दो घण्टे ग्यारह मिनट की यह फिल्म पूरी तरह शिक्षा और स्कूल पर केन्द्रित नहीं है; बचपन, अभिभावकत्व, युद्ध, मानवतावाद, राष्ट्रवाद, नागरिक की भूमिका आदि जीवन के तमाम रंगों से इसके कैनवास पर बखूबी सजाया गया है। इसलिए इस फिल्म में सभी को अपने लिए कुछ नए मायने मिल सकते हैं। यह फिल्म मार्कस ज़ुसैक द्वारा लिखे उपन्यास द बुक थीफ (2005) पर आधारित है।शिक्षा से सरोकार रखने वाले व्यक्तियों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए या फिर उपन्यास पढ़ना चाहिए। ताकि स्कूल के जरिए रिसकर दिलो-दिमाग को काबू कर लेने वाली तानाशाह सोच के प्रति वे थोड़ा अधिक जागृत, थोड़ा अधिक सचेत और थोड़ा अधिक संवेदनशील हो सकें।
'किताबें समाज का आईना होती हैं!', 'किताबें ज्ञान का भण्डार हैं!', 'किताबें अच्छी दोस्त होती हैं!', 'किताबें दिमाग की खुराक होती हैं!' किताबों के बारे में ऐसे जुमले अनेक बार सुने होंगे। हममें से तकरीबन सभी की कोई पसन्दीदा किताब, कोई चहेता लेखक, कवि या विचारक होता है, जिसके लिखे को हम पढ़ना पसन्द करते हैं, साहित्य का रसास्वादन करते हैं या पढ़कर कुछ सीखने-समझने की कोशिश करते हैं। अभिभावक या शिक्षाकर्मी के रूप में हम अकसर चाहते हैं कि हमारे बच्चे / विद्यार्थी किताबों से दोस्ती करें, उनमें पढ़ने का ललक विकसित हो और पढ़ना उनकी आदत बन जाए।
किताबों में ऐसे तमाम अनुभवों से सामना कराने की कूवत होती है जिनसे असल ज़िन्दगी में शायद हम रूबरू न हो सकें। शौकिया पढ़ाकू हों या आदतन, किताब मिलते ही पन्ने पलटना और अगर वह दिल को छू जाए तो उसे हासिल करने, पूरी पढ़ लेने की तमन्ना होना स्वाभाविक है। इसलिए कई पढ़ाकू किताब की दुकानों में घण्टों बिताते हैं, कुछ पढ़ाकू पुस्तकालयों में वक्त गुज़ारना पसन्द करते हैं। दोस्तों-परिचितों के बीच किताबों का लेन-देन दोस्ती निभाने का सिर्फ एक ज़रिया या शगल नहीं, क्रयशक्ति के अभाव में कई बार यह ज़रूरत भी बन जाता है। कुछ व्यक्तियों की आदत होती है कि वे किताबें पढ़कर लौटाते नहीं। चन्द लोग ऐसे भी होते हैं जो चुपके से किताबें उठा ले जाते हैं। इसे शायद हम चोरी कह सकते हैं। लेकिन, अगर कोई व्यक्ति बगैर पूछे किताब लेता है तो क्या वह सिर्फ छपाई ले रहा है जो जिल्दों के भीतर कागज़ पर की गई है? क्या वह चित्र और उनके आकार, रंग और बनावट चुरा रहा है? क्या वह किताब में छपे हर्फ़ों के मायने और खयाल चुरा रहा है? दरअसल वह क्या चुरा रहा होता है?
