कला का काम समाज को बदलना नहीं बल्कि बदलते समाज को डॉक्युमेंट करना होता है

गुफ़्तगू वरुण ग्रोवर के साथ...

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गीतकार, लेखक, पटकथालेखक, संवादलेखक, स्टैंडअप कॉमेडीयन... कला के इन सभी क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़नेवाले हरफनमौला शख़्स वरुण ग्रोवर...

वरुण के मनोरंजन क्षेत्र के सफ़र की शुरुवात हुई 2004 में. 'स्टार वन' इस चैनल के 'द ग्रेट इंडियन कॉमेडी शो' इस कार्यक्रम से उन्होंने अपने करियर की शुरुवात की, लेकिन वरुण को पहचान मिली सन 2012 में प्रदर्शित हुई अनुराग कश्यप की फ़िल्म 'गैंग्स ऑफ वासेपुर'के लिए लिखे गीतों की वजह से. हाल ही में 'गार्डियन'ने दुनियाभर के 100 बेहतरीन फिल्मों में 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' का शुमार किया है. इस फ़िल्म को इतनी ऊंचाईपर पहुंचाने में वरुणने इस फ़िल्म के लिए लिखे 17 गानों का अहम योगदान रहा है.

2015 में आयी फ़िल्म 'मोह मोह के धागे' इस गाने के लिए वरुण को नैशनल अवार्ड से नवाज़ा गया. बतौर पटकथा लेखक वरुण का नाम सुर्खियों में आया हमारी समाज और जातीव्यवस्था की परतें खोलनेवाले 'मसान' फ़िल्म की वजह से. जमाने के साथ बदलते हुए उन्होंने वेबसीरीज के लिए भी लेखन किया है. 'सेक्रेड गेम्स' यह लोकप्रिय वेबसीरीज वरुण के ही कलमसे निकली है.

एक ओर संवेदनशीलता को टटोलते गीत और पटकथा, तो दूसरी तरफ इंसानी फ़ितरत के काले कारनामों को बेबाकी से प्रस्तुत करनेवाली वेबसिरिज, सभी को अपने कलम से चार चाँद लगाने में वरुणने कोई कसर नहीं छोड़ी है. बात यहीं पर ही ख़त्म नही होती, इन सब के अलावा वरुण स्टैंडअप कॉमेडी भी करते है. उनकी 'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी' के शोज़ दुनियाभर में होते है. इंटरनेटपर उनके स्टैंडअप खासे लोकप्रिय और चर्चित रहे है. हम भारतीयों की मानसिकता, हमारे स्वभाव में मौजूद कॉण्ट्राडिक्शन्स इन सब का सूक्ष्मता से निरीक्षण करनेवाले वरुण यहां की सामाजिक और राजनैतिक विषयोंपर उपहास और नुक्ताचीनी करते हुए वो हमें अंतर्मुख करते रहते है.

'आयआयटी'से पासआउट हुआ ये नौजवान मोटी रकमवाली नौकरी छोड़कर लेखक बनने के लिए मुंबई आया और एक से बढ़कर एक कलाकृतियों का निर्माण किया. क्लास और कंसिस्टेंसी की बेहतरीन मिसाल यानी वरुण ग्रोवर.

ज़िंदगी की तरफ़ देखने का नज़रिया, लिखने की प्रेरणा और ऐसे कई पहलूँपर हरफ़नमौला वरुणसे की गई गुफ़्तुगू...

समीर: वरुणभाई, जनवरी में आप उम्र के ४० साल पुरे करेंगे. पर आप को स्क्रीनपर देखकर लगता है मानो २५-२८ का कोई युवा है. गूगल खंगालने तक उम्र का अंदाज़ा ही नही आता. खैर, मैं पहले सवाल पर आता हूँ, हिमाचल में आपका जन्म हुआ, फिर वहाँ से देहरादून, उत्तराखंड और आखिर में लखनऊ, उत्तरप्रदेश. पढाई के सिलसिले में ये हिजरत हुई या घरवालों की (मम्मी- पापा) जॉब इसका सबब बनी?

