, बाद में वह सार्वजनिक बन जाता है। पत्र-व्यवहार के प्रति भी इसी दृष्टि से देखना चाहिए।) वे तर्कतीर्थ से प्रश्न पूछते हैं, 'अब क्या करें?' तर्कतीर्थ उतनी ही पवित्रता से उत्तर देते हैं। 'दरवाजा खटखटाया है, खुलने तक आँगन में बैठे रहें। नहीं तो महाराष्ट्र की हवा समशीतोष्ण है, इससे कोई नुकसान नहीं होगा।' मुझे लगता है कि सूचकता में निहित सौंदर्य को आप तर्कतीर्थ के हर पत्र में देखेंगे।
इस संबंध में ‘साक्षात्कार खंड’ में एक साक्षात्कार है- 'यशवंतराव अभी भी टटोल रहे हैं।' इसी दौरान उन्होंने इंदिरा गांधी के प्रति भी स्पष्टता से विधान किए थे जो बहुत ही दिलचस्प हैं। आप यह भी देखेंगे कि तर्कतीर्थ के इंदिरा गांधी से सौदार्ह्रपूर्ण रिश्ते थे।
तर्कतीर्थ और उनके गुरु केवलानंद सरस्वती ने 'धर्म परिवर्तन मंडल' की स्थापना की थी। बाद में उन्होंने इसका नाम 'धर्म सुधार मण्डल' रखा। इससे धर्मकोश की निर्मिती हुई। उस समय इन दोनों ने पूरे भारत से पचास हजार पांडुलिपियों संकलित की, जिससे पता चलता है कि एकाध मनुष्य कितना व्यासंगी हो सकता है। आज भी वह पांडुलिपियाँ प्राज्ञ पाठशाला में जिज्ञासुओं को देखने के लिए उपलब्ध हैं। इनमें से केवल ग्यारह हजार पांडुलिपियों का वर्णन है। वर्णन पन्द्रह खानों में है। उन खानों को देखने से ही पता चलेगा कि तर्कतीर्थ ने कितनी मेहनत की थी।
प्रश्न : चौदहवें और पंद्रहवें खंड में पाठकों को बिल्कुल रुचि नहीं होगी। लेकिन इन पर नजर डाले तो कोई भी पाठक चौंक जाएगा। ये दो खंड संस्कृत पांडुलिपियों और ग्रंथों की वर्णनात्मक सूची हैं। इन पोथियों, पांडुलिपियों और उनकी सूची का संक्षिप्त विवरण दीजिए?
साहित्य, भाषा, संस्कृति का सौंदर्य हमारा वैभव है। यदि किसी को इसका इतिहास खोजना हो तो उसके लिए सबसे अच्छा साधन तत्कालीन पांडुलिपियाँ हैं। आज हम राजा शिवाजी का उल्लेख इतने आदर के साथ करते हैं, लेकिन उस समय के दस्तावेज़ न होते तो छत्रपति शिवाजी महाराज के लोक कल्याण के कार्य हमारे सामने नहीं आते। साथ ही हमारी संस्कृति के विकास को देखना है तो भी तत्कालीन समय की पांडुलिपियों को देखना होगा।
तर्कतीर्थ और उनके गुरु केवलानंद सरस्वती ने 'धर्म परिवर्तन मंडल' की स्थापना की थी। बाद में उन्होंने इसका नाम 'धर्म सुधार मण्डल' रखा। इससे धर्मकोश की निर्मिती हुई। उस समय इन दोनों ने पूरे भारत से पचास हजार पांडुलिपियों संकलित की, जिससे पता चलता है कि एकाध मनुष्य कितना व्यासंगी हो सकता है। आज भी वह पांडुलिपियाँ प्राज्ञ पाठशाला में जिज्ञासुओं को देखने के लिए उपलब्ध हैं। इनमें से केवल ग्यारह हजार पांडुलिपियों का वर्णन है। यह वर्णन पन्द्रह खानों में है। उन खानों को देखने से ही पता चलेगा कि तर्कतीर्थ ने कितनी मेहनत की थी। उनके पास बृहस्पति, कौटिल्य, व्यास, वाल्मिकी और कई अन्य लोगों की पोथियाँ हैं। धर्मशास्त्र में कित्ता की एक महत्वपूर्ण पद्धति है। कित्ता करने का अर्थ है पहले से उपलब्ध साहित्य की नक़ल करना/ कॉपी करना। यह करते समय पोथी या पाण्डुलिपि के लेखक का नाम, उस समय के विवरण हैं। हम सभी को वर्तमान में अध्ययन करते समय इसे समझना होगा। इसके बारे में मैंने प्रस्तावना में विस्तार से लिखा है कि पोथी वही लिख सकता था जो कागज तैयार करता है, स्याही तैयार करता है, चित्र निकालने के साथ सुंदर हस्ताक्षर में कैलीग्राफी करता है। केवल पोथियों को देखकर आपको अक्षरों के घुमाव का पता चल जाएगा। प्राचीन काल में हमारे यहाँ जिन 64 कलाओं की बात की जाती थी उनमें लेखनकला एक है। इन लोगों के लिए यह कला है। हम और आप जो करते हैं वह कला नहीं है। हम इस क्षेत्र में पराए हैं। कट- पेस्ट करने वाले लोग हैं। उनके द्वारा किया गया कार्य वास्तविक कार्य है।