किताब शायद एक ऐसी भौतिक वस्तु है, जो हमें जानकारी, ज्ञान और साहित्यिक रसास्वाद के अलौकिक-अभौतिक आनन्द का स्पर्श कराती हैं। जिस व्यक्ति को साहित्य के आनन्द का अनुभव किताबों के जरिए मिलने लगता है, उसे हम पुस्तक प्रेमी कह सकते हैं।
बुक थीफ ऐसी एक किशोरी की कहानी है जिसे किताबों से प्यार हो जाता है। और, यह प्यार उसकी ज़िन्दगी बदल देता है। कहते हैं ना कि एक किताब ज़िन्दगी बदलने के लिए काफी है। इस कहानी में भी ऐसा ही कुछ होता है। कहानी 1938 के जाड़े से शुरू होती है और 1945 तक चलती है। लीज़ल (सोफी निएलीज़) अपनी माँ और छोटे भाई के साथ रेल में यात्रा कर रही होती है। यात्रा के दौरान भाई की मृत्यु हो जाती है। पटरी के पास एक कब्रिस्तान में उसे दफनाया जाता है। वहीं लीज़ल को एक किताब मिलती है – द ग्रेवडिगर्स हैण्डबुक (कब्र खोदने वाले की विवरण पुस्तिका)। वह किताब अपने पास रख लेती है। इसके बाद उसकी माँ गायब हो जाती है। सरकार द्वारा जर्मनी के किसी छोटे शहर में लीज़ल को एक परिवार में दत्तक दे दिया जाता है। कहानी में आगे चलकर लीज़ल को पता चलता है कि उसकी माँ कम्यूनिस्ट होने की वजह से उसे छोड़कर चली गई थी। नाज़ी जर्मनी में साम्यवादी होना गुनाह था।
उसकी नई माँ, रोज़ा ह्यूबरमैन (एमेली वॉटसन) ऊपर से अक्खड़ लेकिन भीतर से नर्मदिल इन्सान है, जबकि उसके नए पिता हॅन्स ह्यूबरमैन (जोफ्री रश) सीधे-सादे दयालू प्रौढ़ हैं। पड़ोस में रहने वाला रूडी स्टेनर (निको लिअर्श) लीज़ल का दोस्त बन जाता है जो स्कूल में सहपाठी भी हैं। शुरुआत में संकोची और अन्तर्मुखी नज़र आने वाली लीज़ल को अपने नए परिवार के साथ तालमेल बैठाने में कुछ दिक्कतें पेश आती हैं। लेकिन जैसा कि आम तौर पर वयस्क कल्पना भी नहीं कर सकते, बच्चों में परिस्थितियों के साथ – खास तौर पर प्रतिकूल और चुनौतिपूर्ण परिस्थितियों के साथ – सामंजस्य बैठाने की अद्भुत क्षमता होती है। वह अपने नए पिता के दोस्ताना होने और नई माँ के कठोर होने का अहसास पा लेती है।
पहली बार जब वह रूडी के साथ चहलकदमी करते हुए स्कूल पहुँचती है तो देखती है कि पत्थर की एक ऊँची और मजबूत इमारत सिर ताने खड़ी है। दरवाज़े के दोनों ओर राष्ट्रध्वज फहरा रहे हैं। उसकी नज़रें झण्डों पर जम जाती है और भोले चेहरे पर हल्की घबराहट और चिन्ता तैरने लगती है। परदे से उसके चेहरे का क्लोज़-अप अचानक विलोपित हो जाता है और तत्कालीन जर्मनी के राष्ट्राध्यक्ष अडोल्फ हिटलर की तस्वीर परदे के केन्द्र में प्रकट होती है, जिसे राष्ट्रध्वज के तोरण से सजाया गया है।
