उर्दू साहित्य के सम्मानित कथाकार और आलोचक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का 85 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में पिछले हफ्ते निधन हुआ. फ़ारूक़ी साहब के व्यक्तित्व और साहित्य से पाठकों का संक्षिप्त परिचय करानेवाला ये लेख...
जहाँ तक मुझे याद पड़ता है शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब के काम से मेरा परिचय साल 2004-2005 के आसपास हुआ. ये परिचय उनके एक अंग्रेजी लेख (जो कि बुनियादी तौर पर एक लेक्चर था) के ज़रिये हुआ. क्यूंकि राजनीती और उससे विषयों में हमेशा से ही दिलचस्पी रही है और अकबर इलाहाबादी के नाम और किसी हद तक उनकी शायरी से पहले से वाक़िफ़ था, तो जब कहीं फ़ारूक़ी साहब लेख 'The Power Politics of Culture: Akbar Ilahabadi and the Changing Order of Things' पर नज़र पड़ी तो पढ़ने से अपने आपको रोक नहीं पाया है.
अंग्रेज़ी में ये लेख/लेक्चर 26 पन्नों का है जिसमें उन्होंने अकबर इलाहाबादी के जीवन और शायरी (टेक्स्ट के साथ साथ कॉन्टेक्स्ट पर) विस्तार से चर्चा की है। ये कहना ग़लत नहीं होगा की इसी लेख के ज़रिये मैं अकबर इलाहाबादी से समग्र रूप से परिचित हो पाया. दोस्तों से मालूम किया तो पता चला कि फ़ारूक़ी साहब बड़े नक़्क़ाद (आलोचक) हैं और उनके सामने बड़े-बड़े लेखक-शायर पानी भरते हैं।
बाद में अकबर इलाहाबादी पर फ़ारूक़ी साहब का एक और लेख पढ़ने को मिला, जिसका शीर्षक था, ‘अकबर इलाहाबादी पर एक और नज़र’। मुझे नहीं पता कि हिंदी में ये दोनों लेख मौजूद हैं या नहीं अलबत्ता मुझे ऐसा लगता है कि राजकमल द्वारा प्रकाशित फ़ारूक़ी साहब की किताब ‘अकबर इलाहाबादी पर एक और नज़र’ में ये दोनों लेख ज़रूर मौजूद होंगे।
फ़ारूक़ी साहब का पहला लेख पढ़ने के बाद मैं उनको लगभग भूल ही गया था. फिर शायद 2007 में जब जामिआ नगर में एक उर्दू किताब घर और पब्लिशिंग हाउस जिसका नाम ‘नयी किताब पब्लिशर्स’ है, की ओपनिंग हो रही थी तो वहां उनकी मशहूर ज़माना नावेल ‘कई चाँद थे सरे आसमां’ दिखी और यहीं ख़ुद फ़ारूक़ी साहब का भी पहली बार दीदार हुआ।
मैंने ये नावेल उर्दू में पढ़ी और मुझे पसंद भी आयी लेकिन मुझे इसका एहसास नहीं था कि ये नावेल क्लासिक की हैसियत रखती है. सच तो ये है कि जब तक फ़ारूक़ी साहब ने ख़ुद इसका तर्जुमा अंग्रेजी में नहीं किया इसको वो अहमियत नहीं मिल सकी जो इसको मिलनी चाहिए थी।
नावेल के हिंदी अनुवाद ने भी ग़ैर-उर्दू पाठकों में फ़ारूक़ी साहब की मक़बूलियत का सबब बनी। इसका अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उनके निधन के बाद ग़ैर-उर्दू, ख़ासतौर हिंदी पाठकों ने उन्हें इसी नावेल के हवाले से ही याद किया। नॉवेल का साहित्य में क्या मुक़ाम है उसपर मैं कुछ नहीं कह सकता क्यूंकि मैं अपने आपको उसके क़ाबिल नहीं समझता। लेकिन सिर्फ़ उर्दू या भारतीय साहित्य में ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य में इसकी अहमियत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि साहित्य के क्षेत्र में नोबेल अवार्ड से पुरस्कृत लेखक ओरहान पामुक ने इसे एक अद्भुत उपन्यास कहा है.