दूसरे खाने में पोथियों के शीर्षक हैं, तीसरे खाने में लेखक का नाम, चौथे में भाष्यकार यानी समीक्षक का नाम। किसी भाष्य का नाम शंकर भाष्य है तो उसका विवरण। पोथी का आकार सेमी. में है। फिर पृष्ठ संख्या है। एक पृष्ठ पर कितनी पंक्तियाँ और एक पंक्ति में कितने अक्षर हैं। इस प्रकार से तेरह हजार पोथियों का इतिहास है। इसकी लिपि, काल, स्थिति, माध्यम, (लिखावट चमड़े/ कागज/ कपड़ा या भुर्जपत्र है।) पोथी की वर्तमान स्थिति (अभी वह जर्जर हुई है या सुरक्षित है)। आगे एक रिक्त खाना है, जिसमें उस पोथी की विशेषता के साथ पोथी के विवरण के बारे में बारे में लिखा है।
क्या इन पचास हज़ार पोथियों का अध्ययन वर्तमान इंडोलॉजी का अध्ययन नहीं है? कहा जाता है कि वर्तमान समय में हिंदू धर्म और हिंदू धर्मशास्त्र पर बहुत गंभीरता से विचार किया जा रहा है। यह सब देखने के पश्चात जिज्ञासुओं को गंभीरता के स्तर का पता चलता होगा। ये सभी खंड बडी मेहनत का फल है। इसीलिए मैंने कहा है कि ये दो खंड पढ़ने में रूचि नहीं आएगी, लेकिन हमें चकित करने के लिए ये बहुत उपयोगी हैं।
प्रश्न : सोलहवां खंड कई लोगों के लिए एक सुखद आश्चर्य का धक्का देने वाला तथा यह कहने के लिए मजबूर करने वाला है कि हम इसे पहली बार ही सुन रहें हैं। यह खंड है भारतीय संविधान के पहले मसौदे का संस्कृत में पहला अनुवाद (1952)। इस अनुवाद के बारे में थोड़ा बताएं।
जैसा कि हम जानते हैं 1949 में भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में भारत का संविधान बनाया गया। इसकी आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को राज्य/प्रांतीय भाषाओं के रूप में अपनाया गया। संविधान में यह प्रावधान था कि संविधान तैयार होने के पश्चात उसका अनुवाद इन भाषाओं में किया जाना चाहिए। 1950-52 के बीच 13 भाषाओं के लिए अनुवादक मिल गए। संस्कृत के लिए तलाश जारी थी। उस समय राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति और दादा मावलणकर सभापति थे। महात्मा गांधी के कारण इन दोनों को तर्कतीर्थ का संस्कृत का अभ्यास पता था। राजेंद्र प्रसाद ने मावलणकर के माध्यम से तर्कतीर्थ को अनुवाद संबंधी समस्या बताई। तब तर्कतीर्थ ने तीन चौथाई और मंगलदेव शास्त्री ने एक चौथाई अनुवाद किया।
हजारों सालों की संस्कृत भाषा और 1952 का भारतीय संविधान। 1952 में वर्तमान जीवन में ऐसी कई चीजें थी जो प्राचीन काल में नहीं थीं। उस दौरान इंजीनियर, मूर्तिकार, काष्ठशिल्पी आदि होंगे; लेकिन अभियांत्रिकी नाम की कोई विद्याशाखा नहीं थी। तर्कतीर्थ के सामने प्रश्न उपस्थित हुआ कि इसे संस्कृत में कैसे परिभाषित करें? वे ज्ञान की सभी शाखाओं में अत्यंत व्यवहारी थे। उन्होंने पाया कि हिन्दी में किये गये अनुवाद वर्तमान प्रमाणों के करीब जाने वाले थे। इसे आदर्श मानकर उन्होंने संस्कृत में इसके विकल्प और समानार्थक नये शब्द गढ़े और उनका अनुवाद किया। यह अनुवाद स्वीकृति के लिए नौ लोगों की एक विद्वत समिति के सामने रखा गया। इनमें भारतरत्न, अंतरराष्ट्रीय भाषा वैज्ञानिक के साथ राष्ट्रीय संस्कृत पंडित भी शामिल थे। इन नौ लोगों ने 22 दिनों तक हर अनुच्छेद का अध्ययन कर, ज्यादा बदलाव न कर इसे मंजूरी दे दी। एकाध व्यक्ति इतना बुद्धिमान होता है!