स्कूल का पहला ही दृश्य दो सम्बन्धों को रेखांकित करता है, स्कूल और राष्ट्र का सम्बन्ध तथा राष्ट्र और शासक का सम्बन्ध। यहाँ ज्ञान के केन्द्र पर तानाशाह शासक काबिज है। कक्षा में शिक्षिका उसका नाम पूछती है और श्यामपट पर लिखने का आदेश देती है। लीज़ल अपने बाएँ हाथ से बोर्ड पर तीन क्रॉस बनाती है। कक्षा में ठहाके गूँजने लगते हैं। जाहिर है कि वह लिखना नहीं जानती।
बालकेन्द्रित शिक्षण व रचनावाद के आगमन से पहले माना जाता था कि कक्षा का ढाँचा एक साँचे की तरह होता है, जिसमें विद्यार्थी को गीली मिट्टी बनकर आकार ग्रहण करना होता है। कक्षा का माहौल और संस्कृति उस भट्टी के समरूम माने जाते थे जो साँचे में कैद गीली मिट्टी को तपाकर ठोस आकार देते हैं। लीज़ल की कक्षा ठीक वैसी ही है। हालाँकि रचनावादी नवाचारों ने स्कूली शिक्षा के उस ढाँचे को खारिज करने की कोशिशें की हैं, लेकिन अनेक शिक्षक, शिक्षाविद्, नीति निर्माता और अभिभावक उस तरह की शिक्षण प्रक्रिया को आज भी उचित, उपयोगी और प्रभावी मानते हैं।
कक्षा में बाहर लीज़ल का मज़ाक उड़ाया जाता है। इस पर वह एक सहपाठी को बुरी तरह पीटती। कुछ देर बाद रूडी से उस घटना पर बात करते हुए वह एक मार्मिक बात कहती है – “मैं पढ़ना-लिखना नहीं जानती, इसका मलतब यह नहीं कि मैं मूर्ख हूँ।”
हम जानते हैं कि शिक्षा का दायरा अक्षरज्ञान से परे, व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास तक फैला हुआ है। भावी वयस्क को समाज के एक उपयोग सदस्य और राष्ट्र के एक विचारशील नागरिक बनने में मदद करने का भी है। विद्यार्थियों की इस शिक्षण-प्रक्रिया में सामाजिकता, मूल्यबोध, जिज्ञासा, तार्किक चिन्तन, समस्याओं से जूझना, भावनात्मक विकास जैसे तमाम तत्व अन्तर्भूत हैं जो उन्हें एक वयस्क के रूप में सार्थक और सन्तुष्ट ज़िन्दगी जीने में मदद करते हैं। साक्षरता इसका एक छोटा-सा हिस्सा है।
स्कूल से लौटते वक्त रूडी और लीज़ल रेस लगाते हैं और सड़क किनारे जमी बर्फ में गिर जाते हैं। मैले हुए कपड़ों को देखकर लीज़ल की माँ डाँटती है। रात के बिस्तर पर लेटी लीज़ल की गहरी नीली आँखों में आँसू हैं और सीने से किताब चिपकी हुई है – द ग्रेवडिगर्स हैण्डबुक! वह पढ़ना नहीं जानती, लेकिन इस किताब के साथ उसके मृत भाई और लापता माँ की आखिरी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। शायद इसलिए उसके लिए इस किताब का स्पर्श अपनत्व का अहसास कराता है। निरक्षर लीज़ल के लिए किताब स्मृति जागरण का एक जरिया है।
