हिंदुओं में जो उदारता थी वह खत्म होती जा रही है!

आज़ादी के 75 साल बाद मुसलमानों की स्थितीपर गुफ़्तगू (उत्तरार्ध)

सन 1958 में लखनऊ में जन्मी नूर जहीर जी एक हरफनमौला शख्सियत है. लेखिका, कार्यकर्ता, नृत्यांगना और अभिनेत्री इन चारों भूमिकाओं वो बख़ूबी निभा रही है, और उनमें वो महारथ भी रखती है. साहित्य और आन्दोलन उन्हें विरासत में मिला है. उनकी वालिदा रज़िया और वालिद सज्जाद ज़हीर उर्दू के नामी साहित्यकार थे. साथ ही वो प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापकों में से एक थे.

नूर ज़हीर जी अपने काम शुरुवात बतौर पत्रकार की. देश की राजनीती की दिशा बदलनेवाला शाहबानो का केस उन्होंने बतौर रिपोर्टर कवर किया. उस दौर के राजनैतिक और समाजी हालात ने उनकी संवेदनशीलता को झगझोड के रख दिया और उन्हें सोचनेपर मजबूर किया. देश की बदलती तस्वीरने उनके मन में सवालों का तूफ़ान खड़ा कर दिया. जिनके जवाब ढूंढने के लिए उन्होंने धर्म और संविधान का नए सिरे से अभ्यास किया. जिससे उन्हें महिलाओं की समस्याओं की तरफ, खास तौर पर मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं की तरफ देखने का नया नज़रिया मिला.

इन समस्याओं को सुलझाने के लिए एक ही वक़्त कई लड़ाईयां लड़नेकी जरूरत उन्हें महसूस हुई. इस लड़ाई में  सामाजिक सुधार और जनशिक्षा की अहम भूमिका थी, इस लिए उन्होंने इन दो कामों पर  खासा जोर दिया. शाहबानो केस के समय आये अनुभवों पर आधारित उपन्यास – ‘माय गॉड इज़ वुमन’ से उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ हुआ. हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी इन तीनों भाषाओँ पर उनकी मजबूत पकड है और इन तीनों भाषाओँ में उन्होंने साहित्य सृजन किया है.

‘मेरे हिस्से की रोशनाई’, ‘स्याही की एक बूँद’ (संस्मरण); ‘रेत पर ख़ून’, ‘ख़ामोश पहाड़’, ‘सुलगते जंगल’ (कहानी-संग्रह); ‘बड़ उरइय्ये’, ‘माइ गॉड इज़ ए वुमन’ (उपन्यास); ‘सुर्ख़ कारवाँ के हमसफ़र’, ‘एट होम इन एनिमी लैंड’ (यात्रा-वृत्तान्त); ‘पत्थर के सैनिक’ (नाटक); ‘डिनाइड बाइ अल्लाह’ (विमर्श); ‘आज के नाम’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जीवन) यह उनकी कुछ प्रमुख साहित्यकृतियाँ है. उनके साहित्य से सृजित नारीवादी और मलजुम के हक़ की बात रखनेवाली आवाज़ ने रुढ़िवादियों को खासा अस्वस्थ किया और यह जमात उनके खिलाफ हो गयी. उन्होंने ने इन ताकतों का धैर्य से मुकाबला किया.

लेखन के साथ नाटक भी समाज सुधार का प्रभावशाली माध्यम हो सकता है ये अहसास उन्हें हुआ और उन्होंने नाट्य का प्रशिक्षण लिया. अब वो साहित्यिक और कार्यकर्ता के साथ अभिनेत्री और नाटककार भी बन गयी. नाटक के खत्म होते ही नाटक में उठाये गये मसलों पर प्रेक्षकों से गुफ्तगू करना उन्होंने शुरू किया और ये समाज प्रबोधन का नया जरिया बना. ज्यादा से ज्यादा लोगों तर्क पहुँचने के लिए उन्होंने स्ट्रीट प्ले भी किये. वो ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ (दिल्ली) की अध्यक्ष और सचिव रह चुकी है.

इस सफर में उन्होंने अपने अंदर का कार्यकर्ता जिन्दा रखा. इसी संवेदनशीलता की वजह से उन्हें मुस्लिम समाज में बुनियादी काम की जरूरत महसूस हुई. बतौर कार्यकर्ता उन्होंने इसमें बड़ा योगदान भी दिया. इस दौरान आये अनुभव हमें उनके साहित्य में प्रतिबिंबित होते दिखाई देते है.