फिर सरकार के सामने नया सवाल खड़ा हुआ कि इसे कहां छापें? इस काल में वाराणसी को छोड़कर कहीं भी संस्कृत टाक नहीं मिलता था। टाक का अर्थ है फ़ॉन्ट, कील। तर्कतीर्थ को उन्होंने बताया कि, 'आपने अनुवाद तो कर लिया है, लेकिन मुद्रण की समस्या है।' तर्कतीर्थ ने कहा, 'मैं इसे छापता हूं।' अर्थात् संविधान का संस्कृत अनुवाद वाई में किया गया। तर्कतीर्थ द्वारा संविधान की पहली प्रत का प्रूफ़ रीडिंग भी उपलब्ध है। एकाध इंसान कितना व्यासंगी और मेहनत से काम करता है। समर्पण का नाम तर्कतीर्थ है!
प्रश्न : खंड संख्या 17 और 18 दोनों के संदर्भ में आप एक ही प्रश्न में उत्तर दे सकते हैं। सत्रहवाँ खंड तर्कतीर्थ पर लिखे गए लेखों का है। इनमें संस्मरण, गौरव लेख, श्रद्धांजलि लेख शामिल होंगे। अठारहवें खंड में विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोगों द्वारा की गयी उनके लेखन एवं साहित्य की समीक्षा है। आप इन दोनों खंडों के बारे में, तर्कतीर्थ, उनके लेखन और उनके विचारों के बारे में क्या बताएँगे?
मुझे लगता है कि इस परियोजना ने एक नया आयाम या एक नई परंपरा बनाई है। आज तक महाराष्ट्र में, मराठी में समग्र साहित्य की परियोजनाएँ संपन्न हुई हैं उनका कार्य प्युअर टेक्स्ट पर ही हुआ है। आज तक Textual criticism पर काम नहीं हुआ है। यह महाराष्ट्र का पहला प्रोजेक्ट है, जिसमें Textual criticism पर कार्य हुआ है। लोगों ने भाषणों, साक्षात्कारों, पुस्तकों, अनुवादों जैसे विविध रूपों में लिखा है और ये लगभग एक शताब्दी की अवधि के लेख हैं। इसमें एक ओर उनके साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बनने पर किया गया गौरव है, वहीँ दूसरी ओर एक सज्जन उनके बारे में 'निरुपयोगी विद्वान' के रूप में भी लिखते हैं। एक तरफ उन्हें तारीफ भी मिली है तो दूसरी तरफ उन्हें बदनामी का भी सामना करना पड़ा है। लेकिन मैंने उन्हें कभी विचलित होते नहीं देखा है। उनकी विशेषता यह थी कि वे अपनी आलोचना करने वालों को बड़ी उदारता एवं कठोरता से प्रमाण सहित उत्तर देते थे। मेरा मानना है कि उन्होंने ज्ञान तपस्या से सामने वाले को सबूतों के साथ खारिज करने की कला विकसित कर ली थी।
इनमें से समीक्षा खंड में साहित्य सम्राट न. चिं. केलकर से लेकर वर्तमान आलोचकों तक समय-समय पर समीक्षा करने वाले सभी लोग शामिल हैं। गौरव और स्मृति लेखों में पोती ने दादा पर लिखा है, बेटे ने पिता के बारे में लिखा है। तर्कतीर्थ ने अपने मित्रों, सहकर्मियों के बारे में लिखा, सहकर्मियों ने तर्कतीर्थ के विविध पहलुओं के बारे में लिखा है। अर्थात् 'तर्कतीर्थ: शास्त्र और शस्त्र' नामक लेख यशवंतराव चव्हाण ने लिखा है। वे तर्कतीर्थ के भाषण पढ़कर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे। उनके स्मरण में लिखा कि, ''यह पंडित लगातार आठ दिनों तक कृष्णा नदी के तट पर भाषण देता है। भाषण देते समय हम सभी युवाओं से कहता हैं कि अब तक मैंने अपने गुरु से शास्त्र सिखा हैं, इसके आगे इस शास्त्र को शस्त्र में बदलना है।” उन्होंने लिखा है कि 'उस एक वाक्य ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया और मैंने अपने स्कूल के सामने वाले के पेड़ पर चढकर तिरंगा झंडा फहराया।' सोलह वर्ष की आयु में वे जेल गये। शायद इसलिए तर्कतीर्थ को 'कृष्णाकाठ' (यशवंतराव चव्हाण की आत्मकथा) की समीक्षा लिखने की इच्छा हुई होगी।
मनुष्य के विकास को समझने के लिए ये दो खंड उपयोगी हैं। मुझे लगता है कि जब आप समीक्षा के साथ टेक्स्ट या संहिता देते हैं, तो उस संहिता को समय की सीमा, समय का घेरा निर्माण होता है और वर्तमान को फिर एक बार उसकी समीक्षा करने की प्रेरणा मिलती है। मुझे लगता है, इन खंडों को पढ़ने के बाद नये समीक्षक तर्कतीर्थ को नये विचारों से देखना शुरू कर देंगे।
प्रश्न : ये खंड शीघ्र ही साहित्य संस्कृति मंडल द्वारा प्रकाशित होंगे, जनता के बीच जायेंगे। मुझे पूरा यकीन है कि केवल आम पाठक ही नहीं; अभ्यासक और शोधार्थियों के लिए अध्ययन की कई दिशाएं खुल जाएगी। इनके आधार पर लोग ज्ञान के कई क्षेत्रों को खोज पाएंगे। क्या इस आधार पर कई शोध परियोजनाएं सामने आएंगी?