उसी रात हॅन्स उससे बात करता है। सीने से चिपकी किताब देखकर हॅन्स को जिज्ञासा होती है और वह किताब के पन्ने पलटकर देखने लगता है। जब वह उस किताब के बारे में पूछता है तो पहले तो लीज़ल कहती है यह किताब उसकी है। दूसरी बार पूछने पर वह कहती है – “यह किताब हमेशा से मेरी नहीं थी।”
हेही वाचा : द पियानिस्ट : युद्धाच्या दर्शनाने मने बेचिराख करणारा चित्रपट - संजय भास्कर जोशी
किताब, वह कोई भी हो, क्या कभी किसी व्यक्ति की हो सकती है? बात किताब की कीमत चुकाकर उसे हासिल करने तक सीमित नहीं है। किताब का मजमून, उसमें लिखे खयाल, उसकी कल्पना, सिद्धान्त, उपमाएँ, दृष्टान्त, अवलोकन, निष्कर्ष, अर्थ… क्या किताब किसी एक व्यक्ति की हो सकती है? क्या कोई लेखक या विचारक या साहित्यकार या उपदेशक या शिक्षक या कोई भी… दावा कर सकता/सकती है कि उसकी लिखी किताब में 'उसकी अपनी’ है! सिर्फ उसकी अपनी? शायद नहीं।
जिसे हम ज्ञान मानते हैं, वह गतिशील है, वर्धमान है। लीज़ल के कथन – “यह किताब हमेशा से मेरी नहीं थी।” – में 'किताब' की जगह 'ज्ञान' रखकर हम कह सकते है कि ज्ञान किसी एक का नहीं होता, स्थिर और जड़ नहीं होता। वह अलग-अलग लोगों के बीच होने वाली अन्तर्क्रियाओं के जरिए अनवरत रूपान्तरित और विकसित होता रहता है। लेकिन जब हम स्कूल नामक संस्था की चाहरदीवारी में कदम रखते हैं, वहाँ के माहौल, प्रक्रियाओं और पाठ्यपुस्तकों, परीक्षाओं वगैरह की पड़ताल करते हैं तो ज्ञान को स्थिर मानवाने की ज़िद दिखाई देती है। ऐसे बहुत कम स्कूल हैं जो समस्त शालेय प्रक्रियाओं में रचनावादी नवाचारों का अमल कर पाते हैं।
किताब के अर्थबोध की बात की जाए, तो हर पाठक मायनों की रचना करने के लिए आज़ाद होता है। दरअसल, ऐतिहासिक रूप से वही किताब अमर या क्लासिक होने का दर्जा पा सकी है जिसने समय और स्थान की सीमाओं से परे जाकर पाठकों को नए अर्थ खोजने और गढ़ने की आज़ादी दी है। इस रूप में किताब, भले ही उसके हर्फ़, जिल्द और रंग-रूप हज़ारों प्रतियों में एक जैसे हों; हर पाठक उसे पढ़ते हुए, यानी अन्तर्क्रिया करते हुए, नए रूप में देखता-समझता है। इस प्रक्रिया में हर पाठक एक तरह से किताब को पुनर्सृजित कर रहा होता है। लीज़ल हमें याद दिलाती है कि किताब किसी एक की नहीं होती, ना किसी एक लेखक की और ना ही किसी एक पाठक की।
उसी रात हॅन्स को पता चलता है कि लीज़ल पढ़ नहीं सकती। वह उसके पास मौजूद इकलौती किताब – द ग्रेवडिगर्स हैण्डबुक के जरिए पढ़ाना शुरू करता है, धीरे-धीरे लीज़ल को पढ़ने में मज़ा आने लगता है और वह किताबों की दिवानी हो जाती है। एक विवरण-पुस्तिका भी किसी बच्ची में पढ़ने की ललक जगाने के लिए पर्याप्त हो सकती है!