वरुण: मेरे पिताजी मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस (MES) में कार्यरत रहे उम्र भर. तो इस चक्कर में हर कुछ साल में ट्रांसफ़र होना साधारण बात थी. इसलिए पहले हिमाचल, फिर देहरादून, फिर लखनऊ, और फिर चंडीगढ़ उनका तबादला हुआ. हम जहाँ भी जाते माँ वहाँ के स्कूल में पढ़ाने का काम खोज लेतीं. और हर जगह उनको टीचर की तौर पर बहुत इज़्ज़त मिली.

समीर: आपके मम्मी और पापा, दोनो उच्चशिक्षित है. दोनो नौकरी करते थे. यानी घर में पढ़ाई-लिखाई का माहौल तो होगा ही. पढ़ाई में आप कैसे थे? तब बड़ा होकर क्या बनने का ख़्वाब देखते थे आप?

वरुण: बचपन से पढ़ने लिखने का बहुत शौक़ था और स्कूली किताबों के अलावा भी हम दोनों भाई (मेरा एक छोटा भाई है, तरुण) बाल उपन्यास और पत्रिकाएँ जम कर पढ़ते थे. मेरा भाई तो हमेशा ही क्लास में फ़र्स्ट आता था और मैं हमेशा टॉप 3 में रहता था.

मुझे बचपन से ही मन था कि बड़ा होकर लेखक बनूँ लेकिन कोई रास्ता नहीं पता था. और मैंने शर्म के मारे ना ही किसी से पूछा. एक बार एक लाइन पढ़ी थी कहीं कि अच्छी किताब वो होती है जिसे पढ़ते ही आपके मन में मलाल आए कि काश इसका लेखक/लेखिका मेरा/मेरी दोस्त होता/होती. तब से मैं लेखकों के नामों पे ध्यान देने लगा. उससे पहले किताबें जादुई लगती थीं. मानो वो हमेशा से exist करती हों और उन्हें किसी ने लिखा ही ना हो- वो प्रकट हुयी हों. लेकिन धीरे धीरे ये समझ आयी कि किताबों को प्रकट होने के लिए भी एक निमित्त चाहिए, एक ज़रिया. और वो ज़रिया होता है- लेखक.

समीर: आईआईटी में प्रवेश पाना किस का सपना नहीं होता! पढ़ाई में एवरेज होनेवाले बच्चे तो आईआईटी जैसी बड़ी संस्थाओं की प्रवेश परीक्षाओं के लिए अप्लाई करने से भी कतराते है. आप तो यह प्रवेश परीक्षा पास कर आयआयटी बनारस में आ गए, और 2003 में ग्रेज्युएशन भी पूरा कर लिया था, इस सफ़र से हमें थोड़ा रूबरू कराइये.

वरुण: IIT-JEE पास कर लेना तब तक की मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी. हालाँकि आज समझ आता है कि ये 'merit' का पूरा concept ही काफ़ी खोखला है और IIT में पहुँचने के पीछे मेरी मेहनत का जितना हाथ था उतना या उससे अधिक मेरे privilege का भी था. एक मध्यम-वर्गीय सवर्ण हिंदू परिवार में जन्म लेना, मेरे लिए वो लॉटरी थी; जिसने मुझे वो मौक़े दिए जो अक्सर लोगों को नहीं मिलते.

1999 में जब एंजिनियरिंग करने बनारस पहुँचा तो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी (BHU) और बनारस शहर दोनों से ही बेहिसाब प्यार हो गया. वहाँ बिताए हुए चार साल मुझे जीवन भर के रिश्ते, समझ, और confidence दे के गए जिन्हें मैं आज भी भुना रहा हूँ.

समीर: फिर आईआईटी की पढ़ाई ख़त्म कर के आप सीधे पुणे आ गए, और यहां एक आईटी कंपनी में नौकरी जॉईन कर ली. उस दौर में आयटी फिल्ड का अपना रुतबा था, क्रेज़ भी था नौजवानों में. पर इसके बावजूद आपने 2002 से 2003 तक, यानी बमुश्किल एक ही साल नौकरी कर इस फिल्ड को अलविदा कहां. क्या हुआ था तब?