1994 में तर्कतीर्थ चल बसे। आज हम 2024 में सोच रहे हैं। वास्तव में बीच के तीस सालों के दरमियान, वे जीवित थे उस समय भी हमारे यहाँ शोध संबंधी विचार बहुत कम मात्र में होता था। अपवाद के रूप में तर्कतीर्थ पर महाराष्ट्र में पीएच.डी. का शोध कार्य हुआ हैं। उनकी संख्या बहुत कम हैं। इस परियोजना के माध्यम से महाराष्ट्र में नए शोध और पुनर्व्याख्याऍ होनी चाहिए। ऐसा हुआ तो मराठी अभिजात की ओर यात्रा करेगी।
प्रश्न : जो कोई भी पीएच.डी. के अध्ययन का कुल स्वरुप जानता है वह इन सभी खंडों को एक या दो घंटे के लिए भी देख ले, तो निश्चित रूप से कहेंगा कि 'सौ से अधिक पीएच.डी. करने जीतनी सामग्री, इतनी दिशाएं दिखाने की क्षमता इन अठारह खंडों में है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि सभी खंड शोध के अनुशासन में प्रस्तुत किए गए हैं। इससे न केवल तर्कतीर्थ के संपूर्ण कार्य की व्यापकता, गहराई और पद्धति का पता चलता है, बल्कि सुनीलकुमार लवटे द्वारा किए गए संपादन के लिए भी इन सभी खंडों को देखा जाना चाहिए। संपादन की सभी कसौटियां, प्रस्तुति, फ़ुटनोट, प्रस्तावना, आगे- पीछे के संदर्भ जिस सटीक पद्धति से दिए गए हैं; इस प्रकार की परियोजनाओं के संपादन का यह उत्कृष्ट उदाहरण है।
इस परियोजना के अंत में मैंने अप्राप्त संदर्भ भी दिये हैं, ताकि नई पीढ़ी उसे ढूंढ सकें। हालाँकि इसका नाम समग्र है, फिर भी यह परियोजना तब तक पूरी नहीं होगी जब तक कि वे संदर्भ उपलब्ध न होंगे। इस अवसर पर मैं आवाहन करता हूं कि नई पीढ़ी इसे उपलब्ध कराए।
प्रश्न : आपने अठारह खंडों वाली इस परिचयात्मक पुस्तिका के अंतिम खंड में तर्कतीर्थ की सचित्र और वस्तुनिष्ठ जीवनी लिखने का संकल्प किया है। हमारी शुभकामना है कि आपका यह संकल्प पूरा हो।
मुझे इतने सारे संदर्भ मिले हैं कि अगर मैं उन्हें अपने तक ही सीमित रखूं तो यह उचित नहीं होगा। इसका उचित उपयोग कर एक सचित्र व्यापक जीवनी लिखने का विचार है। यह जीवनी कम से कम एक हजार पन्नों की जरुर होगी....
- सुनीलकुमार लवटे, कोल्हापुर
drsklawate@gmail.com
MOb. 9881250093
संवादक: विनोद शिरसाठ
अनुवाद: डॉ. प्रकाश कांबळे
इस साक्षात्कार का वीडियो weeklysadhana यूट्यूब चैनल पर देख और सुन सकते हैं - दूसरा भाग 1 घंटा 5 मिनट
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