रोज़ाना रात को सोने से पहले वे कुछ पन्ने पढ़ते हैं। किताब एक बार पूरी पढ़ना हो जाने के बाद लीज़ल उसे फिर पढ़ना चाहती है। हॅन्स उसे टालकर एक सरप्राइज़ देता है। वह उसे घर के तहखाने में ले जाता है। वहाँ दीवारों पर वे तमाम नए शब्द लिखे होते हैं जो किताब में उन्होंने सीखे थे। हॅन्स यहाँ एक विचारशील शिक्षक की भूमिका में नज़र आता है। जिज्ञासू विद्यार्थी के लिए किसी किताब को पढ़कर खत्म करने का रोमांच अद्भुत होता है। कई बार विद्यार्थी आग्रह करने लगते हैं कि वही किताब फिर पढ़ी जाए। जाहिर है कि वे उस रोमांच को फिर-फिर पाना चाहते हैं, अधिकाधिक बार अनुभव करना चाहते हैं। लेकिन, विचारशील शिक्षक के लिए ज़रूरी है कि वह विद्यार्थी को नए अनुभव दे, नई चुनौतियों से सामना कराए। यहाँ वायगोस्त्सकी याद आते हैं। लीज़ल द्वारा निकट विकास क्षेत्र की एक पायादान पर चढ़ जाने के बाद हॅन्स स्कैफोल्डिग करते हुए उसके अधिगम का अपेक्षित स्तर थोड़ा और ऊँचा करते हुए उसके सामने एक रोचक चुनौती पेश करते हैं। वह यहाँ किसी अभिभावक से कहीं ज़्यादा, एक जागरूक शिक्षक के रूप में नज़र आते हैं।
एक दृश्य में खाकी गणवेश में कतारबद्ध विद्यार्थी गीत गा रहे हैं। उनके सिर पर स्वस्तिक चिह्न वाले तीन विशाल जर्मन ध्वज लटक रहे हैं। गीत में कहा जा रहा है – "हम जर्मन स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करना चाहते हैं। हम यहूदियों और गैर-जर्मनों के साथ भाईचारा नहीं बरतना चाहते। क्योंकि वे जर्मन स्वतंत्रता को झुठलाते हैं।" कुछ देर बाद गायन पार्श्वध्वनी के रूप में चलता रहता है और परदे पर सैनिक, जिनकी बाहों पर स्वस्तिक वाले जर्मन ध्वजा की पट्टी बन्धी है, बन्दूक के कुन्दे से दुकानों की शीशे तोड़ रहे हैं। पार्श्व में विद्यार्थियों का कोरस जारी है। वे दुकान से कुछ पुरुषों और महिलाओं को घसीटकर सड़क पर ला पटते हैं और पीटाई करते हैं। विद्यार्थियों का समवेत स्वर में गायन जारी है। जहाँ कैमरा थोड़ा पीछे हटकर रास्ते का विहंगम दृश्य दिखाता है तो दुकानों के बोर्ड से पता चलता है कि ये दुकानें यहूदियों की हैं। विद्यार्थियों का अनुशासित स्वर में कोरस गायन आपके कानों में गूँजता रहता है।
स्कूल में अकादमिक और गैर-अकादमिक जो भी प्रक्रियाएँ होती हैं, वे समाज में घटित हो रही प्रक्रियाओं से अलहदा नहीं होती। स्कूल और समाज दोनों एक-दूसरे से जुड़े होते हैं और एक-दूसरे पर असर ड़ालते हैं, एक-दूसरे को लगातार बदलते रहते हैं। इसे हम अपने आसपास के अनुभवों से जोड़कर देख सकते हैं। इसलिए शिक्षा से सरोकार रखने वाले लोगों के लिए सचेत और संवेदनशील रहने की ज़रूरत है। ताकि वे अपने विद्यार्थियों में शालेय प्रक्रियाओं और समाज की घटनाओं के प्रति आलोचनात्मक चिन्तन विकसित करने में मदद कर सकें। हालाँकि लीज़ल का स्कूल ऐसा कुछ नहीं करता, बल्कि समाज और शासन के प्रभाव को यथावत आत्मसात करके विद्यार्थियों तक वही मूल्य हस्तान्तरित करने की कोशिश करता नज़र आता है।