वरुण: मैंने नौकरी पुणे में ली ही इसलिए थी कि वहाँ FTII है और मुंबई नज़दीक है. मुझे IT की नौकरी का कोई शौक़ नहीं था और join करने के बाद तो बची खचि इच्छा भी भस्म हो गयी. 11 महीने के अंदर ही मैंने इस्तीफ़ा दे दिया और मुंबई को रवाना हो गया.

समीर: बच्चा अगर आयआयटी ग्रेज्युएट हो, तो माँ-बाप उसके भविष्य को लेकर निश्चिंत हो जाते है. पर आपने तो मोटी तनख्वाह और ऐशो-आराम वाली ज़िंदगी को छोड़ अनिश्चितताओंवाला सफर चुनने का फैसला किया, इसपर घरवालों की क्या रिएक्शन थी?

वरुण: माता पिता ने बचपन से ही अपने रास्ते ख़ुद चुनने की सीख दी है और हमेशा बड़ी ईमानदारी से इसका हिस्सा निभाया भी है. जब मैंने कहा मैं पुणे की नौकरी छोड़कर मुंबई में लेखक बनने जा रहा हूँ तो पिताजी ने एक बार भी नहीं पूछा कि कैसे होगा या ठीक से सोचा है क्या. तुरंत बस इतना ही कहा कि अगर कोई ज़रूरत हो तो बता देना. माँ का भी लगभग यही reaction था. यहाँ एक बार फिर मेरा privilege- मेरे जन्म की लॉटरी, मेरे काम आयी.

समीर: महाराष्ट्र में एक हरफनमौला शख्स हुए थे. आचार्य अत्रे. अत्रे लेखक, पत्रकार, संपादक, राजनेता, दिग्दर्शक और आला दर्जे के सटायरिस्ट थे. उन्होंने कहा था की गालियाँ अगर साहित्य का हिंसक रूप है तो व्यंग विनोद उसका अहिंसक स्वरुप होता है. आप उस हिसाब से गाँधीवादी प्रतीत होते है. कॉमेडी, सटायर आदि की आपकी फिलोसॉफी क्या है?

वरुण: व्यंग्य को लेकर मेरी सोच बनी है शरद जोशी, हरिशंकर परसाई, और श्रीलाल शुक्ल को पढ़कर/सुनकर. सैटायर में एक बहुत गहरा सच, अक्सर कड़वा सच होना चाहिए जिसे बिना कॉमडी की मदद की कहना नामुमकिन सा ही हो.

समीर: 'आज के दौर में विरोधियों (लिब्रल्स) के मुकाबले लायक एक ही अस्त्र बचा है जो है व्यंग या सटायर.' ऐसा रामचंद्र गुहा ने पिछले साल लिखे एक लेख में कहा था. ‘ऐसी तैसी डेमोक्रेसी’ जैसे कार्यक्रम और उनकी लोकप्रियताने गुहा के विश्लेषण को बिलकुल अमली जामा पहनाया है ऐसा लगता है, इस बारें में आप क्या सोचते है?

वरुण: मुझे लगता है अगर liberals के पास सिवाय व्यंग्य के कोई और अस्त्र नहीं बचा तो liberals ये लड़ाई पहले ही हार चुके हैं. कला का काम मुख्यतः समाज को बदलना नहीं होता बल्कि बदलते समाज को document करना, उसे आइना दिखाना, या उसकी तारीफ़/आलोचना करना होता है. बहुत लोग अपने अपने स्तर पर लड़ रहे हैं हमारे देश और संस्कृति की diversity को बचाने के लिए. कला सिर्फ़ एक छोटा सा हिस्सा है.