बतौर शोधकर्ता उन्होंने कला और साहित्य के क्षेत्र में काफी बुनियादी काम किया है.  ‘दि डांसिंग लामा’ (बौद्ध अभिनयात्मक कलाओं पर शोध), ‘उत्तर पश्चिमी हिमालय में बौद्ध, आदिवासी और मौखिक परम्परा’ (शोध); ‘डिनाइड बाइ अल्लाह’ (विमर्श); ‘उर्दू में आरम्भिक महिला लेखन’ (संकलन और अंग्रेज़ी में अनुवाद) यह उनकी कुछ प्रमुख शोध कृतिया है.

उन्हें कई पुरस्कारों और सन्मानों से नवाज़ा जा चूका है. उनमें से कुछ यूँ है - 'शिखर सम्मान', 'कृति सम्मान' (हिन्दी अकादमी); 'सार्क राइटर्स लिटरेरी अवार्ड';  'लाडली अवार्ड' (पापुलेशन फर्स्ट); 'उर्दू अंजुमन अवार्ड’,  जर्मनी.

उनके इस सफ़र को जानने के लिए और उसी के द्वारा देश के समाजी और सांस्कृतिक पहलुओं को उजागर करने के लिए नूर ज़हीर जी से की गयी ये गुफ्तगू...

मुसलमानों के पिछड़ेपन पर प्रकाश डालनेवाली सच्चर कमिटी जैसे रिपोर्ट को अमली जामा पहनाने में सरकारे क्यों असफल रही?

- मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय से मेरी बात हो रही थी. राइट टू इनफॉरमेशन एक्ट को लागू करने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका थी. और आज हम देख रहे हैं कि इस कानून को खत्म करने की कोशिशे हो रही है. मैं उस पर अफसोस कर रही थी. तो उन्होंने बड़े धैर्य से इसका जवाब दिया और कहा- फायदे और अच्छे के लिए कोशिश करते रहना है. जैसे ही कुछ अच्छा हुआ उसका इस्तेमाल करना है.10 सालों में इस कानून का हमने बहुत अच्छी तरीके से इस्तेमाल किया. हमें भी पता था कि कुछ सालों बाद जो भी सरकार आएगी वह इसे खत्म करेगी. क्योंकि उसे अपना नुकसान नजर आने लगेगा. फिरसे कोई अच्छा कानून आएगा और वह 5-10 साल चलेगा इसी दौरान हमें उसका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना होगा. काम जारी रखना होगा.

मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए कोशिश होती रही है. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था कि पढ़ाई लिखाई बहुत बड़ा अस्त्र है. हर एक मुश्किल में हाल-फिलहाल में देख रही हूं कि लड़कियां कोशिश कर रही हैं पढ़ रही है ऊंचे ओहदे पर जा रही है लेकिन मुसलमान लड़कों में पढ़ाई का प्रमाण कम है. और मेरे ख्याल से यह पूरे भारतीय समाज की मुश्किल है. लड़का हमारी कब्र पर मिट्टी डालेगा, अंतिम संस्कार करेगा, घर चलाएगा ऐसे सामाजिक कारणों से हमने लड़कों को जो बेवजह का महत्व दिया है. उस लाड-प्यार की वजह से वह पढ़ लिख नहीं रहे हैं. और लड़की के मां-बाप को यह फिक्र सता रही है कि हमारी पढ़ी-लिखी लड़की का रिश्ता कम पढ़े-लिखे लड़के से कैसे करें? इस वजह से बहुत जगह लड़कियों को भी पढ़ने से रोका जा रहा है.

देश को आजादी मिले 75 साल हो चुके हैं. क्या वो मुसलमानों तक पहुंची?

