मेरी दंतकथा का नायक !

चर्चित हिंदी उपन्यास 'दंतकथा' के लेखक का चिन्तन...  

हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार अब्दुल बिस्मिलाह का 'दंतकथा' यह लघुउपन्यास 1990 में 'इण्डिया टुडे' के हिंदी संस्करण में सिलसिलेवार तरीके से छपा था। बाद में राजकमल प्रकाशन गृहने इसे किताब की शक्ल में प्रकाशित किया। सतही तौर पर देखा जाये तो यह उपन्यास एक मुर्गे की आत्मकथा है। पर उसके अन्तरंग में झाँकने पर नजर आता है एक पशु की नजर से देखी गयी  इंसानी जिंदगी और उसका मनोविश्लेषण। 'दंतकथा' का मराठी अनुवाद जानेमाने साहित्यकार भारत सासणे ने किया है। इस मराठी संस्करण का साधना प्रकाशन' द्वारा हाल ही में (24 दिसम्बर को) प्रकाशन हुआ। इस मौके पर 'दंतकथा' के लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह का यह चिन्तन... 

वह दौड़ रहा था। वह उड़ कर इधर-उधर छिप रहा था। वह भयग्रस्त आतंकित था। वह अपनी जान बचाने के लिए कोई सुरक्षित स्थान खोज रहा था. क्यों? शायद उसने कोई खतरा देख लिया था! या फिर ऐसी स्थितियों से वह पहले भी दो-चार हो चुका था, कि अचानक उसे एक बड़ा-सा छेद दिखाई पड़ा और वह उसमें घुस गया। वह छेद एक नाबदान यानी घर का गंदा पानी बहाई जानी वाली नाली का था। नाली के मुँह पर यूँ तो लोहे की जाली गली रहती थी, मगर जाली टूट गई थी। इसलिए वह निकाल दी गई थी...। कुछ इसी प्रकार का दृश्य था वह, जिसमें अपने नायक को मैंने अभिनय करते हुए देखा था नायक, यानी एक मुर्गा। देसी मुर्गा! देसी मुर्गा पोल्ट्री फ़ार्म के मुर्गे से भिन्न होता है। पोल्ट्री फार्म के मुर्गे को एक छोटा-सा बच्चा भी आसानी से पकड़ सकता है। मगर देसी मुर्गा! उसे पकड़ने में अच्छे-अच्छों के छक्के छूट जाते हैं। जी हाँ, मेरा नायक वही था। एक देसी मुर्गा।

जब उक्त घटना घटी थी, तब मैंने सोचा भी नहीं था कि मैं आगे चल कर उस पर कुछ लिखँगा। वस्तुतः तब मैंने उस मुर्गे को एक कथानायक के रूप में देखा ही नहीं था। तब बस एक सामान्य-सा मुर्गा मात्र था। किन्तु धीरे-धीरे उस मुर्गे से जुड़ी हुई तमाम बातें मेरे समक्ष खुलने लगीं। मुझे याद आया कि जब वह नावदान के भीतर घुस गया तो उसे बाहर निकालने के लिए किस-किस तरह के प्रयास हुए? लोहे का एक लम्बा-सा छड़ भीतर डाला गया। जब कोई परिणाम प्रकट नहीं हुआ तो बाहर जाकर नाबदान के बाहरी मुहाने पर वही क्रिया दुहराई गई। यह कार्य-व्यापार दो-तीन दिनों तक चला मगर कुछ भी हाथ नहीं लगा। मुर्गा न इधर निकला, न उधर। फिर वह गया कहाँ?

बस, यही प्रश्न मुझे झिंझोड़ने लगा कि आख़ि रवह मुर्गा गया कहाँ गया? और फिर हस प्रश्न से जुड़े अनेक प्रश्न अपना सिर उठाने लगे। नाबदान के भीतर घुसने के बाद वह कैसा महसूस कर रहा था ? वहाँ तो अँधेरा रहा होगा! फिर वह उस अँधेरे में क्या कर रहा होगा? जब उसे भूख लगी होगी तो उसने क्या किया होगा? क्या सोचा होगा? अपनी भूख को उसने कब तक बर्दाश्त किया होगा? वह अगर डरा हुआ था तो अपनी डर से क्या वह कभी मुक्त नहीं हुआ होगा? अगर मुक्त हुआ होगा तो उसने फिर बाहर निकलने की चेष्टा क्यों नहीं की? वह पीछे या आगे की तरफ, कहीं तो निकलता! क्यों नहीं निकला? अगर नहीं निकला, तो फिर गया कहाँ? वह क्या किसी जादूगर का मुर्गा था? जादूगर तो रूमाल से कबूतर और कबूतर से सिक्का (क्वाइन) बना देते हैं। मगर वह कबूतर नहीं था। मुर्गा था।