समीर: आज युवाओं में स्टैंडअप कॉमेडी खासे लोकप्रिय हो रहे है. Dissent दर्ज करनेका यह एक जरिया बनती जा रही है. आप और आप जैसे कई नौजवान स्टैंडअप कॉमेडी के ज़रिये खुलकर पोलिटिकल स्टैंड लेते दिखाई देते है. जहाँ मुख्यधारा के माध्यम सरकार और सत्ताधारियों पर टिका-टिप्पणियाँ करने में कतराते है, वही आप की जमात बिल्कुल निड़र होकर व्यंगबाण चलाते जा रहे है. यह हिम्मत आती कहाँ से है?

वरुण: ये हमेशा से रहा है. हमारे देश की परम्परा रही है विदूषक की. राजा के दरबार में एक विदूषक रहता था हमेशा, जो राजा पर भी कटाक्ष करने की ताक़त रखता था. और ख़ुद राजा ही उसे तनख़्वाह और सम्मान देता था. आज़ादी के बाद हास्य कवि सम्मेलन की परम्परा रही जो आज तक चल रही है. हर दौर में विदूषक और कवि ये जगह लेते रहे हैं. आज भी वही स्थिति है.

समीर: अच्छा, इसलिए आपके ट्विटर हैंडल का नाम 'विदूषक' रखा आपने. इस तरह के कौनसे कार्यक्रमोंने आपको सबसे ज़्यादा प्रभावित किया?

वरुण: सबसे पहले तो जसपाल भट्टी सांब का 'फ़्लॉप शो'. उसके अलावा शेखर सुमन का Movers and Shakers. फिर हाल फ़िलहाल में ट्रेवर नोआह और जॉन ओलिवर के late night shows.

समीर: वरुण, आप के सफर को देखूँ तो निदा फाजली का शेर याद आता है, ‘एक आदमी में छुपे होते है दस बीस आदमी, जिस को भी देखना हो, कई बार देखना.’ एक तरफ अव्वल दर्जे का सटायर- कॉमेडी, वही दूसरी तरफ संवेदनशील पटकथाकार, राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त गीतकार और न जाने क्या क्या...कैसे कर पाते आप ये?

वरुण: मैंने कुछ भी प्लान नहीं किया. बस सब होता चला गया. मुझे लिखने का चस्का है और अलग अलग experience लेने का भी. मैं सब लिखना चाहता हूँ- हर तरह का genre, हर भाषा की एक फ़िल्म, हर तरह के काग़ज़ पे छापने वाले उपन्यास. सब तो नहीं कर पाउँगा क्योंकि जीवन छोटा है और रास्ते तंग. लेकिन जो जो सबसे अधिक पसंद था - गीत, क़ौमेडी, और फ़िल्में - तीनों लिखने की कोशिश की और धीरे धीरे आगे बढ़ा. अभी भी सीख ही रहा हूँ.

समीर: राज्यसभा टीवी को दिए इंटरव्यू में आपने कहा था की- 'मुझमे भी अप्पर कास्ट मेल प्रिजूडायसेस है’. इस बात का रियलायजेशन कब हुआ और उसे मिटाने में कामयाबी कैसे हासिल की आपने? कामयाबी इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि  वाराणसी में मुर्दों को जलाने का परंपरागत काम करनेवाली 'डोम' जाती के नौजवान की मनोदशा का यथार्थ चित्रण आपके द्वारा लिखी गयी 'मसान' फ़िल्म की पटकथा में प्रतिबिंबित होता है. इस फ़िल्म को मिले कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार इसी का सबूत है. इस सफर के बारे में कुछ विस्तार से बता पाएंगे?

वरुण: आप जिस घर, समाज, जाती, और धर्म में पैदा होते हैं उसकी छाप आपके अंदर बहुत गहरी होती है. इंसानी दुनिया अलग अलग मिथकों पर टिकी है- beliefs पर- और उनके बिना ये समाज, इसकी शांति और illusion of stability- सब ढह सकता है. पैसा क्या है? दस रुपए के नोट पे लिखा होता है मैं वादा करता हूँ मैं इस नोट के धारक को दस रुपए दूँगा. मतलब वो नोट दस रुपया नहीं दस रूपए का वादा है. फिर असली दस रुपया कहाँ है? वो exist ही नहीं करता- सिर्फ़ उसका वादा exist करता है. पैसा सिर्फ़ एक belief system है, धर्म और जाति और लिंग की तरह. लेकिन ये सारे system हमारे भीतर घुसे हुए हैं बहुत गहरे.