मैं ये दावा तो नहीं कर सकता और न ही करूँगा कि मैंने फ़ारूक़ी साहब को बहुत पढ़ा है. मगर जितना पढ़ा है उसकी बुनियाद पर और इसमें मेरी व्यक्तिगत रूचि और पसंद का ज़्यादह अमल दख़ल है, कहना चाहूंगा कि मुझे उनकी दो किताबें बहुत पसंद हैं और मेरे लिए रेफ़रन्स बुक्स की हैसियत रखती हैं. पहली किताब है, ‘उर्दू का इब्तदाई ज़माना : अदबी तहज़ीब व तारीख़ के पहलु’। इस किताब ने उर्दू के उत्पत्ति और विकास को लेकर जो बहुत सारी ग़लतफ़हमियां थी उसको दूर करने में बहुत मदद की. किताब हिंदी और अंग्रेजी में भी मौजूद है.
हिंदी में इस किताब का नाम ‘उर्दू का आरम्भिक युग’ है, जिसे राजकमल प्रकाशन ने 2007 में प्रकाशित किया था और अंग्रेजी में इसका नाम ‘Early Urdu Literary Culture and History’है जिसे Oxford University Press ने 2001 में प्रकाशित किया था।
फ़ारूक़ी साहब की दूसरी किताब जो मुझे बहुत पसंद हैं, उसका नाम है, ‘जदीदियत : कल और आज और दूसरे मज़ामीन’ जिसे 2007 में नयी किताब पब्लिशर्स ने प्रकाशित किया था. ये किताब उनके 16 लेखों का संकलन है. इसमें जदीदियत यानि आधुनिकता के अलावा अमीर ख़ुसरू, मीर, ग़ालिब, दाग़ देहलवी, मोहम्मद अली जौहर, अकबर इलाहाबादी, शाद अज़ीमाबादी, हसरत मोहानी, ईरानी फ़ारसी, हिंदुस्तानी फ़ारसी और उर्दू जैसे अहम विषयों पर तफ्सीली मज़ामीन मौजूद हैं.
इस संकलन में जिन दो लेखों ने मेरा ध्यान सबसे ज़्यादह आकर्षित किया वो हैं : ‘उर्दू, साइंस और मुसलमान’ और मेरा ‘मेरा ज़हनी सफ़र’. इन दोनों लेखों और इसके अलावा और भी कई सारे लेख हैं जिनको पढ़ कर ये मालूम होता है कि फ़ारूक़ी साहब महज़ एक आला दर्जे के आलोचक, कथाकार और शायर नहीं थे बल्कि वो बेहतरीन भी स्कॉलर थे जिनकी दिलचस्पी सिर्फ़ साहित्य में नहीं थी. वो साहित्य के साथ-साथ दूसरे अहम विषयों पर लिखते और बोलते थे।
‘उर्दू, मुसलमान और साइंस’ शीर्षक वाले लेख में जहाँ इस बात का तफ्सीली जायज़ा लिया है कि मुसलमानों में साइंस के पतन के कारण क्या थे वहीँ इसपर भी ग़ौर किया है कि क्या साइंस और मज़हब/धर्म एक साथ आ सकते हैं? उनके शब्दों में कहें तो दोनों ‘यकजा हो सकते’ हैं या नहीं? लेख के आखिर में वो लिखते हैं : "मुमकिन है ये बात अब कुछ वाज़ेह (स्पष्ट) हो चुकी हो की मज़हब और साइंस चाहे यकजा न हो सकें, एक दूसरे की राह में बाधक भी नहीं हैं. फलसफाए (दर्शन) साइंस के जदीद नज़रियात को मलहूज़ रखें तो मज़हब की पाबन्दी से साइंस की तकज़ीब (साइंस को झुठलाना) लाज़िम नहीं आती। हम अगर जदीद फ़लसफ़ाए साइंस लो इख्तयार कर (अपना) लें तो हमारे लिए उलूमे अक़लिया (rational sciences) में तरक़्क़ी की नयी रहें खुल सकती हैं."
इसी संकलन ने शामिल दूसरा मज़मून (लेख) जिसका ज़िक्र करना मैं बहुत ज़रूरी समझता हूँ वो है, ‘मेरा ज़हनी सफ़र’. ये लेख बुनयादी तौर पर उनके formative years के बारे में है। मेरा मानना है और मैं ग़लत भी हो सकता हूँ, कि इस लेख को पढ़े बिना फ़ारुक़ी साहब को समझना मुश्किल सा है।
इस लेख में अपने बारे में और अपने ख़ानदान के बारे में बहुत सारी दिलचस्प बातें बताते हैं. जैसे, बावजूद इसके कि वो प्रगतिशील लेखकों को बहुत पसंद करते थे और कईयों से उनकी गहरी दोस्ती भी थी, क्यों तरक़्क़ी पसंद तहरीक उनको प्रभावित नहीं कर सका.