ये सारे विचार, मेरे मन-मष्तिस्क में इस तरह उमड़ते-घुमड़ते रहे कि कालांतर में नाबदान के भीतर घुसे हुए उस असहाय प्राणी की दिनचर्या से लेकर उसकी मृत्यु तक के सारे दृश्य मेरे सामने इस प्रकार घूमने लगे जैसे कोई दु:स्वप्न चल रहा हो और फिर वही दुःस्वप्न एक फैंटेसी की शक्ल लेने लगा। 'दंतकथा' उसी फैंटेसी की उपज है।

मैंने कहीं पढ़ा था, संभवत: किसी महान कथाकार का कथन है, कि मनुष्यों पर लिखने से अधिक कठिन है पशु-पक्षियों पर लिखना। नि:संदेह यह बात सही है। क्योंकि मनुष्य के मनोभावों को हम आसानी से पकड़ लेते हैं। उनके चारित्रिक उतार-चढ़ाव को भी समझना अपेक्षाकृत सरल होता है। बहुत-सी बातें वार्तालाप से स्पष्ट हो जाती हैं। पशु-पक्षियों के संदर्भ में यह सहज सम्भव नहीं है। इसलिए जब मैंने इस 'दंतकथा' की योजना बनाई तो ऐसा कर पाना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती जैसा था । फिर भी मैंने इस विषय पर सोचना शुरू कर दिया।

तब मुझे अपने बचपन के अनुभव बहुत काम आए। मेरा बचपन मध्यप्रदेश के जंगलों, पहाड़ों, छोटी-बड़ी नदियों से घिरे एक गाँव में गुजरा है। वहाँ पशु-पक्षियों की भरमार थी। पालतू भी, जंगली भी। पक्षियों के कलरव से आँख खुलती, उनकी दिनचर्या देखते हुए दिन व्यतीत होता और उनकी चहचहाहट के साथ साँझ होती। रात में भी इक्की-दुक्की आवाजें सुनाई पड़ती और फिर भोर होते ही मुर्गे की बाँग! मुर्गा बोला, यानी सुबह हुई। हमारे घर में मुर्गे-मुर्गियों की बहुतायत थी। मेरी माँ ने उन्हें पाल रखा था। वे उनका बहुत खयाल रखती थीं। मैं उनके चूज़ों के साथ खेला करता था। उनमें से कोई चूजा अगर गायब हो जाता, उसे बिल्ली खा जाती या चील उड़ा ले जाती, तो मैं खूब रोता था।

हमारे यहाँ एक बहुत खूबसूरत मुर्गा था। मैं उसके साथ-साथ टहलता था। उसे टहलने का शायद बड़ा शौक था। जब-तब वह मुर्गियों के पीछे भागा करता था मैं भी उसके साथ भागता। बस, वही मुर्गा मेरी आँखों के सामने नाचने लगा। नाबदान में घुसने वाला मुर्गा उससे बहुत मिलता-जुलता था। फिर तो मुर्गों-मुर्गियाँ की एक पूरी दुनिया ही मेरे सामने खुल गई। चूजों से उनका जवान होना, उनकी चाल-ढाल, उनकी आदतें, उनके व्यवहार, उनकी खुशियाँ, उनके दुःख, उनकी बीमारियाँ, उनका जिबह होना, उनकी मृत्यु... सब कुछ साकार होने लगा। फिर तरह-तरह की छवियाँ प्रकट होने लगीं। और जीवन का एक नया ही रूप उजागर हो उठा।

इसके बाद पक्षियों की प्रकृति को मैंने समझने की कोशिश की। मनुष्य की भाँति पक्षी पीछे की तरफ नहीं चल सकते झटसे यह रहस्य खुल गया कि नावदान में घुसा मुर्गा जिधर से घुसा था उधर से क्यों नहीं निकल सका! वाहर सड़क की तरफ भी यदि नहीं निकला तो सम्भव है उस ओर नाली अधिक पतली रही हो। फिर भी, जब तक वह जीवित रहा, किस हाल में रहा होगा, यह बात मुझे कचोटती ही रही। और उसी कचोट ने मुझसे यह कथा लिखवा डाली। उस पूरी प्रक्रिया में बचपन के मेरे अनुभव बहुत सहायक सिद्ध हुए।