जब आपको धीरे धीरे समझ आने लगता है कि आपके जीवन में अधिकतर चीज़ें इस belief system में आप कौनसी पायदान पर पैदा हुए थे उसके चलते आपको मिली हैं तो आपका ego खोने लगता है. या खोना चाहिए. बहुत लोग resist भी करते हैं. जैसे शुरू शुरू में मैं मानता था कि नौकरी और education में reservation ग़लत है. मानता था क्योंकि मैंने बिना इसके बारे में पढ़े या सोचे, बस अपने आस-पास से ये धारणा उठा ली थी और फिर उसको कभी भी critically analyse नहीं किया. लेकिन जैसे जैसे आप ख़ुद को खोलते हैं- नए doubts को आने की जगह देते हैं, इन धारणाओं का अंधापन काटने लगता है.

समीर: आपमें मुझे हमेशा गाँधीवादी नजर आता है ऐसा शुरुआत में कहा मैंने. पर आप ही ने ‘सेक्रेड गेम्स’ जैसी आज के दौर की सबसे लोकप्रिय और चर्चित वेबसीरिज का लेखन किया, जिसमे मार काट, गाली-गलोच और हर एक तामसिक चीज़ है.. सात्विक स्वाभाव के वरुण इसमें भी अव्वल कैसे?

वरुण: तमस और उजाला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. एक के बिना दूसरा नहीं. हर वो चीज़ जिसमें किसी तरह के नए अध्ययन की सम्भावना है, मुझे पसंद है. विक्रम चंद्रा के Sacred Games उपन्यास में बहुत से ग़ज़ब के themes थे जिनसे भिड़ने का मन किया तो हम कूद गए.

समीर: वरुण, आज कल के दौर में हर एक को मामूली कीमत में एक-दो जीबी डेटा मिलने लगा और सही मानो में इंटरनेट का डेमोक्रेटायज़ेशन हो पाया. आपने इंटरनेट का सुरुवाती दौर भी देखा है. जब चंद ही लोगो के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध थी, तब से आप इंटरनेट से जुड़े है. हाल ही में आप का इन्टरनेट वाला स्किट काफी लोकप्रिय रहा. सोशल मिडिया और वर्चुअल स्पेस की बदौलत सामाजिक व्यवहार में क्या बदलाव महसूस किया आपने?

वरुण: दुनिया नज़दीक आ गयी है इंटरनेट के चलते. नज़दीक आ गयी है तो सबके डर भी बढ़ गए हैं. कहीं दूर का संकट- जैसे की refugee crisis - भी नज़दीक का लगता है और उसे लोकल नेता भुना सकते हैं लोगों को बाँटने में. इसके ठीक उलट, दूर का दुःख भी नज़दीक का लग सकता है और अमेरिका के स्कूल में हुए शूट-आउट की तस्वीरों से हम भी रो पड़ते हैं. तो इस समय दुनिया एक hyper-emotional state में से गुज़र रही है. सब कुछ बहुत तेज़ी से हो रहा है और बहुत ग़ज़ब की intensity से- और इस सब के बीच climate crisis ने अपने पत्ते और फेंक दिए हैं कि आओ बेटा ये बाज़ी भी हार लो.

कला के लिए बढ़िया समय है- हर संकट कला को और उर्वर बना देता है- लेकिन दुनिया के लिए मुश्किल.

समीर: मुश्किल से याद आया, सेक्रेड गेम्स के सबसे लोकप्रिय संवादों में से एक है, ‘देश संकट में है.’ वरुण जैसे हरफनमौला संवेदनशील व्यक्ती को क्या लगता है इसके बारे में? क्या देश सचमुच संकट में है?

वरुण: पूरी दुनिया संकट में है और इसका सबसे बड़ा कारण, climate crisis, अभी तक नज़र-अन्दाज़ किया जा रहा है.