- इस आजादी का मुसलमानों को कितना फायदा हुआ इस पर बहस करना मुश्किल इसलिए हो गया क्योंकि मुल्क दो हिस्सों में तकसीम हो गया और पाकिस्तान वजूद में आया. यहां मैं साफ़ तौर पर बताना चाहूंगी कि पाकिस्तान को समर्थन करने वाले बहुत चुनिंदा लोग थे. अंग्रेजों का जीना को सपोर्ट ना मिला होता, और धैर्य से इस मसले से लड़ा जाता, तो मुल्क तक्सीम होने से बच जाता. क्योंकि गांधीजी पार्टीशन के बिलकुल खिलाफ थे. मौलाना आजाद ने भी यह तजवीज की थी 10 साल चला कर देखते हैं अगर 10 साल साथ रहने के बाद आपको ऐसा लगता है कि इस्लामी मुल्क बनाने के बगैर मुसलमानों का कुछ भला नहीं हो सकता तो हम रेफरेंडम करेंगे और पाकिस्तान बनेगा. इस बात को ना मानने की वजह से मुसलमान बैकफुट पर आ गए. भारत में वो रहे जिन्हें सेकुलरिज्म पर भरोसा था. वो सोचते थे कि हमें क्यों नहीं मिलेगी बराबरी? यह तो डेमोक्रेटिक और सेक्यूलर मुल्क है. उन्होंने इस देश पर भरोसा किया. उनके पास च्वाइस थी पाकिस्तान जाने कि उसे ठुकरा दिया.पर जो हिंदू और सिख बेचारे भाई वहां से आए उनके पास कोई च्वाइस नहीं था. इस वजह से बाकी हिंदुओं में जो द्वेष पैदा हुआ वह बढ़ते बढ़ते आज की स्थिति तैयार हुई है. बात बिल्कुल सही है कि ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए थी. उसके लिए जो संवाद चाहिए था, काम होना जरूरी था वह नहीं हो पाया. इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि आजादी का पूरा फायदा मुसलमानों को नहीं मिल पाया. साथ ही वह दलितों को आदिवासियों को, इसाईयो को और नोमेडिक ट्राइब्स को भी नहीं मिला है.

CAA,NRC के आन्दोलन में मुस्लिम महिलों का अभूतपूर्व योगदान रहा. क्या ये शम्मा फिर से जलेगी?

- मुसलमान महिलाओं को लगा कि यह हमला सबसे ज्यादा उनके ऊपर है. शादी करके दूसरी तरफ गई लड़की के लिए यह साबित कर पाना कि वह कौन है, कहां से आई है, यह थोड़ा पेचीदा मामला है. पुरुष टारगेट होगा तो हम भी इनडायरेक्टली टारगेट होंगे, पर इस मामले तो सीधे चोट हमारे ऊपर भी लगेगी. इसी वजह से शाहीनबाग आंदोलन खड़ा रहा जो मेरे घर के बिल्कुल करीब था. मैं वहां हररोज जाया करती थी. वहां दो-तीन घंटे बैठी रहती. मुझे वहां यह समझ में आ रहा था की औरतों का पूरा यकीन नॉन वायलेंस पर है. इंसान के वजूद पर हमला हो रहा हो तब उसने non-violent रहना बहुत बड़ी बात थी. इसमें जिन जिन की तारीफ की जाए कम है. यहा 90 साल की बूढ़ी औरत दी थी और छोटी बच्चीभी. शारीरिक और मानसिक, ऐसी दोनों तैयारियां उन्होंने कर रखी थी. इस मूवमेंट को फिर से जगाने की जरूरत है. और इस तरह के मूवमेंट को दूसरी जगह भी रिप्लिकेट करना चाहिए. मूवमेंट का अपना एक टेक्सचर होता है. कोरोना की वजह से यह मूवमेंट अचानक थक गई होगी लेकिन यह रिप्लिकेट जरूर हुई. किसान आंदोलन में.

बीते कुछ वर्षों में तेज़ी से सामाजिक इक्वेशन बदल रहे है, बहुसंख्यकवाद को सत्ताधारी बढ़ावा दे रहे है. इस माहौल नें देश और मुस्लिमो के भविष्य पर क्या असर डाला है?

- पोलराइजेशन का असर तो खराब ही होता है. पूरे संघ परिवार ने अंग्रेजों से अच्छी तरीके से सीखा है डिवाइड एंड रूल पॉलिसी कैसे अपनाई जाए. वह अलग अलग ढंगसे उसे अपना भी रहे हैं. वह ट्राइब्स में भी यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं की तुम मुंडा हो, तुम ओरा हो, तुम खांसी हो. वह पोलराइजेशन करते रहेंगे. डर इस बात का है की उन्हें किसी हद तक इसमें कामयाबी भी मिल रही है. उन्हें रोकने के लिए कौनसा बड़ा मूवमेंट चलाया जाए इस पर सोचना जरूरी है.

अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में भी इतना ज्यादा पोलराइजेशन बढ़ा है. यहां 20 दिन पहले एक शादी हो रही थी लव मैरिज. तो अचानक मौलवी साहब को ख्याल आया कि एक का बाप शिया है और एक का सुन्नी. उन्होंने सवाल करना शुरू कर दिया. क्योंकि हम अब बाहर रह रहे हैं और थोड़े खुले सोच के हो गए हैं इसलिए हमने उन्हें टोका और कहा कि आप निकाह नहीं पढ़ाना चाहते तो मत पढ़ाइए हम पढ़ा देंगे. खैर, उनको पता चला कि यहां उनकी दाल नहीं गलने वाली है. पोलराइजेशन की कोशिश अगर एक जगह से शुरू हो जाए तो उसके परिणाम बहुत होते हैं और वो यहां तक महसूस हो रहे हैं.

इस वक्त मौलवियों का सबसे बड़ा रोल ही होना चाहिए कि वह मुसलमानों को शिया, सुन्नी, पसमांदा, अशरफ इनमें बांटने के बजाय उन्हें मुसलमान के तौर पर जाने. यह बात वह कर भी नहीं रहे हैं और उनको इसकी ख्वाहिश भी नहीं है. क्योंकि उनका खुद का भी दारोमदार डिवाइड एंड रूल पर है. यहां पर शिया मस्जिद है और सुन्नी मस्जिद है. सुन्नीवाले शिया मस्जिद में नहीं जाते चाहे जितनी देर हो रही हो. वो भागे भागे 25 30 किलोमीटर जायेंगे ‘अपनी’ मस्जिद में नमाज़ पढने के लिए. वो डिवाइड मौजूद है और उसे बढ़ावा दिया जा रहा है और उसका फायदा उठा रहे हैं. 

जो मुस्लिम एक्टिविस्ट समाज में काम करते हैं और थोड़ा प्रोग्रेसिव स्टैंड लेते हैं उनपर यह धब्बा लगाया जाता है कि हम आर एस एस के एजेंट है. आपके साथ ऐसा कभी हुआ है क्या?

- बहुत ज्यादा बार हुआ है. यह तो यहां तक आ गया है कि जब वाजपेई जी की सरकार बनी थी तो लोगों ने कहा था कि अब तो यह मिनिस्टर बन जाएगी. मेरा दूर-दूर कहीं बीजेपी से ताल्लुक नहीं है. लेकिन उसी दौरान ऐसे कुछ आर्टिकल्स आने शुरू हो गए थे जिसमें यह बात कही जा रही थी. यह कहां जाता है कि आप भले उनकी मेंबर नहीं है पर आप उन्हीं के कॉज को आगे बढ़ा रही है. तो उन्हें मैं कैसे बताऊं कि यह मैं उनकी बात को आगे नहीं बढ़ा रही हूं. अगर आप अपने मसले हल कर दे तो उनको मौका ही ना मिले. आप हमेशा यह कहते हैं कि अब सही समय नहीं है. जब डिनाइड बाय अल्लाह प्रकाशित हुई तो लोगों ने कहा कि तुमने इसे गलत वक्त पर लिखा है. ठीक है अगर आप गलत वक्त है तो जब सही वक्त था तब आपने मुद्दे क्यों नहीं उठाये? मुद्दे तो उस वक्त भी मौजूद थे. हलाला तो उस वक्त भी मौजूद था. आप कहेंगे कि हलाला उस वक्त ज्यादा नहीं होता था. अन्याय के साथ भी क्यों ना हो, अन्याय के रस्ते अगर मौजूद है तो कोई ना कोई तो उसका फायदा उठाएगा. आपने क्यों नहीं रास्ता बंद किये? अगर आप बंद कर देते तो आज बीजेपी को यह मौका ही नहीं मिलता. ना आपको मौका मिलता यह कहने का कि मैं बीजेपी का एजेंडा चला रही हूं. 

ये तो बात हुई 75 सालों की. अब इन सारी समस्याओ से निजात पाने के लिए अगले 25 साल का क्या रोड मैप होना चाहिए. इसमें समाज की, बहुसख्यक – अल्पसंख्यक को की, साहित्यकारों की, मिडिया की क्या भूमिका होनी चाहिए.

- मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि समाज में तब्दीलया दो ही लोग लाएंगे. एक महिलाएं और दूसरे साहित्यकार. उसमें हम फिल्म और ड्रामावालों को भी शामिल कर देते हैं. उनके ऊपर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है, फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू हो. वो इस तरह की बातें भी कहते रहे, फिल्में भी बनाते रहे, लिखते भी रहे जिससे समाज में जागरूकता पैदा हो. अगर आप पूछेंगे कि कलाकार बनेंगे कैसे तो मुझे लगता है उसके लिए शिक्षा एक जरूरी हिस्सा हो जाती है.