पहले तो मुझे लगा कि यह मात्र एक मुर्गे की आत्मकथा होगी, लेकिन जैसे ही कथा आगे बढ़ी मनुष्यता और अमनुष्यता का द्वन्द्व सामने आ खड़ा हुआ। मनुष्य के भीतर पशुता विद्यमान है, तभी तो गाहे-बगाहे वह बाहर निकल आता है और अचानक ही मनुष्य हिंस्र हो उठता है। वह हत्या करता है। प्राण लेता है। किसी की निरीहता उसके लिए कोई अर्थ नहीं रखती। वह भय और आतंक का सृजन करके भी स्वयं को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी समझता है। अशरफुल-मखलूकात। इस विचार ने मुझे बहुत उद्वेलित किया। तब यह कथा कुछ से कुछ होती चली गई। ऐसा मुझे प्रतीत हुआ।

मेरे समक्ष मनुष्य की अनेक मनुष्यविरोधी छवियाँ प्रकट होने लगीं। उन दिनों आतंकवाद का साया तो नहीं पसरा था, किन्तु साम्प्रदायिकता के अनेक रूप मैंने देखे थे। उन सभी रूपों में किसी न किसी प्रकार की हिंसा विद्यमान थी। हिंसा की वही भयावहता सघन होती चली गई और वही शायद कथा की केन्द्रीय वस्तु बन गईं। यहाँ शाकाहार या मांसाहार का प्रश्न निरर्थक है इस कथा से उसका कोई विशेष लेना-देना नहीं है। मुख्य बिन्दु है मनुष्य के भीतर छिपी हुई अमनुष्यता, जिसने समूची मानव जाति को कलंकित कर रखा है।

जो शक्तिशाली है वह निरीह प्राणियों पर अत्याचार करता है। उन्हें सताता है, उत्पीड़ित करता है और अत्यंत निर्ममता के साथ उनका गला घोंट देता है। किसी बेबस प्राणी को दमघोंटू माहौल में डाल देने में उसे ज़रा भी तकलीफ़ नहीं होती, उसके हृदय में तनिक-सी भी करूणा नहीं उत्पन्न होती। उल्टे, उसे शायद अपने इस कुकृत्य पर आनंद आता है।

आज जबकि चारों ओर भय और आतंक का एक विचित्र सा वातावरण बना हुआ है, तब इस कथा से गुज़रते हुए एक अजीब-सी झनझनाहट जैसी होती है। जगह-जगह मार-काट। खून-ख़राबा। इंच-इंच ज़मीन... नही नहीं, इंच-इंच भर इच्छा के लिए हत्याएँ। स्वार्थपरता और लोलुपता के वश किए जा रहे कदाचार। शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्तर पर भी किए जा रहे भयावह अत्याचार। एक दुर्दान्त आतंक के पैरों तले बिलबिलाती मानवता। यह सब कुछ आख़िर हमें किस ओर ले जा रहा है? यह कोई सामान्य प्रश्न नहीं है। इसमें चिन्ता की अनेकानेक परतें छिपी हुई हैं। उन्हें उधेड़ने पर बहुत कुछ उधड़ता चला जाएगा।

किन्तु चिन्ता या निराशा किसी समस्या का हल नहीं है। अस्ल चीज़ है जिजीविषा। वही जिजीविषा जिसे मेरे भीतर के लेखक ने शायद सपने में देखा। वही सपना, जो 'दंतकथा' में आया। सम्म्वतः स्वप्न ही जीवन की सार्थकता है। इस रचना में उसी सार्थकता की तलाश का एक प्रयत्न है। शायद वह प्रयत्न मनुष्यता को बचाए रखने में थोड़ा-बहुत सहायक हो सके।

'दंतकथा' पहले 'इण्डिया टूडे' (हिन्दी) में धारावाहिक छपा फिर इसका उर्दू रूपान्तर ' आजकल' (उर्दू) में प्रकाशित हुआ। 'दंतकथा' का अनुवाद मराठी और बांग्ला में भी हुआ। भाई श्री भारत सासणे द्वारा किया गया मराठी अनुवाद पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ। अब, यह नया संस्करण पुनः सामने आ रहा है हसके लिए मैं अनुवादक और प्रकाशक दोनों का आभारी हूँ।

-  अब्दुल बिस्मिल्लाह

(लेखक हिंदी साहित्य जगत के प्रसिद्ध उपन्यासकार है। ग्रामीण जीवन और मुस्लिम समाज के संघर्ष, संवेदनाएं, यातनाएं और अंतर्द्वंद उनकी रचनाओं के मुख्य केंद्रबिंदु है। उनकी पहली रचना 'झीनी झीनी बीनी चदरिया' हिन्दी कथा साहित्य की एक मील का पत्थर मानी जाती है। उन्होंने उपन्यास के साथ ही कहानी, कविता, नाटक जैसी सृजनात्मक विधाओं के अलावा आलोचना भी लिखी है।)

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'दंतकथा' के मराठी अनुवाद के प्रकाशन के मौके पर लेखक अब्दुल बिस्मिल्लाह का यह विडिओ सन्देश 
 

 

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