समीर: बतौर लेखक, पटकथालेखक, गीतकार, स्टैंडअप कॉमेडियन आप खासे लोकप्रिय हो, पर आप पिछले दस साल से बच्चों के लिए कहानियां लिख रहे है. आपके इस पहलू के बारे में काफी कम लोग जानते है. आपके इस पहलूपर भी कुछ रोशनी डाले.

वरुण: मैं क़रीब दस सालों से एकलव्य द्वारा प्रकाशित पत्रिका 'चकमक' के लिए कहानियाँ, कविताएँ, और लेख लिख रहा हूँ. बच्चों के लिए लिखना मुझे बहुत पसंद है क्योंकि वहाँ ख़ुद के बहुत अंदर जाकर ख़ुद को simplify करना पड़ता है. समझ आता है कि हम आम जीवन में कितना उलझ गए हैं, कितनी जटिलता में तैर रहे हैं.

बच्चो की ग्राफिक नॉवेल बिक्सू का अस्सी प्रतिशत काम राज कुमारी (मेरी बीवी) ने ही किया है- उसे लिखना व हाथों से पूरा का पूरा स्केच करना. मैंने लेखन में सहयोग दिया है. और 'पेपर चोर' नाम की जो किताब आयी है उसमें बच्चों के लिए लिखी हुयी मेरी दस कहानियाँ हैं.

समीर:  भारत सबसे युवा देश है, माने सबसे ज्यादा युवा इस देश में है. पर यही ‘मिलिनियल्स’ आजकल रडार पर है. पेरेंट्स, रिश्तेदारों से लेकर वित्तमंत्रियो तक सभी उन्ही को कोस रहे है. उनकी सामाजिक और राजकीय समझ पर सवालिया निशान भी लगते आये है, इस बारे में आप क्या सोचते है?

वरुण: हर काल का युवा ऐसा ही होता है. युवा का काम ही है सबसे गाली खाना लेकिन अपने नए बिम्ब, नए मानक, नए हवाई क़िले गढ़ते रहना. मेरे हिसाब से मिलेनियनल एक media-generated idea है- marketing term कह सकते हैं इसे. आज का युवा हमेशा के युवा जैसा ही है. थोड़ा परेशान, थोड़ा रोमांटिक, थोड़ा ग़ुस्सैल, थोड़ा delusional, थोड़ा भटका हुआ, थोड़ा सुधरा हुआ.

समीर: नौजवानों की मानसिकता क्या ख़ूब बयान की आपने. अब आखरी लेकिन बेहद जरूरी सवालपर आते है. आपके व्यक्तित्त्व में और कामों में साहित्य, सिनेमा इनकी ग़हरी छाप नजर आती है. कौनसे साहित्यिकोंने, सिनेमा ने आपको प्रभावित किया है?

वरुण: लम्बी लिस्ट है. अमृता प्रीतम की कवितायें और कहानियाँ, उदय प्रकाश की कहानियाँ, मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास, मंटो के मीठा ज़हर जैसे क़िस्से, अमृत लाल वेगड़ के यात्रा वृत्तांत, विनोद कुमार शुक्ल की कौतुहल से भरी दुनिया, विसलावा ज़िम्बोर्सका की कविताएँ, टेड चैंग और स्टीफ़न किंग का science fiction. और सिनेमा में- पॉल टॉमस ऐंडरसन, ग्रेटा गर्विग, फ़ीबी वॉलर ब्रिज, सिडनी ल्यूमे, सत्यजीत रे, गुलज़ार, मार्टिन स्कोर्सेसे, बोंग जून हो, माइकल हनेके, और अल्फ़ोंसो कूरों ने ख़ासा असर डाला. 

(लेखन- समीर शेख
sameershaikh7989@gmail.com)

इस गुफ़्तगू का मराठी अनुवाद आप हाल ही में प्रकाशित हुए 'साधना युवा दिवाली अंक 2019' में पढ़ सकते है.

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Comments:

rekha adhav

बहुत सार्थक प्रयास.और अपने अंदरकी आवाज को गुंजने देना भी सार्थक....

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