फिल्म में एक घटना अप्रैल 1939 की है। जर्मन राष्ट्र के नेता (फ्यूरर) का जन्मदिन है। हर घर पर राष्ट्रध्वज फहरा रहा है। बच्चे-बूढ़े सभी लोग जलसे में शामिल होने के लिए तैयार होकर निकलते हैं। मंच से मेयर भाषण दे रहा है – "राष्ट्र की उन्नति के लिए हम अपना नैतिक और बौद्धिक शुद्धिकरण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। शिक्षा, रंगमंच, सिनेमा, साहित्य, समाचार माध्यम – ये राष्ट्र का विशिष्ट व्यक्तित्व गढ़ने वाले आधारस्तम्भ हैं।” सामने खड़ी जनता हुँकार भरती है। मंच से भाषण जारी रहता है, “आज रात हम यहाँ इसी लिए इकट्ठे हुए हैं कि हम खुद को बौद्धिक गन्दगी से मुक्त करें!” तभी, मशाल थामे दो सैनिक आगे बढ़ते हैं और किताबों के विशाल ढेर को जला देते हैं। जनता हर्षध्वनि से इस कृत्य का समर्थन करती है। भाषण जारी रहता है और कम्यूनिस्टों और यहूदियों को राष्ट्र का शत्रु बताकर उन्हें खत्म करने की बात की जाती है।
इस बीच रूडी और लीज़ल का एक सहपाठी, जो बाल-सैनिक है, उन्हें एक-एक किताब थमाकर जलाने को कहता है। वह लीज़ल से यह भी कहता है कि तुम्हारी माँ कम्यूनिस्ट है, राष्ट्र की दुश्मन है। जाहिर है कि बाल सैनिक ने यह बात स्कूल, समाज और शासन के उस वृतान्त से ग्रहण की है जो कोरस की तरह एकरूप हो चुका है। रूडी तो आगे बढ़कर किताब आग में फेंक देता है। लेकिन लीज़ल काफी संकोच के बाद अपने हाथ की किताब आग के हवाले करती है।
अगले दृष्य में धुएँ के गुबार और अन्धेरी-सर्द सड़क पर बिखरे पन्नों के बीच चलते हुए लीज़ल राख के ढेर के पास पहुँचती है। सड़क सूनसान है। लीज़ल एक अधजली किताब उठाकर कोट में छिपा लेती है। तभी मेयर की गाड़ी वहाँ से गुज़रती है और उसकी पत्नी इल्सा हरमन (बारबरा ऑर) यह देख लेती है। लीज़ल भी उसे जाते हुए देखती रहती है।
हॅन्स को उस जलती हुई किताब का पता चलता है तो वह किताब छिपाकर लीज़ल से वादा करता है कि यह रहस्य उन दोनों के बीच रहेगा। वह किताब होती है एच.जी. वेल्स की द इनविज़बल मैन। किताब का पहला अध्याय शुरू होता है – द स्ट्रेंज मैन्स अराइवल, तभी दरवाज़े पर दस्तक होती है। यह एक यहूदी नौजवान मैक्स वैन्डनबर्ग (बेन शेनेत्ज़र) है जिसे हॅन्स अपने घर के तहखाने में पनाह देता है। एक युद्ध के दौरान उसके पिता हॅन्स की जान बचाकर खुद शहीद हो जाते हैं, इस अहसान के बदले वह मैक्स को अपने घर में छिपाकर रखता है। लीज़ल और मैक्स की अच्छी दोस्ती हो जाती है और साथ किताबें पढ़ने का सिलसिला शुरु होता है।
एक दिन रोज़ा लीज़ल से कहती है कि वह धुलाई किए हुए कपड़े मेयर के घर पहुँचा दे। मेयर की पत्नी लीज़ल से परिचय पूछती है और कुछ औपचारिक बातें करती हैं। इस बातचीत से उन दोनों के बीच एक भावनात्मक रिश्ता बनता है और इल्सा उसे किताबों का अपना संग्रह उसे दिखाती है। वहाँ बैठकर किताब पढ़नी की इजाज़त लीज़ल को मिल जाती है। कुछ दिनों बाद मेयर यह देख लेता है और उस घर में लीज़ल का प्रवेश बन्द हो जाता है।