मौजूदा दौर में पढ़ाई लिखाई तब्दीलयों के लिए जरूरी है. आप देखेंगे कि पढ़ाई को ही यह रूढ़िवादी रोकने की कोशिश कर रहे हैं. क्यों जेएनयू और जामिया जैसी यूनिवर्सिटीज पर अटैक हो रहे है? क्योंकि खुली शिक्षा मिले ना. वह जो रिजर्व कैटेगरी है उसमें लड़के लड़कियां भी भर्ती हो ना सके. दलित भी पीछे रहे मुसलमान भी पीछे रहे, और सेकंड क्लास सिटीजंस बनके रहे. इसलिए हमें यह देखना होगा कि शिक्षा को नुकसान ना होने पाए.

दूसरी बात एक्टिविज्म की है. एक्टिविज्म हर किसी को करने की जरूरत है. हमने मान लिया है कि यह ग्रुप है जो एक्टिविज्म करेगा दूसरा ग्रुप नीतियां बनाएगा. अब वो वक्त नहीं है कि हम विभाजित होकर के काम करें. जब लोग मुझसे पूछते हैं कि तुमने चार पांच क्षेत्रों में हात क्यों आजमाया? तो मैं उन्हें कहती हूं कि बहुत सारी चीजें करनी थी पर जिंदगी एक ही है इसलिए मैंने बहुत सारी चीजें की.

सभी को निडर होना है सभी को बात करते रहना है की तबदीली आए. क्योंकि समाज अगर रुक गया थम गया तो खत्म हो जाएगा. हमारे समाज के ऐसी हालत ना हो. और जब मैं हमारा समाज कहती हूं तो मैं सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं करती.

हिंदुओं में जो उदारता थी वह खत्म होती जा रही है यह बहुत खतरे की बात है. गोमती नदी के किनारे हमारा घर था. लोग वहां नहाने जाते थे. और पापा को देख कर प्यार से मुस्कुरा के जय सियाराम कहा करते थे. मेरे पापा कहते थे कि देखो इनके धर्म में कितनी उन्नति है कि यह महिला का नाम पहले लेते हैं. यह सियाराम कहते हैं. आज देखिए वह बदल गया है. जय श्री राम हो गया है. इस चीज को समझिए कि पेट्रीआर्की किस तरह से आगे बढ़ रही है. हमें इसलिए जय श्री राम से लड़ना है और उनसे पूछना है कि हमारी सिया कहां गई? तो यह लड़ाई हमें कई स्तरों पर लड़नी है. और लड़ते रहने के लिए ऊर्जा बनाए रखने के लिए हम सर जोड़ के मिल बैठकर आपस में संवाद करते रहे. 

यह जो बदलाव आते हैं उसमें सत्ताधारी पक्ष विपक्ष, रीजनल पार्टीज इन सब की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. तो आप इन पॉलीटिकल पार्टीज को- कांग्रेस, भाजप, लेफ्ट इत्यादि- को क्या सुझाव देंगे? 

- महिलाओं के लिए और खुलापन आने की जरूरत है. पार्टी के भीतर काम करने के उनको मौके मिले. ताकि वह महज किसी की बहन बेटी या मां के तौर पर नहीं बल्कि अपनी खुद की एक अलग छाप छोड़ सके. खुले पन का माहौल रहे इसके लिए हमें कोशिश करते रहना चाहिए. डेमोक्रेसी का मतलब वोट डालना और सरकार बनाना नहीं है. घर में हम कितने डेमोक्रेटिक हैं? बच्चे क्या पढ़ना चाह रहे है, किस से शादी करना चाह रहे है, किसके साथ घूमफिर रहे है, यहां तक की कौन सी किताबें पढ़ रहे है…इन सब पर हम कंट्रोल चाहते हैं. मैंने तो लोगों अपने बच्चों से को यह कहते सुना है कि तुम नोवेल मत पढो. अरे भाई नोवेल पड़ेगा तो वह अच्छा इंसान बनेगा. अच्छा साहित्य पढ़े बिना अच्छे इंसान नहीं बन सकते. डेमोक्रेसी घर तक पहुंचे इसकी कोशिश होनी चाहिए. 