इसके अलावा वो ये भी बताते हैं कि कैसे वो थोड़े दिनों के लिए जमाते इस्लामी की अदबी तहरीक (फ़ारूक़ी साहब के मुताबिक़ वो लोग अपने आपको ‘तामीर पसंद’ कहते थे, बाद में जिसका नाम ‘इदारा अदबे इस्लामी’ पड़ा) से जुड़े लेकिन जल्द भी उनको एहसास हो गया कि ये तरक़्क़ी पसंद तहरीक से बहुत अलग नहीं है.
मुझे नहीं पता कि ये लेख हिंदी-अंग्रेजी में उपलब्ध हैं या नहीं. लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा उनको समझने ने लिए, ख़ासतौर पर फ़ारूक़ी साहब की साहित्यिक यात्रा और intellectual journey को समझने के लिए इसको पढ़ना बहुत ज़रूरी है।
इसी लेख में ज़िक्र हैं कि उन्होंने लिखा है कोई सात साल के उम्र में उनके साहित्यिक जीवन का आग़ाज़ हुआ जब उन्होंने एक शेर का पहला मिसरा कहा था. और नौ साल की उम्र में एक रिसाला, जिसका नाम ‘गुलिस्तां’ था निकालने लगे थे। जब कॉलेज में थे तो उन्होंने एक नॉवेलेट लिखा था जिसका नाम था ‘दलदल से बाहर’ और ये मेरठ से निकलने वाली एक पत्रिका ‘मयार’ में कई किश्तों में प्रकाशित हुआ था।
बाद में चलकर फ़ारूक़ी साहब ने साहित्यिक आलोचना में एक नए परंपरा की शुरुआत की जिसको उर्दू में 'जदीदियत' के नाम से जाना जाता है. बरसों तक उन्होंने एक मशहूर साहित्यिक आलोचना की एक पत्रिका भी निकली जिसका नाम 'शबख़ून'.
वो छोटी उम्र से ही ट्रांसलेशन का काम करने लगे थे। ट्रांसलेशन से याद आया, आलोचना, साहित्य रचना, आदि के अलावा उनका एक बड़ा काम और योगदान अनुवाद के क्षेत्र में है।भारतीय उपमहाद्वीप के मशहूर उर्दू लेखक और जासूसी फ़िक्शन के बेताज बादशाह इब्ने सफ़ी को ग़ैर-उर्दू पाठकों, ख़ासतौर पर अंग्रेजी पाठकों में लोकप्रिय बनाने में उनका बड़ा अहम रोल है. इसके अलावा अंग्रेज़ी में उर्दू और फ़ारसी के बारे में जो कुछ लिखा है और जितना लिखा है उसे पढ़ने और समझने के लिए दस साल का भी वक़्त काम होगा.
साथ ही दास्तानगोई के रिवाइवल में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। दास्तानगो हिमांशु बाजपेयी के शब्दों में कहें तो : "उनसे पहले तक दास्तानगोई एक ऐसा विषय थी जिसके बारे में सुना तो सबने था लेकिन उसके बारे में आलोचना की कोई व्यवस्थित और प्रामाणिक किताब नहीं थी जिसके ज़रिए इस भूले-बिसरे फ़न की अज़्मत और रुतबे का हलका भी अंदाज़ा होता. फ़ारूकी साहब ने दास्तानगोई के तिलिस्म को फतेह करने में अपनी जान झोंक दी और जब ये काम पेश किया तो ऐसा किया कि लोग दंग रह गए. दास्तान-ए-अमीर हमज़ा के 46 वॉल्यूम्स जाने कहां कहां से लाकर इकट्ठा किए.
उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में हम लोग उन्हें ख़ूब पढ़ेंगे और उनसे सीखने की कोशिश करेंगे. अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो ये हमारा ही नुकसान होगा.
- महताब आलम
mdmahtabalam@gmail.com
(लेखक बहुभाषीय पत्रकार और 'द वायर - उर्दू' के पूर्व संपादक है।)
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