मैक्स मरणासन्न है। उसे लीज़ल कुछ पढ़कर सुनाना चाहती है लेकिन कोई किताब है नहीं। वह खिड़की के रास्ते छिपकर मेयर घर में दाखिल होती है और वहाँ से एक किताब ले आती है। इस तरह वह साथ पढ़ने का सिलसिला जारी रखती है, मैक्स की बेहोशी की हालत में भी! कुछ समय बाद रूडी को पता चलता है कि लीज़ल ने मेयर के घर से कुछ चुराया है, वह भी किताब! वह लीज़ल को ‘बुक थीफ’ कहकर उलाहना देता है। जवाब में लीज़ल कहती है – "मैंने किताब चुराई नहीं, उधार ली है।"
दरअसल कहानी के भीतर छिपी परतें सत्ता और समाज द्वारा किए जा रहे व्यवहार की ओर इशारा करती हैं। सत्ता कहती है कि बौद्धिक गन्दगी मिटाने के लिए किताबें जला देनी चाहिए। निर्विचार और अतार्किक होने की राह पर बढ़ रहा समाज किताबें आग में झौंक देता है। इस तरह सत्ता और समाज किताबें चुरा रहा है और ऐसा करते हुए ज्ञान के आलोक से, तार्किकता से, जानकारियों और सवालों से बच भी रहा है, अपना जी चुरा रहा है। इस अन्धे युग में एक किशोरी, मेयर के निजी पुस्तकालय से और फिर जलते ढेर में से किताब उठा लेती है। इस नज़रिए से देखने पर लीज़ल हमें चोर नहीं, बल्कि किताबों की मुहाफिज़ नज़र आती है जो किताब अलमारी और आग से बाहर नहीं निकालती, बल्कि अन्धेरे से उजाले में लाती है।
कहानी नवम्बर 1942 में पहुँचती है, जर्मनी के खिलाफ इंग्लैण्ड ने युद्ध की घोषणा कर दी है। हवाई हमलों से बचने के लिए लीज़ल के मोहल्ले के सारी औरतें, बच्चे और चन्द बूढ़े बंकर में बैठे धमाकों से सिहर रहे हैं। अचानक लीज़ल कुछ कहना शुरु करती है। पहले तो लोगों को ताज्जुब होता है कि इस आफत की घड़ी में कुछ कहने का हौसला किसी बच्ची को कैसे हो सकता है। फिर उन्हें पता चलता है कि वह कोई कहानी कह रही है। कुछ पल रुककर वह कहानी आगे बढ़ाती है। कहानी जीवन से प्यार होने और डर को जीत लेने के बारे में है, जो लीज़ल ने खुद गढ़ी है। साहित्य, वैसे तो 'इस्तेमाल की चीज़’ नहीं है, मगर वह कई मौकों पर काम आता है। लीज़ल की कहानी उसके पड़ोसियों में आशा और हौसले का रोशनी भरती है।
दो घण्टे ग्यारह मिनट की यह फिल्म पूरी तरह शिक्षा और स्कूल पर केन्द्रित नहीं है; बचपन, अभिभावकत्व, युद्ध, मानवतावाद, राष्ट्रवाद, नागरिक की भूमिका आदि जीवन के तमाम रंगों से इसके कैनवास पर बखूबी सजाया गया है। इसलिए इस फिल्म में सभी को अपने लिए कुछ नए मायने मिल सकते हैं। यह फिल्म मार्कस ज़ुसैक द्वारा लिखे उपन्यास द बुक थीफ (2005) पर आधारित है।शिक्षा से सरोकार रखने वाले व्यक्तियों को यह फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए या फिर उपन्यास पढ़ना चाहिए। ताकि स्कूल के जरिए रिसकर दिलो-दिमाग को काबू कर लेने वाली तानाशाह सोच के प्रति वे थोड़ा अधिक जागृत, थोड़ा अधिक सचेत और थोड़ा अधिक संवेदनशील हो सकें।
- अमित कोहली
amit-kohli@outlook.com
(लेखक, लोक बिरादरी प्रकल्प, हेमलकसा (गढचिरोली) में वालंटीयर के रूप में काम करते है)
'द बुक थीफ' इस फिल्म का ट्रेलर :
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