कांग्रेस और बीजेपी के बारे में मैं एक बात कहूंगी. एक दौर था पाकिस्तान में जिया उल हक का. तब पाकिस्तान से कोमरेड्स यहां आते थे. जाहिर है वह बहुत दुखी हुआ करते थे. क्योंकि कोई जेल से रिहा हुआ होता था किसी को कोड़े पड़े होते थे. वो कहते थे कि हम लोग बहुत बुरे वक्त में जी रहे हैं, तुम लोग तो बहुत अच्छे दौर में हो. तो मैं उनसे यह कहती थी कि नहीं तुम लोग बेहतर वक्त में हो. क्योंकि तुम्हारी लड़ाई सीधी है. तुम्हें दुश्मन साफ नजर आ रहा है. तो बीजेपी को तो मैं यही राय दूंगी कि वह अपनी नीतियों पर टिकी रहे, हमारी लड़ाई सीधी रहेगी. और हमें समझ में आता रहेगा कि दुश्मन यह है.

कांग्रेस आज अपनी हर नीति रिएक्शन के तौर पर तैयार कर रहे हैं. बीजेपी पहले एक्शन करती है फिर ये उस पर यह रिएक्ट होते हैं. कांग्रेस और लेफ्ट पार्टीज अपनी खुद की नीतियां तैयार करें. आगे की सोचे. कि ये आज ही मुसलमानों को टारगेट कर रहे हैं, आगे ईसाई और सिखों को भी करेंगे. तो उन कम्युनिटीज में हमारा काम होना चाहिए. एक कम्यूनिटी के मामले में हम जागरूक नहीं थे पर अब दूसरे कम्युनिटी के बारे में रहेंगे. एक्शन का इंतजार ना करें हमारा एक्शन खुद तैयार रहे.

आप यूके में रहती है. वहां आपके यहां एक क्रिकेट स्टेडियम को सुनील गावस्कर का नाम देने की बात हो रही है. तो दूसरी तरफ एक भारतीय वंश के नेता को पंतप्रधान बनाने की कोशिश भी हो रही है. वहीं दूसरी और यहां हिंदुस्तान में ब्रिटिश कल्चर और इस्लामिक कल्चर के नाम बदलने की होड़ लगी हुई है..

- कुछ लोग मुझसे नाराज होंगे कि मैं हर चीज पाकिस्तान से जोड़ देती हूं. पाकिस्तान में रागों के नाम तक बदले गए और वह इस्लामिक किए गए. बड़े गुलाम अली पाकिस्तान से वापस आ गए. उनका पहला कंसर्ट लाहौर में हो रहा था. एक छोटा ख्याल गाते हुए उसमें कन्हैया का जिक्र आया. तो किसी ने उठकर कहा कि यह हिंदू गाने यहां पर मत गाइए. तो वह उठकर खड़े हो गए और कहां मैं जा रहा हूं यहां से वापस. क्योंकि मैं अगर यह नहीं गा सकता तो मुझे यहां नहीं रहना है. और वो वापस चले गये, कुर्तुलैन हैदर इसीलिए वापस आ गयी. क्यों की वो कह रही थी, मेरे खून में बुद्धिजम भी मिला है, हिन्दुइज्म भी मिला है, सारी चीजों का मिश्रण है मुझ में. तो उनपर सवाल उठाये जाने लगे. और आग का दरिया लिखने के बाद वो नहीं रुकी वहां. यहीं अब हिन्दुस्तान में हो रहा है. हमें बार बार कहते रहना था लड़ना था इन ताकतों के खिलाफ. तो ये दौर चलेगा. कुछ नाम बदले जायेंगे. पर कुछ मिसाले बाकी रहेंगी. 

हिंदुस्तान में जो हो रहा है वह देखकर गुस्सा भी आता है और लेकिन तकलीफ ज्यादा होती है. और हंसी भी आती है. क्योंकि आईडेंटिटी इस तरह से खत्म कि नहीं जा सकती. मेरे नाटक में एक प्रसंग है-  बहुत मेहनत और मशक्कत के बाद कबीर आसमान से नीचे आते हैं क्योंकि उन्हें बनारस देखना होता है. वह पोस्ट ऑफिस कर देखते हैं तो वहां वाराणसी लिखा होता है. यूनिवर्सिटी के आगे वाराणसी लिखा हुआ है. तो वो कहते हैं कि मैं तो गलत जगह उतर गया हूं. यह तो मेरा बनारस नहीं है. तो वह छोला भटूरा बेचने वाले एक बंदे से पूछते हैं कि भैया यह जगह कौन सी है? तो वो कहता है बनारस है! तो कबीर कहते हैं चलो मैं ठीक जगह आ गया! 

साक्षात्कारकर्ता  : शमसुद्दीन तांबोळी, समीर शेख
tambolimm@rediffmail.com 
sameershaikh7989@gmail.com 


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